निकाय चुनावों में दो से अधिक बच्चों वाले उम्मीदवारों पर लगी रोक को राजस्थान सरकार हटाने जा रही है। यह सिर्फ एक प्रशासनिक बदलाव नहीं है, बल्कि यह राज्य की राजनीति, सामाजिक संरचना और जनसंख्या नीति के बीच छिपे बड़े समीकरणों को उजागर करता है। करीब 30 साल पहले 1995 में तत्कालीन मुख्यमंत्री भैरोसिंह शेखावत की सरकार ने एक ऐतिहासिक कदम उठाते हुए दो से अधिक बच्चें वालों को निकाय चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी थी। उस फैसले के कारण प्रदेश में बड़ा विरोध भी हुआ था।
कई नेताओं के अयोग्य होने के कारण खुद भाजपा के अंदर ही भैरोसिंह शेखावत की आलोचना हुई थी। तब राजस्थान देश का पहला राज्य बना था, जिसने “दो बच्चे नीति” को पंचायत और नगर निकाय चुनावों से जोड़ा था। इसका उद्देश्य जनसंख्या नियंत्रण को बढ़ावा देना था, लेकिन तीन दशक बाद भजनलाल शर्मा की भाजपा सरकार इस नीति को पलटने जा रही है। सवाल यह उठता है कि क्या अब राजस्थान की जनसंख्या नियंत्रित हो गई है? या फिर यह फैसला किसी राजनीतिक दबाव या चुनावी रणनीति का हिस्सा है?
राजस्थान भाजपा के भीष्मपिता कहे जाने वाले भैरोसिंह शेखावत का दौर 90 के दशक की राजनीति का वह समय था, जब भारत में जनसंख्या वृद्धि को सबसे बड़ी चुनौती माना जा रहा था। लोगों को स्वत: जनसंख्या नियंत्रित करने के लिए “हम दो, हमारे दो” का नारा सरकारी दीवारों से लेकर स्कूल की किताबों तक में छाया हुआ था।
जब तमाम प्रयासों के बाद भी जनसंख्या पर नियंत्रण नहीं लगा तो शेखावत सरकार ने इसी नीति को सामाजिक व्यवहार में उतारने की कोशिश की। सरकार ने तय किया कि अगर कोई व्यक्ति दो से अधिक संतान पैदा करता है, तो उसे पंच, सरपंच, पार्षद, या चेयरमैन जैसे किसी भी स्थानीय निकाय चुनाव में उम्मीदवार बनने की अनुमति नहीं होगी। उस दौर में इस फैसले का असर भी दिखा और कई नेताओं ने तीसरा बच्चा पैदा करने से बचने के लिए परिवार नियोजन अपनाया, जबकि कई नेताओं को अपने पदों से हाथ धोना पड़ा।
उस कानून के बावजूद कई लोग ऐसे हैं जो तीन या चार बच्चों के परिजन हैं, लेकिन अपने भाइयों को गोद देकर इस कानून से बचते हुए चुनाव लड़ लेते हैं। तीस साल में उस फैसले का असर कितना हुआ, यह तो शायद सरकार कभी बताएगी नहीं, लेकिन तीन दशक बाद इसे बदलने का निर्णय जरूर हो गया है। अभी विधानसभा का सत्र नहीं चल रहा है, इसलिए सरकार अध्यादेश लाने जा रही है, जिसे 6 महीनों के भीतर विधानसभा में कानून के रूप में पारित कराना अनिवार्य होगा।
अब 2025 में जब भजनलाल सरकार उसी कानून को हटाने जा रही है, तो इसका अर्थ है कि सरकार जनसंख्या नियंत्रण के बजाय “जन प्रतिनिधित्व” को प्राथमिकता देना चाहती है। सरकार का तर्क यह हो सकता है कि शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाओं और शहरीकरण के चलते अब परिवार स्वाभाविक रूप से छोटे हो गए हैं। भारत की जनसंख्या वृद्धि दर 1991 की तुलना में लगभग आधी रह गई है।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे के अनुसार राजस्थान की कुल प्रजनन दर अब 2.0 के आसपास आ चुकी है, जो “स्थिर जनसंख्या” की सीमा मानी जाती है। हालांकि, यह एक औसत है, जो सभी धर्मों और समाजों में समान रूप से लागू नहीं होता है। सरकार तकनीकी रूप से यह कह सकती है कि जनसंख्या नियंत्रण के लिए अब ऐसी रोक की जरूरत नहीं है।
लेकिन इस निर्णय का सामाजिक और राजनीतिक असर भी कम नहीं होगा। राजस्थान के ग्रामीण और अर्धशहरी इलाकों में अभी भी परिवार नियोजन पूरी तरह स्वीकार्य नहीं हुआ है। कई समाजों में अधिक बच्चों को “परिवार की ताकत” और “समाज में सम्मान” से जोड़ा जाता है।
यही वजह थी कि 1995 के बाद सैकड़ों जनप्रतिनिधियों ने चुनाव लड़ने के लिए अपने तीसरे या चौथे बच्चे को “गैरकानूनी” बताते हुए रजिस्ट्रेशन से बाहर कर दिया या अपने परिवार के अन्य किसी सदस्य को गोद दे दिया। अब जबकि यह रोक हटेगी तो ऐसे परिवारों को फिर से राजनीतिक अवसर मिलेंगे। इसका सीधा फायदा उन जातीय और सामाजिक समूहों को होगा, जिनकी जनसंख्या अधिक है। मोटे तौर देखा जाए तो राजस्थान में जाट, गुर्जर, मीणा, बंजारा, अनुसूचित जातियों और मुसलमानों के बड़े हिस्से को पंचायत चुनाव में हिस्सा लेने का अवसर मिलेगा।
राजनीतिक रूप से यह कदम भाजपा के लिए डबल एज बन सकता है। एक ओर पार्टी ग्रामीण वर्गों में लोकप्रियता बढ़ा सकती है, तो दूसरी तरफ उसे “जनसंख्या नियंत्रण विरोधी” कहकर विपक्ष के निशाने पर भी आना पड़ेगा। कांग्रेस इसे “भैरोसिंह शेखावत की विरासत के खिलाफ कदम” बताकर भाजपा में नैतिक गिरावट का उदाहरण बनाकर पेश करेगी। दिलचस्प बात यह है कि राजस्थान में कई भाजपा नेता खुद इस कानून के कारण चुनाव नहीं लड़ पाए थे। इस पाबंदी के हटने से पार्टी के भीतर भी नए अवसर खुलेंगे।
एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यह बदलाव अध्यादेश के माध्यम से लाया जाएगा। इसका अर्थ है कि सरकार इस निर्णय को तत्काल प्रभाव से लागू करना चाहती है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के कारण जल्द से जल्द निकाय चुनाव कराने की पाबंधी के कारण संभवतः आगामी निकाय चुनावों को ध्यान में रखकर ही अध्यादेश लाया जा रहा है। ऐसे में यह फैसला ग्रामीण मतदाताओं में सरकार की पकड़ मजबूत करने की कोशिश के रूप में देखा जा सकता है।
अब बात करें नुकसान की। इस पाबंदी को हटाने से सरकार के लिए नैतिक चुनौती पैदा होगी। यह कानून केवल चुनावी प्रतिबंध नहीं था, बल्कि यह एक “संदेश” था कि राज्य जिम्मेदार जनसंख्या नीति पर चलता है। जब सरकार इसे हटाएगी, तो यह संकेत जाएगा कि राज्य जनसंख्या नियंत्रण के सिद्धांत से पीछे हट गई है।
भारत में उत्तर प्रदेश, हरियाणा, मध्यप्रदेश जैसे कई राज्यों में दो बच्चों का नियम स्थानीय चुनावों में लागू है। इसलिए राजस्थान सरकार का यह कदम उल्टा चलना माना जाएगा। विशेषज्ञों का कहना है कि यह फैसला उस “सामाजिक अनुशासन” को कमजोर करेगा, जो तीन दशकों में बना था। व्यावहारिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो इस कानून ने अब तक जिस वर्ग को सबसे ज्यादा प्रभावित किया, वह गरीब और ग्रामीण तबका था।
पढ़े-लिखे, सम्पन्न और प्रभावशाली लोग इस नियम को कानूनी चालों से पार कर जाते थे। कभी गोद लेने के बहाने, तो कभी जन्म प्रमाण पत्रों में हेराफेरी से बच जाया करते थे, लेकिन गरीब परिवारों के लोग, जिनके यहां तीसरा बच्चा अनजाने में पैदा हुआ, वो चुनाव लड़ने के अधिकार से वंचित हो जाते थे। इस लिहाज से देखा जाए तो भजनलाल सरकार का यह निर्णय “समान अवसर” के दृष्टिकोण से सही ठहर सकता है।
अंत में सवाल यह है कि क्या यह फैसला राजस्थान के सामाजिक सुधार की दिशा में है या फिर केवल राजनीतिक गणित का हिस्सा है? जनसंख्या नियंत्रण अब उतनी बड़ी समस्या नहीं रह गई है, जितनी तीन दशक पहले थी, लेकिन सामाजिक जिम्मेदारी आज भी वही है। सरकार को कानून हटाने के साथ-साथ परिवार नियोजन और शिक्षा पर दोगुना जोर देना होगा, ताकि यह कदम “जनप्रिय” ही नहीं, बल्कि “जनहितकारी” भी साबित हो सके। राजस्थान का यह बदलाव आने वाले समय में दूसरे राज्यों के लिए भी संकेतक साबित हो सकता है।
अगर इससे समाज में कोई नकारात्मक असर नहीं हुआ, तो अन्य राज्य भी ऐसी पाबंदी हटाने पर विचार कर सकते हैं, लेकिन अगर इससे “असीमित परिवारवाद” या स्थानीय राजनीति में “संख्या बल” की होड़ बढ़ी, तो यह फैसला एक गंभीर गलती साबित होगा। फिलहाल इतना तय है कि तीन दशक पहले का जो कानून “जनसंख्या नियंत्रण” के प्रतीक के रूप में बना था, वह अब “राजनीतिक नियंत्रण” के प्रतीक के रूप में खत्म किया जा रहा है और यही इस फैसले का सबसे गहरा राजनीतिक अर्थ है।
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