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देशहित: भाषण और हकीकत में अंतर होता है

राजनीति भाषणों के दम पर चलती है। जो अधिक अच्छा वक्ता होता है, चाहे वह काम के हिसाब से अच्छा न हो, तो भी उसकी तरफ लोग अधिक आकर्षित होते हैं। और जो बोलने में कमजोर होता है, भले वह कितना भी बड़ा विद्वान हो, तो भी वह लोगों को लुभाने में नाकाम रहता है। 

लेकिन ये बातें वोट मांगने, चुनाव लड़ने और भीड़ जुटाने के हिसाब से अच्छी हो सकती हैं। जब बात देशहित की या देश के लिए बलिदान देने की आती है, तब केवल भाषणों से काम नहीं चलता है। दूसरी बात, इतिहास में दर्ज आपका हर अच्छा और गलत काम याद रखा जाता है और वर्तमान में उसकी परीक्षा होती है।

भारत-पाकिस्तान संघर्ष के दौरान जब अमेरिका बीच में कूदा और सीजफायर की घोषणा कर दी, तब हमारे विपक्ष ने पीएम मोदी की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से तुलना कर उन्हें कमजोर साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। 

इंदिरा गांधी के 1971 में पाकिस्तान से युद्ध, अमेरिका के दबाव में नहीं आने और बांग्लादेश को अलग देश बनाने की बातें उछालते हुए मोदी को इतिहास का सबसे कमजोर प्रधानमंत्री बताने का भरपूर प्रयास किया। यह बात सही है कि 1971 में भारत ने जो हिम्मत दिखाई, वह आसान नहीं थी, जबकि विश्व का बड़ा देश अमेरिका खिलाफ खड़ा था। 

हालांकि, यह भी याद रखना चाहिए कि भारत ने तब पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध नहीं किया था, बल्कि बांग्लादेश के मुक्ति आंदोलन में अपना योगदान दिया था, जिसमें पाकिस्तान के 93,000 सैनिकों को आत्मसमर्पण करना पड़ा था। यही वह समय था, जब भारत को पाकिस्तान के साथ सौदेबाजी करनी चाहिए थी, लेकिन उस समय बिना किसी शर्त पाकिस्तान के इतने सैनिकों को लौटा दिया गया। 

इतिहास इस बात का भी गवाह है कि तब भारत ने अपने 54 फौजियों को पाकिस्तान की कैद से नहीं छुड़ाया था। उनका इतिहास ही इतिहास से मिटा दिया गया है। अब ये चीजें तब निकलकर सामने आ रही हैं, जब कांग्रेस पार्टी वाले कह रहे हैं कि इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान को सरेंडर करवा दिया था। 

हाँ, यह सत्य है कि 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद, भारतीय सशस्त्र बलों के 54 जवानों का अब तक कोई ठोस पता नहीं चला है। इन सैनिकों को "गुम 54" के नाम से जाना जाता है। भारत सरकार ने इन्हें ''मिसिंग इन एक्शन' (एमआईए) घोषित किया है, जबकि पाकिस्तान सरकार लगातार इनकी मौजूदगी से इनकार करती रही है। 

साल 1971 के युद्ध के दौरान, पाकिस्तान ने 500 से अधिक भारतीय सैनिकों को युद्धबंदी (पीओडब्ल्यू) बनाया था। इनमें से अधिकांश को 1973 में शिमला समझौते के तहत भारत वापस लाया गया, लेकिन 54 सैनिकों का कोई अता-पता नहीं चला। 

इनमें वायुसेना के फ्लाइट लेफ्टिनेंट विजय वसंत तांबे, मेजर अशोक सूरी और मेजर एसपीएस वड़ैच जैसे अधिकारी शामिल हैं। कुछ मामलों में, परिवारों को उनके जीवित होने के संकेत भी मिले हैं, जैसे कि मेजर सूरी द्वारा 1975 में कराची से अपने पिता को लिखा गया पत्र। पाकिस्तान सरकार ने बार-बार इन सैनिकों की मौजूदगी से इनकार किया है। 

हालांकि, विभिन्न स्रोतों और गवाहों के अनुसार, इन सैनिकों को पाकिस्तान की जेलों में देखा गया है। उदाहरण के लिए, ब्रिटिश इतिहासकार विक्टोरिया शोफील्ड की पुस्तक 'भुट्टो – मुकदमा और फांसी' में उल्लेख है कि एक पाकिस्तानी वकील को बताया गया था कि 1971 के युद्ध के भारतीय युद्धबंदी लाहौर की कोट लखपत जेल में रखे गए थे। 

भारत सरकार ने इन सैनिकों की वापसी के लिए विभिन्न स्तरों पर पाकिस्तान से बातचीत की है, लेकिन अब तक कोई ठोस परिणाम नहीं मिला है। पूर्व रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीस ने 2002 में संसद में बताया था कि सरकार ने इन सैनिकों की रिहाई और वापसी के लिए पाकिस्तान सरकार से लगातार संपर्क किया है, लेकिन पाकिस्तान ने इनकी मौजूदगी से इनकार किया है। इन सैनिकों के परिवारों ने दशकों से अपने प्रियजनों की वापसी के लिए संघर्ष किया है। फ्लाइट लेफ्टिनेंट विजय वसंत तांबे की पत्नी, दमयंती तांबे, ने अपने पति की वापसी के लिए कई प्रयास किए हैं और इस मुद्दे को विभिन्न मंचों पर उठाया है।

तब यह सवाल पूछा जा रहा है कि जब इंदिरा गांधी इतनी ही बड़ी आयरन लेडी थीं, तो फिर भारत के 54 फौजी हमेशा के लिए पाकिस्तान की जेलों में कैद क्यों छोड़े गए? क्यों तब इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर वापस नहीं लिया? क्यों बिना किसी संधि के ही पाक के 93,000 सैनिक सौंप दिए गए? क्या यह सवाल नहीं उठता कि इंदिरा गांधी ने ही 1975 में आपातकाल लगाया था, या नसबंदी जैसा अमानवीय कदम भी उठाया था? जब इंदिरा गांधी के कामों की प्रशंसा होगी तो उनके गलत कामों की आलोचना भी होगी।

वर्तमान सरकार के धारा 370, राम मंदिर, तीन तलाक, सीएए, सर्जिकल स्ट्राइक, एयर स्ट्राइक और ऑपरेशन सिंदूर जैसे कदमों के कारण वाहवाही भी होगी तो संघर्ष के बीच अमेरिका के सरपंच करने पर सवाल भी पूछे जाएंगे। यह कोई चुनावी भाषण नहीं होते हैं कि कुछ भी बोलकर बच निकलो। संसद में गृहमंत्री अमित शाह ने कहा था कि 1948 के दौरान भारत की सेनाएं कश्मीर को बचाने को आगे बढ़ रही थीं, लेकिन तब पीएम जवाहरलाल नेहरू ने अचानक से युद्धविराम की घोषणा कर दी थी। भारत की सेनाएं तब आसानी से पीओके को वापस ले सकती थीं, लेकिन नेतृत्व कमजोर होने के कारण उनको पीछे हटना पड़ा। 

अब यही सवाल वर्तमान सरकार पर भी उठ रहा है। जब भारत की सेनाएं पाकिस्तान से जीत रही हैं, तब अचानक से सीजफायर क्यों किया गया? एक बार एक टीवी चैनल के साथ बात करते हुए गुजरात के तत्कालीन सीएम नरेंद्र मोदी ने कहा था, 'पाकिस्तान भारत को मारकर चला जाता है और भारत अमेरिका जाकर ओबामा—ओबामा रोता है, अरे पाकिस्तान जाओ ना'। मोदी का यह वीडियो भी अब वायरल हो रहा है और आज की स्थिति पर उठ रहे सवालों की कसौटी पर कसा जा रहा है। पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने 1998 के दौरान जब पोखरण में परमाणु परीक्षण किया था, तब अमेरिका समेत तमाम बड़े देशों ने प्रतिबंध लगा दिए थे, लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी ने उनकी एक नहीं सुनी और इसके परिणामस्वरूप ही भारत आज परमाणु सम्पन्न देश है। तब अटल बिहारी को भी अमेरिका बुला रहा था, लेकिन वे नहीं गए।

इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं, जब हमारे नेताओं ने अच्छे और गलत कदम उठाए हैं। कई बार परिस्थितियों के अनुसार कदम उठाने पड़ते हैं तो कुछ मौकों पर अपने अनुसार चलना पड़ता है। इसलिए राजनीतिक दलों को राजनीति के लिए, वोट मांगने के लिए अलग तरह से बात करनी चाहिए और जब देशहित की बात आए तो फिर व्यक्तिगत गुणा—भाग को छोड़कर एक होना चाहिए। वर्तमान सरकार ने क्या वाकई सीजफायर माना, अथवा अमेरिका ने खुद ही जबरन इसकी घोषणा करके अपनी इज्जत गंवाई हो। 

ये सवाल भविष्य में उत्तरों के लिए इंतजार करेंगे। अभी इन पर निर्णय देने वाले आज की सोच तक सीमित हैं। हो सकता है सरकार ने कोई रणनीति अपनाई हो, जो भविष्य में सच को जीत के रूप में सामने ले आए। भारत के खतरनाक हमलों और पाकिस्तान को बेतहाशा नुकसान की बातें भी सामने आ रही हैं, तो अमेरिका की मध्यस्थता भी आई है। हालांकि, ये सब कुछ सरकार और देश के नीति निर्माताओं पर छोड़ देना चाहिए, उनको इनके ऊपर काम करने की छूट देनी चाहिए और जब स्थिति विपरीत हो तो देश की सरकार के साथ खड़ा रहना चाहिए।


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