अशोक गहलोत—वसुंधरा राजे सबसे बड़े 'पॉवर सीकर' नेता हैं!


भारत की राजनीति में पॉवर सीकर शब्द बहुत मायने रखता है, यानी सत्ता का भूखा व्यक्ति, जो सत्ता को जनसेवा नहीं, बल्कि सत्ता प्राप्ति को ही अपने जीवन का अंतिम लक्ष्य मान लेता है। ऐसे नेता भारत के हर सियासी दल में मौजूद हैं, हर तरह की विचारधारा में हैं और हर युग में रहे हैं। ये वो लोग हैं जिनके लिए जनता, आदर्श, विचारधारा और लोकतंत्र की सीमाएँ सिर्फ सत्ता तक पहुँचने की सीढ़ी होती है। सत्ता के बिना इन्हें बेचैनी होती है और सत्ता में आने के बाद भी असुरक्षा सताती रहती है। भारत की राजनीति ऐसे 'पॉवर सीकर' या सत्ता लोलुप नेताओं से भरी पड़ी है, जो अपनी कुर्सी बचाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। अगर नाम गिनाएं तो कम से कम एक दर्जन नेता इस श्रेणी में आते हैं। राजस्थान से अशोक गहलोत, वसुंधरा राजे, महाराष्ट्र में शरद पवार, उद्धव ठाकरे, रामदास अठावले, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, दिल्ली में अरविंद केजरीवाल, बिहार में नितीश कुमार, रामविलास पासवान, लालू प्रसाद यादव, यूपी में मायावती और अखिलेश यादव, आंद्रप्रदेश में चंद्रबाबू नायडू, तमिलनाडु में एम करुणानिधि और जयललिता इसके बड़े उदाहरण हैं ....और इन सबसे कई गुणा अधिक हैं नरेंद्र मोदी हैं, जो 2001 में सत्ता पर काबिज हैं। मोदी का जादू ऐसा है कि बीते 24 साल में एक दिन भी सत्ता के बाहर नहीं रहे, लेकिन इन तमाम नेताओं में यदि सही मायने में सत्ता लोलुप नेता का खिताब पाने लायक कोई नेता है तो वो अशोक गहलोत ही हैं, जिन्होंने सत्ता के लिए दूसरी पार्टियों को खत्म किया, अपने ही डिप्टी सीएम को गद्दार बनाने का अथक प्रयास किया, बहुमत बनाए रखने के लिए निर्दलीय विधायकों को डराया और अंत में जब कुर्सी हाथ से निकलने की स्थिति पैदा हुई तो अपने आलाकमान से भी खुली बगावत कर डाली। पावॅर सीकर नेता हमेशा उस कुर्सी के लिए लड़े हैं, जिसे पाने के बाद उन्होंने बाकी सब चीजों को पीछे छोड़ दिया। इन सबकी राजनीति का केंद्र जनता या प्रदेश का विकास नहीं, बल्कि एकमात्र लक्ष्य सत्ता रही है। चाहे इसके लिए दलगत राजनीति से बाहर निकलकर कुछ भी करना पड़े। ये लोग सत्ता के बिना ऐसे तड़पते हैं, जैसे पानी के बिना मछली छटपटाती है।


कांग्रेस के दिग्गज नेता अशोक गहलोत की बात करें तो वे राजस्थान की राजनीति के सबसे लालची पॉवर सीकर्स माने जाते हैं। तीन बार राजस्थान के मुख्यमंत्री रहे गहलोत ने राजनीति को सेवा से ज़्यादा रणनीति का खेल बना दिया, इन्होंने सियासत में जादूगरी के नाम से कुचक्र का चतुर खेल किया है। जोधपुर के एक साधारण परिवार से निकलकर उन्होंने छात्र राजनीति में कदम रखा और धीरे-धीरे कांग्रेस की रीढ़ बन गए। कई बार सांसद—विधायक बने, लेकिन 50 साल की राजनीति करने के बाद भी सत्ता की भूख शांत होने का नाम नहीं ले रही है। इनकी सबसे बड़ी विशेषता रही है 'कभी हार नहीं मानना, चाहे इसके लिए अपनी ही पार्टी से क्यों न लड़ना पड़े।' गहलोत की राजनीति का मूल सिद्धांत “कुर्सी ही सबसे बड़ी सेवा है।” इसके लिए हर उस नेता को या तो अपने साथ मिला लेते हैं या फिर राजनीतिक रूप से निष्क्रिय कर देते हैं, जो उनकी कुर्सी के लिए खतरा बन सकता है। यह रणनीति उन्होंने 1998 में पहली बार सीएम बनने के लिए अपनाई। हरिदेव जोशी, परसराम मदेरणा, शीशराम ओला, महिपाल मदेरणा, सीपी जोशी, रामेश्वर डूडी, सचिन पायलट और अब गोविंद सिंह डोटासरा, ये सभी नेता किसी न किसी दौर में सत्ता लोलुप अशोक गहलोत के शिकार बने हैं।


2008 के चुनाव के बाद जब कांग्रेस बहुमत से 6 सीटें पीछे रह गई, तब भी गहलोत ने ऐसा समीकरण बनाया कि सीपी जोशी, जो मुख्यमंत्री की रेस में थे, वो एक वोट से हार गए। कहा जाता है कि वह हार किसी राजनीतिक दुर्घटना से ज़्यादा, एक “पॉलिटिकल कैलकुलेशन” थी। सीपी जोशी को किनारे करके उन्होंने अपनी सत्ता बचाने के लिए बसपा के सभी जीते हुए 6 विधायकों को कांग्रेस में शामिल कर लिया, यानी राजस्थान से पूरी राजनीतिक पार्टी को ही निगल गए। इसके बाद 2018 में जब कांग्रेस सत्ता में लौटी, तो आलाकमान ने युवाओं को बढ़ावा देते हुए सचिन पायलट को संभावित चेहरा बनाया, मगर गहलोत ने ऐसा माहौल बनाया कि पायलट को डिप्टी सीएम की कुर्सी तक सीमित रहना पड़ा। इस तीसरे कार्यकाल में भी अशोक गहलोत ने दूसरी बार बसपा के सभी 6 विधायकों को कांग्रेसी बना डाला। अपनी सत्ता बचाने के लिए उन्होंने सचिन पायलट की उनसे नाराजगी को कांग्रेस से गद्दारी का नाम दे डाला। पॉलिटिकल ड्रामा करके अपनी सरकार को उन्होंने 34 दिन दो होटलों में कैद कर दिया, लेकिन सत्ता को नहीं छोड़ा। उन्होंने यहां तक कह दिया कि वो तो मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ना चाहते हैं, लेकिन कुर्सी उनको नहीं छोड़ती। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि अशोक गहलोत कितने बड़े सत्ता लोलुप नेता हैं।


गहलोत का पॉवर सीकिंग स्वभाव इतना गहरा है कि उन्होंने 25 सितंबर 2022 में जब कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने का प्रस्ताव आया, तब उन्होंने सोनिया गांधी के खिलाफ खुली बगावत करते हुए सीएम की कुर्सी छोड़ने से इनकार कर दिया। उन्होंने अपने समर्थक 91 विधायकों से इस्तीफे का नाटक करवाकर आलाकमान को कड़ा संदेश दिया कि “या तो मुख्यमंत्री मैं रहूंगा या कांग्रेस की सरकार ही नहीं रहेगी।” गहलोत का यह कदम कांग्रेस आलाकमान के खिलाफ खुली बगावत के रूप में देखा गया, लेकिन वो पीछे नहीं हटे। आखिरकार पार्टी ने हार मान ली और गहलोत ने अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा किया। यह वो दिन था, जब सीएलपी की मीटिंग बुलाकर सचिन पायलट को विधायक दल का नेता बनाया जाना था। पूरे पांच साल में एक यही वो दिन था, जब सचिन पायलट के सीएम बनने की सबसे अधिक संभावना बनी थी। राजनीति में यही एक पॉवर सीकर की असली पहचान होती है, जो संगठन, नेता और अनुशासन को अपनी सत्ता के सामने बौना कर देता है।


अशोक गहलोत की राजनीति में एक और बात खास है। वे कुर्ता—पायजामा और चप्पल पहने हमेशा “साधु” की तरह सरल छवि में रहते हैं, लेकिन उनके भीतर एक सियासी रणनीतिकार छुपा है। उनकी पहनावे की सादगी के पीछे सत्ता की अद्भुत भूख छिपी है। चाहे अपने विरोधियों को मुस्कराहट से निष्क्रिय करना हो, कानूनी कार्रवाई के डर से मंत्रियों, विधायकों को अपने साथ रखना हो या अपने समर्थकों को सत्ता के मोह में बांधकर रखना हो, गहलोत इस कला में माहिर खिलाड़ी हैं। गहलोत किसी को सीधे दुश्मन नहीं बनाते, लेकिन धीरे-धीरे उसकी सियासी ज़मीन खिसका देते हैं। यही कारण है कि 50 साल से सक्रिय रहते हुए राजस्थान कांग्रेस में उन्होंने आज तक किसी को अपनी बराबरी पर नहीं आने दिया।


बीजेपी नेता वसुंधरा राजे की बात करें तो वे भी पॉवर सीकर की श्रेणी से अलग नहीं हैं। भाजपा में उन्हें राजस्थान की “आयरन लेडी” कहा जाता है, लेकिन असल में वो भाजपा के संगठन से ज़्यादा अपनी निजी सत्ता के लिए जानी जाती हैं। दो बार मुख्यमंत्री रहीं वसुंधरा ने हमेशा पार्टी के भीतर अपनी समानांतर सरकार चलाई है। यही वजह है कि कई बार वसुंधरा का रिश्ता भाजपा हाईकमान से टकराव वाला रहा है, क्योंकि वो दिल्ली के निर्देशों की बजाय जयपुर से सत्ता चलाना चाहती थीं। अशोक गहलोत की भयंकर नाकामी के बाद 2013 के चुनाव में जब भाजपा ने प्रचंड बहुमत हासिल किया, तब वसुंधरा ने अपने गुट को इतना मजबूत किया कि केंद्र में बैठा नेतृत्व उन्हें छू भी न सका। इस वजह से 2018 में जब हार हुई तो पार्टी ने धीरे-धीरे उन्हें किनारे करना शुरू कर दिया। बावजूद इसके भाजपा आज तक वसुंधरा को पूरी तरह से हाशिए पर नहीं डाल पाई, क्योंकि वे अभी भी जनता और कार्यकर्ताओं में अपनी मजबूत पकड़ रखती हैं। यही गुण एक पॉवर सीकर का पॉवर पक्ष होता है, हार मान लेना इनके शब्दकोश में नहीं होता।


दरअसल, अशोक गहलोत और वसुंधरा राजे दोनों की राजनीति एक-दूसरे की छाया जैसी है। दोनों ही नेताओं ने 25 साल शासन कर राजस्थान को “पर्सनल ब्रांड पॉलिटिक्स” में बदल दिया। गहलोत कांग्रेस में और वसुंधरा भाजपा में सत्ता की कुंजी खुद के पास रखना चाहती हैं। दोनों अपने-अपने दल में ऐसे नेता हैं, जिनके बिना चुनाव जीतना मुश्किल तो नहीं, लेकिन सत्ता चलाना नामुमकिन होता है। यही कारण है कि चाहे कांग्रेस हो या भाजपा, दोनों दल इन नेताओं को नाराज़ नहीं कर सकते। राजनीति में पॉवर सीकर होना बुरा भी नहीं, लेकिन जब यह सत्ता की भूख लोकतंत्र और जनता के ऊपर हावी हो जाए, तब यह बीमारी बन जाती है। अशोक गहलोत और वसुंधरा राजे जैसे नेताओं की सफलता इस बात का सबूत है कि भारत में राजनीति अब सेवा नहीं, बल्कि सत्ता प्राप्ति की कला बन चुकी है। जनता उनके लिए साधन है, सेवा का लक्ष्य बिलकुल भी नहीं है। यही कारण है कि जनता हर बार सत्ता बदल देती है, मगर पॉवर सीकर नेता फिर भी नहीं बदलते, वे सिर्फ चेहरा, नारा और तरीका बदलते हैं, लेकिन उनमें कुर्सी की भूख जस की तस रहती है। आप सोच रहे होंगे कि मैंने इन्हीं दो नेताओं की बात क्यों की? असल बात यह है कि राजस्थान में अपने समय के दिग्गज नेता रहे हीरालाल शास्त्री, जयनारायण व्यास, मोहनलाल सुखाड़िया से लेकर भैरोंसिंह शेखावत तक 14 मुख्यमंत्री बने हैं, लेकिन कभी इतने सत्ता लोलुप नहीं रहे, जितने अशोक गहलोत और वसुंधरा राजे रही हैं। इन्हीं दोनों नेताओं विपक्ष के बजाए अपने दल के नेताओं को जमींदोज कर सत्ता पाने का नया रास्ता बनाया है, जिसपर आज राजस्थान के तमाम रीलबाज युवा नेता चल रहे हैं।

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