डॉक्टरी करके सरकारी नौकरी के लिए लोग अपना जीवन खपाने को तैयार बैठे हैं। अपने बच्चों को सरकारी डॉक्टर बनाने के लिए माता-पिता हर साल लाखों रुपये मेडिकल एंट्रेंस की तैयारी में खर्च करते हैं। सलेक्शन होने के बाद एमबीबीएस, एमडी करने के लिए करोड़ों रुपये खर्च होते हैं ताकि बच्चों का सुरक्षित भविष्य बन सके। लेकिन जब सरकारी नौकरी मिलने के बाद यही सपना गले की हड्डी बन जाए, आत्मा को कचोटने लगे, अयोग्य लोगों के नीचे काम करना पड़े, नेताओं और अधिकारियों की जी-हुजूरी करनी पड़े, तब एक योग्य डॉक्टर भी सरकारी नौकरी को लात मारने को मजबूर हो जाता है।
राजधानी जयपुर के एसएमएस मेडिकल कॉलेज और उससे जुड़े अस्पतालों में यही स्थिति बन चुकी है। यहां हर साल 20 से 25 डॉक्टर सरकारी नौकरी छोड़ने के लिए आवेदन करते हैं। वर्तमान में भी लगभग एक दर्जन सीनियर डॉक्टरों ने वीआरएस के लिए आवेदन कर रखा है। यदि सरकार ने उनकी रिक्वेस्ट स्वीकार कर ली, तो ये डॉक्टर निजी अस्पतालों और मेडिकल कॉलेजों में सर्विस शुरू करेंगे, जहां उन्हें वो सम्मान, आजादी और कमाई मिलेगी, जिसके वे वास्तव में हकदार हैं।
उत्तर भारत का सबसे बड़ा अस्पताल, लेकिन व्यवस्था सबसे कमजोर
एसएमएस अस्पताल उत्तर भारत का सबसे बड़ा अस्पताल है, जहां हर साल एक करोड़ से अधिक मरीज उपचार के लिए आते हैं। यह राजस्थान ही नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और हरियाणा से आने वाले मरीजों के लिए भी भरोसे का केंद्र है। एसएमएस मेडिकल कॉलेज प्रदेश का सबसे पुराना मेडिकल संस्थान है, जिससे 7–8 बड़े अस्पताल जुड़े हैं। मरीजों की संख्या के हिसाब से डॉक्टर तो हैं, लेकिन सरकार नए डॉक्टरों को स्थायी नियुक्ति के बजाय एडहॉक आधार पर रखती है।
परिणाम यह होता है कि जैसे ही किसी को बेहतर अवसर मिलता है, वे नौकरी छोड़कर चले जाते हैं। जो डॉक्टर नियमित हैं, उनके ऊपर काम का बोझ बढ़ जाता है। यह अस्पताल जितना बड़ा नाम है, उतनी ही बड़ी जिम्मेदारी यहां के डॉक्टरों पर होती है।
डॉक्टरों पर नेताओं और अफसरों का दबाव
मरीजों की सेवा के साथ-साथ यहां राजनीतिक और प्रशासनिक दबाव भी भारी पड़ता है। नेताओं की सिफारिश, विधायकों की जान-पहचान और वीआईपी ट्रीटमेंट की मांग आम बात है। कहने को डॉक्टर सबसे बड़े अधिकारी होते हैं, लेकिन सिस्टम ऐसा है कि उन पर भी एक आईएएस अधिकारी बॉस होता है। अगर डॉक्टर किसी नेता या अधिकारी को संतुष्ट नहीं कर पाया, तो उसके खिलाफ कार्रवाई या तबादले की तलवार लटक जाती है। अब यह हालात बन चुके हैं कि एसएमएस में डॉक्टरों को सिर्फ मरीज नहीं, बल्कि नेताओं और अफसरों को भी "ठीक" रखना पड़ता है।
सरकार बदली तो डॉक्टरों की पोस्ट भी बदल जाती है
राजस्थान में सरकार बदलते ही सिस्टम की दिशा भी बदल जाती है। भाजपा की सरकार हो तो भाजपा से जुड़ा डॉक्टर "प्राइम पोस्ट" पर होता है, कांग्रेस की सरकार हो तो कांग्रेस के करीबी डॉक्टर चमकते हैं। इस राजनीतिक खींचतान के कारण अस्पताल दो विचारधाराओं में बंट चुका है। कई योग्य और वरिष्ठ प्रोफेसर अपने से जूनियर या कम योग्य अधिकारियों के नीचे काम करने को मजबूर हैं। इससे उनका आत्मसम्मान और मनोबल टूट रहा है।
योग्यताओं का दमन और कुंठा
सरकारी अस्पतालों में पांच साल तक सत्ता में रहने वाला दल अपने लोगों को प्रमोशन देता है और योग्य लोगों को किनारे कर देता है। परिणामस्वरूप, मेहनती डॉक्टर कुंठा में आकर नौकरी छोड़ने का मन बना लेते हैं।
सरकारी बनाम निजी वेतन का फर्क
एसएमएस कॉलेज के असिस्टेंट प्रोफेसर को लगभग ₹1.25 लाख, एसोसिएट प्रोफेसर को ₹1.5 लाख, प्रोफेसर को ₹2 लाख और सीनियर प्रोफेसर को ₹2.5 लाख वेतन मिलता है। जबकि प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों में इन्हीं पदों पर यही डॉक्टर 10 गुना अधिक वेतन पाते हैं।
उधर, प्राइवेट संस्थानों में प्रैक्टिस की भी छूट होती है। जबकि सरकारी डॉक्टर ऐसा नहीं कर सकते। जब एक ही बैच का सहकर्मी प्राइवेट कॉलेज में दस गुना कमा रहा होता है, तो सरकारी डॉक्टर के मन में असंतोष पैदा होना स्वाभाविक है।
रिटायरमेंट की उम्र का अजीब फर्क
सरकारी कॉलेज में डॉक्टर की रिटायरमेंट उम्र 65 साल है, जबकि प्राइवेट कॉलेजों में वही प्रोफेसर 70 साल तक पढ़ा सकते हैं। यह भी एक बड़ा कारण है कि सीनियर डॉक्टर प्राइवेट कॉलेजों की ओर झुक रहे हैं।
प्राइवेट कॉलेजों की मोटी कमाई का खेल
आप सोच रहे होंगे कि प्राइवेट कॉलेज इतने ऊंचे वेतन कैसे देते हैं? इसका जवाब उनके एडमिशन फीस स्ट्रक्चर में छिपा है। प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों में एमबीबीएस की फीस सालाना 20 से 50 लाख रुपये तक होती है। 250 सीट वाले कॉलेज की सालाना कमाई सिर्फ फीस से ही 50 से 125 करोड़ रुपये तक हो जाती है। ऐसे में 10–12 प्रोफेसर को मोटी तनख्वाह देना उनके लिए बड़ी बात नहीं होती। बल्कि उन्हीं प्रोफेसरों के नाम से कॉलेज को एडमिशन और अस्पतालों को मरीज मिलते हैं, यानी एक तरह से निवेश पर मुनाफा।
एसएमएस की सर्जरी में वेटिंग, प्राइवेट में त्वरित इलाज
सरकारी सिस्टम की कमजोरी यह है कि संसाधन पर्याप्त नहीं हैं। नतीजतन, एसएमएस अस्पताल में सर्जरी के लिए कई दिनों की वेटिंग रहती है, जबकि प्राइवेट अस्पतालों में उसी दिन ऑपरेशन हो जाता है।
दबाव, राजनीति और सिस्टम से थके डॉक्टर
इन तमाम कारणों से डॉक्टर मानसिक और पेशेवर रूप से थक चुके हैं। सिस्टम के दबाव, राजनीति के जाल और अयोग्यता के सम्मान से परेशान होकर हर साल दर्जनों डॉक्टर वीआरएस लेकर प्राइवेट संस्थानों में चले जाते हैं और यही वो असली तस्वीर है, जहां डॉक्टर मरीज नहीं, बल्कि "पर्ची वालों" से जूझ रहे हैं।
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