राजस्थान के मुख्य सचिव सुधांशु पंत को अचानक दिल्ली डिप्युटेशन पर बुला लेने की खबर ने राजनीतिक-प्रशासनिक गलियारों में चर्चाओं के जरिए भूचाल ला दिया है। बात सिर्फ़ यह नहीं कि एक वरिष्ठ IAS अफसर का जयपुर से अचानक दिल्ली ट्रांसफर हुआ है। सवाल ये है कि सीएस के कार्यकाल में अभी 27 महीने बाकी हैं, फिर भी वापस क्यों बुला लिया गया, जबकि पंत को सीएस बनाए केवल 14 महीने हुए हैं?
इस बड़े निर्णय से राज्य की राजनीति के हिसाब से क्या संकेत मिलते हैं? क्या सरकार के शासन की कार्यशैली में दरार है, मुख्यमंत्री और प्रशासन में तालमेल का अभाव है, या फिर केंद्र का हस्तक्षेप अधिक है? मोदी सरकार की सख्त कार्यशैली के कारण इसकी सच्चाई जानना बेहद मुश्किल है, पर उपलब्ध तथ्यों, निहित राजनीतिक परिप्रेक्ष्य और प्रशासनिक तर्कों के आधार पर कुछ तगड़े निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं।
पहला और सबसे साफ कारण प्रायोगिक दिखाई दे रहा है। डिप्युटेशन के दौरान अधिकारी को नई ज़िम्मेदारी अथवा केंद्रिय पद के लिए वापस बुलाया जाता है। यह वैध, सामान्य और संवैधानिक प्रक्रिया है। पर समस्या तब बनती है, जब अधिकारी के जाने का वक्त अनुपयुक्त लगे। जैसे कि राज्य में संवेदनशील समय हैं, कैबिनेट फेरबदल की अफ़वाहें हैं, निकाय चुनाव और बड़े प्रशासनिक रिफॉर्म की तैयारी चल रही है। राजस्थान में सरकारी स्तर पर फिलहाल कई घेरे बने हुए हैं।
सरकार पर विपक्ष के विफल होने के आरोप हैं, किरोड़ीलाल मीणा जैसे मंत्रियों के ओवरटोन में सीएम से असहमति है, कृषि व स्वास्थ्य जैसे संवेदनशील मुद्दे अधर में दिखाई दे रहे हैं और ऐसे हालात में CS का अचानक जाना “रूटीन” नहीं लग रहा है।
दूसरा कारण राजनीतिक-प्रशासकीय तालमेल का टूटना हो सकता है। मुख्य सचिव और मुख्यमंत्री का रिश्ता प्रशासनिक मशीन चलाने के लिए हड्डी और रक्त जैसा होता है। अगर सीएस और सीएम के बीच रणनीति, प्राथमिकताएँ या पॉलिसी इंप्लिमेंटेशन को लेकर दरार चल रही हो तो केंद्र द्वारा “बुलाना” आसान विकल्प बन जाता है, ताकि समय रहते स्थिति का डैमेज कंट्रोल किया जा सके।
अशोक गहलोत ने कहा था कि सुधांशु पंत का राजस्थान में मन नहीं लगता था, वो पिछली सरकार में भी दिल्ली में जा बैठे थे। कांग्रेस अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा ने कहा कि सीएस पंत को कोई टारगेट दिया गया होगा, जिसे पूरा नहीं किया, जिसके चलते यह बदलाव किया गया हो। ये इशारा करता है कि सरकार के भीतर कुछ लक्ष्य-संबंधी, प्रगति-संबंधी असहमति रही होगी।
तीसरा, अफसरशाही के भीतर “शीत युद्ध”, अधिकारों, फाइलों और पोस्टिंग्स को लेकर टकराव का खतरा हमेशा से मौजूद रहता है। राजस्थान के हालिया मामलों में मंत्री-सीएस, अफसर-सीएस, प्रशासनिक लॉबी और राजनीतिक नेताओं के बीच टकराव की खबरें आती रही हैं।
जब किसी अफसर की स्वतंत्रता कम होती है और स्थानीय शक्ति केन्द्रों का दबाव बढ़ता है, तो केंद्र उसी अफसर को वापिस बुलाकर या स्थानांतरण कराकर स्थिति को नियंत्रित करने की राह पकड़ता है। साफ़ शब्दों में: अगर सरकार को लगता है कि सीएस प्रभावी ढंग से काम नहीं कर पा रहा या अफसरशाही में फूट मची हुई है, तो वे “रिलोकेट” कर दिया जाता है।
चौथा कारण—केंद्र और राज्य सरकार के बीच संबन्ध होते हैं। पंत जैसे अफसर को केंद्र का भरोसेमंद अधिकारी माना जाता है। पीएम कार्यालय और केंद्र की एजेंसियाँ ऐसे अफसरों से काम कराना पसंद करती हैं। अगर केंद्र को राजस्थान में किसी नीति-कार्य में तेज़ी या सुनिश्चित रिपोर्टिंग चाहिए हो, या फिर किसी संवेदनशील प्रोजेक्ट (जैसे बड़़े निवेश, कानून-व्यवस्था मोर्चे या फाइनेंसियल क्लॉज) में भरोसेमंद अफसर चाहिये हों, तो वह सीधे अफसर को दिल्ली बुला लेता है।
इससे यह भी संदेह पैदा होता है कि क्या पंत वास्तव में केंद्र-प्रिय अफसर हैं, जिनके बिना कुछ काम नहीं चल रहा था? या फिर वो हाशिये पर कर दिए गए? ऐसे सवाल हवा में तैर रहे हैं और राज्य की राजनीति इन्हें तूल दे रही है।
पाँचवाँ पहलू—राजनीतिक संदेश हो सकता है। किसी बड़े प्रशासनिक फेरबदल का राजनीतिक संदेश भी होता है। अगर सीएम व उसके कुछ करीबी अधिकारियों के बीच तालमेल में गिरावट की खबरें सार्वजनिक हैं, तो केंद्र का कदम राज्य नेतृत्व को “चेतावनी” भी हो सकता है कि काम सुलझाओ वरना और बदलाव आ सकते हैं।
इस्तीफों, ट्रांसफर और अचानक स्मॉल-रिफॉर्म के ज़रिए राजनीतिक नियंत्रण बनाए रखना लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में दुर्लभ नहीं है। हालांकि, इसकी संभावना कम है, क्योंकि खुद सीएम ही केंद्र सरकार की पर्ची से बने हैं तो इस तरह परोक्ष काम करके किसी तरह की चेतावनी देने की जरूरत नहीं होती है।
अब परिणामों और निहित जोखिमों की बात करें। सबसे पहला असर प्रशासनिक निरंतरता पर पड़ेगा। मुख्य सचिव वह अफसर होता है जो विभागों को समन्वित करता है। उनकी अनुपस्थिति से फाइलों के आदेश में विलंब, आवेदनों में अनिश्चितता और बड़े निर्णयों में प्रशासनिक झिझक आ सकती है।
दूसरा नुकसान यह होगा कि राज्य में इससे राजनीतिक अस्थिरता बढ़ेगी, नया सीएस आएगा तो उसके साथ सीएम को तालमेल बिठाने, उसे राज्य की वर्तमान योजनाओं को समझने में समय लगता है। विपक्ष आरोप लगाता है और यदि ईमानदारी से बिना डरे काम करे तो मीडिया इस मुद्दे को घेरकर सरकार की कार्यक्षमता पर हमला करता है।
तीसरा नुकसान होगा अधिकारी वर्ग में नेरेटिव। इस फैसले से अधिकारी वर्ग में डर और अनिर्णय फैलेगा; कौन बोल सकता है, किसका कदम चल जाएगा, यह डर प्रशासनिक कार्यकुशलता घटाता है।
ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि इसका समाधान क्या है? पारदर्शिता ही इसका एकमात्र समाधान होता है। सरकार को तुरंत स्पष्ट, सार्वजनिक और तथ्यपरक बयान देना चाहिए कि पंत को किस वजह से दिल्ली बुलाया गया है? क्या यह समयबद्ध रोटेशन है या प्रदर्शन-आधारित दंड है? इसके साथ ही इफेक्टिव क्रियेशन के लिए टेंपरेरी हेंडओवर का आदेश देना चाहिए, ताकि योजनाएँ अटकी न रहें।
अगर विषय किसी लक्ष्य पर आधारित है, तो उसे ऑडिट और समीक्षा के सहारे सार्वजनिक किया जाए। राजनीतिक स्तर पर मुख्यमंत्री और प्रशासनिक नेतृत्व के बीच स्पष्ट कार्य प्राथमिकताएँ तय की जानी चाहिए, वरना यही घातक अस्पष्टता बार-बार दिखाई देगी।
निष्कर्ष यह है कि मुख्य सचिव सुधांशु पंत का अचानक दिल्ली बुलाना सिर्फ़ एक अफसर का ट्रांसफर नहीं है, यह संकेत है कि राजस्थान की हवा में हलचल तेज है। चाहे कारण केंद्र की जरूरत हो, प्रशासनिक असंगति हो या राजनीतिक-प्रशासनिक तालमेल की कमी, परिणाम दोनों तरफ़ कठिन होंगे।
राज्य को चाहिए कि वे अनावश्यक अटकलों और अफवाहों को रोकें, असल कारणों को पारदर्शी रखें और प्रशासनिक कामकाज की निरंतरता तय करें। वरना यह सिर्फ़ एक अफसर की वापसी नहीं, बल्कि एक लंबे समय तक चलने वाली प्रशासनिक अरुचि और राजनीतिक अस्थिरता की शुरुआत बन सकती है।
Post a Comment