जयपुर/किशनगढ़।
30 दिसंबर को जयपुर में किसानों की हुंकार, 50 हजार प्रतिनिधि जुटाने की तैयारी, भूमि अधिग्रहण और एक्सप्रेसवे के खिलाफ निर्णायक संघर्ष
उपनिवेशवादी दौर की पूँजीवादी–सामंती मानसिकता से संचालित नीतियों के खिलाफ प्रदेश का किसान एक बार फिर सड़क पर उतरने को विवश है। “खेत को पानी, फसल को दाम और युवाओं को काम” के मूल मंत्र के साथ कृषि भूमि और अन्नदाता के अस्तित्व को बचाने के लिए 30 दिसंबर 2025 को जयपुर में करीब 50 हजार किसान प्रतिनिधियों के जुटने की तैयारी अंतिम चरण में है। किसान संगठनों का आरोप है कि सरकार विकास के नाम पर किसानों की उपजाऊ, सिंचित और बहुफसली कृषि भूमि को छीनने पर आमादा है, जिससे न केवल किसान बल्कि देश की खाद्य सुरक्षा भी खतरे में पड़ रही है।
किसान महापंचायत के अनुसार राजस्थान बजट 2025-26 में नौ ग्रीन फील्ड एक्सप्रेसवे बनाने की घोषणा की गई थी, जिनमें से भरतपुर-ब्यावर और कोटपूतली-किशनगढ़ एक्सप्रेसवे का काम प्रारंभ होने की स्थिति में है। ये दोनों परियोजनाएं ऐसी कृषि भूमि से होकर गुजर रही हैं जो खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। उल्लेखनीय है कि 1 जनवरी 2014 से लागू भूमि अधिग्रहण कानून में सिंचित एवं बहुफसली कृषि भूमि के अधिग्रहण पर रोक का प्रावधान किया गया था, लेकिन बाद में धारा 10 में परंतुक जोड़कर इस रोक को निष्प्रभावी बना दिया गया। किसानों का कहना है कि यही कानूनी रास्ता बनाकर सरकार लगातार उपजाऊ खेतों का अधिग्रहण कर रही है।
किसान नेताओं का तर्क है कि यदि वास्तव में सरकार “खेत को पानी, फसल को दाम और युवाओं को काम” चाहती है तो उसे किसान केंद्रित राजनीति और ग्राम आधारित अर्थव्यवस्था को मजबूत करना होगा। इसी उद्देश्य से किसान महापंचायत ने 6 अक्टूबर 2025 को “अन्नदाता हुंकार रैली” का आयोजन प्रस्तावित किया था, जिसमें राजस्थान के 45,539 गांवों से औसतन एक प्रतिनिधि के आने की तैयारी भी पूरी कर ली गई थी। हालांकि 3 अक्टूबर को सरकार और किसानों के बीच हुई वार्ता में सकारात्मक आश्वासन मिलने के बाद रैली स्थगित कर दी गई, लेकिन बाद में सरकार की ओर से कोई ठोस कार्यवाही नहीं हुई। इससे आक्रोशित होकर किसान महापंचायत ने 26 अक्टूबर को प्रस्ताव पारित कर 30 दिसंबर को फिर से “अन्नदाता हुंकार रैली” का शंखनाद किया और 17 नवंबर को शहीद स्मारक जयपुर में एक दिवसीय धरना देकर सरकार को अंतिम चेतावनी भी दी गई।
किसानों का आरोप है कि देश की समृद्धि के लिए काम करने के बजाय सरकार ने किसानों के “कटे घाव पर नमक छिड़कने” जैसा व्यवहार किया है। एक्सप्रेसवे के लिए भूमि अधिग्रहण की कार्यवाही शुरू होते ही किसानों में गहरा दुख और आक्रोश फैल गया। किसान नेताओं ने इस पीड़ा की तुलना तुलसीकृत रामायण के उस दारुण दुख से की है, जिसमें एक के बाद एक विपत्तियाँ मनुष्य को घेर लेती हैं और उसका उपचार कठिन हो जाता है। किसानों का कहना है कि आज अन्नदाता उसी स्थिति में खड़ा है।
किसान संगठनों ने ‘विकास’ शब्द पर भी सवाल खड़े किए हैं। उनका कहना है कि पूंजीपतियों द्वारा विकास शब्द का अपहरण कर लिया गया है, जिससे यह आमजन के लिए अर्थहीन हो गया है। ग्रीन फील्ड एक्सप्रेसवे की एक किलोमीटर सड़क बनाने में जहां 38 करोड़ रुपये खर्च किए जा रहे हैं, वहीं प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत बनी सड़कों की मरम्मत के लिए सरकार एक किलोमीटर पर ढाई लाख रुपये खर्च करने को भी तैयार नहीं है। किसानों के खेतों तक पहुंचने की दूरी बढ़ाकर मुट्ठीभर धनपतियों की यात्रा का समय कम करने के लिए 400 बीघा भूमि का अधिग्रहण करना कृषि प्रधान देश में आश्चर्य और दुख दोनों पैदा करता है। इसे किसानों ने “करेला और नीम चढ़ा” जैसी दोहरी मार बताया है।
इसी विरोध को और धार देने के लिए किसानों ने कोटपूतली से किशनगढ़ सहित प्रस्तावित 9 ग्रीन फील्ड एक्सप्रेसवे को निरस्त करने की मांग की है और “जान दे देंगे लेकिन इस तरह की सड़क के लिए जमीन नहीं देंगे” का संकल्प लिया है। अनेक गांवों में इस आशय के संकल्प पत्र भी तैयार किए गए हैं। इसी क्रम में पनियाला-गोंनैडा मोड़ कोटपूतली से अजमेर जिले के किशनगढ़ तक 181 किलोमीटर लंबी ‘तिरंगा चेतना यात्रा’ निकालने का निर्णय लिया गया। इसका पहला चरण 22 दिसंबर को खंडेला विधानसभा क्षेत्र में पूरा हुआ, जिसमें 57 गांवों से गुजरते हुए 90 किलोमीटर की यात्रा संपन्न हुई। यात्रा के दौरान संयोजक सुरेश बिजारनिया राष्ट्रीय तिरंगा झंडा साथ लेकर चले।
किसानों का कहना है कि सरकार केवल भूमि अधिग्रहण में ही नहीं, बल्कि रोजमर्रा की कृषि समस्याओं में भी उनके साथ खड़ी नहीं दिखती। न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम दामों पर उपज बेचने की मजबूरी, घोषित समय के बावजूद दिन में बिजली कटौती, उर्वरकों की जबरन टैगिंग, खाद के लिए लंबी कतारें, प्राकृतिक आपदाओं से नष्ट फसलों का मुआवजा, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के लंबित क्लेम, मंडियों में व्यापारियों द्वारा भुगतान न करना, निराश्रित पशुओं और जंगली जानवरों से फसलों का नुकसान, इन सभी संकटों के बीच किसान खुद को अकेला महसूस कर रहा है।
इन तमाम मुद्दों और चुभती हुई पीड़ा को सरकार तक पहुंचाने के लिए प्रदेश के किसान 30 दिसंबर 2025 को जयपुर कूच करेंगे। किसानों का कहना है कि उन्हें खेती की कमाई छोड़कर लड़ाई लड़नी पड़ रही है, जो किसी भी लोकतांत्रिक और कृषि प्रधान समाज के लिए दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। अब देखना यह है कि जयपुर में उठने वाली यह हुंकार सरकार की नींद खोलती है या नहीं।

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