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अरावली को बेचकर अरबों रुपये डकारना चाहती हैं सरकारें?

Aravali Hills (File Photo)

अरावली (Aravali Hills) पर्वतमाला भारत की सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखलाओं में से एक है, जिसकी शुरुआत गुजरात के पालीताणा क्षेत्र से मानी जाती है और यह राजस्थान, हरियाणा होते हुए दिल्ली के पास तक फैली हुई है, कुछ भूगोलवेत्ता इसके अवशेषों को हरियाणा से आगे दिल्ली में जवाहर लाल नेहरू विवि की अंतिम चट्टान से जोड़ते हैं। इसकी लंबाई करीब 800 किलोमीटर मानी जाती है, जबकि चौड़ाई औसतन 10 से 100 किलोमीटर के बीच बदलती रहती है। भूवैज्ञानिक दृष्टि से अरावली अत्यंत समृद्ध है। इसमें तांबा, जस्ता, सीसा, संगमरमर, ग्रेनाइट, क्वार्ट्ज, फेल्डस्पार, फॉस्फोराइट, अभ्रक और चूना पत्थर जैसे लगभग 10–12 प्रमुख खनिज तत्व पाए जाते हैं, जिनके कारण यह क्षेत्र लंबे समय से खनन गतिविधियों का केंद्र रहा है। इसके जंगलों में तेंदुआ, भेड़िया, सियार, लोमड़ी, नीलगाय, सांभर, चीतल, जंगली सूअर, मोर, चील, गिद्ध और सैकड़ों प्रजातियों के पक्षी व सरीसृप पाए जाते हैं, जो इसे जैव विविधता की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण बनाते हैं। अरावली से प्रत्यक्ष रूप से खनिज रॉयल्टी, वन उत्पाद, पर्यटन और अप्रत्यक्ष रूप से जल संरक्षण, कृषि समर्थन और पारिस्थितिक सेवाओं के माध्यम से सरकार को हर साल हजारों करोड़ रुपये का आर्थिक लाभ मिलता है। हालांकि, इसका सटीक आंकड़ा राज्यों और वर्षों के अनुसार बदलता रहता है। भौगोलिक रूप से अरावली मरुस्थलीकरण को रोकने, मानसूनी हवाओं को रोककर वर्षा में मदद करने, भूजल रिचार्ज, तापमान संतुलन और उत्तरी भारत को रेगिस्तान के फैलाव से बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। अरावली का अस्तित्व कमजोर पड़ने या नष्ट होने के कारण राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली पूरे क्षेत्र में जल संकट, बढ़ता प्रदूषण, भीषण गर्मी, रेगिस्तान का विस्तार, जैव विविधता का विनाश और कृषि उत्पादकता में भारी गिरावट जैसे गंभीर नुकसान हो सकते हैं, जिससे न केवल पर्यावरण बल्कि अर्थव्यवस्था और मानव जीवन पर भी दीर्घकालिक नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।

लेकिन दुनिया की प्राचीनतम पर्वत श्रंखलाओं में से एक अरावली आज किसी प्राकृतिक क्षरण से नहीं, बल्कि नीतिगत चालाकी से सबसे बड़े संकट का सामना कर रही है। जिस सुनवाई की शुरुआत अरावली को बचाने के लिए हुई थी, उसी प्रक्रिया के अंत में ऐसा निर्णय सामने आया, जिसने तकनीकी परिभाषा के नाम पर अरावली के लगभग 90 प्रतिशत हिस्से को ही संरक्षण के दायरे से बाहर कर दिया। यह महज़ एक प्रशासनिक परिभाषा का बदलाव नहीं है, यह उस ecology पर सीधा हमला है जो पश्चिमी भारत के विशाल भूभाग को मरुस्थलीकरण से बचाती रही है। जिसने सदियों से पानी, जंगल, जीव-जंतु, खेती और मानव सभ्यता को जीवन दिया है। 100 मीटर से कम ऊँचाई वाले पहाड़ों को अरावली न मानने का फैसला वस्तुतः प्रकृति को मीटर-फुट में नापकर खत्म करने का सरकारी प्रयास होगा।

अरावली की आत्मा उसकी ऊँचाई में नहीं, उसके फैलाव, उसकी चट्टानों, उसकी ढलानों, उसके जंगलों और उसके जल-संचय तंत्र में बसती है। यह पर्वत श्रृंखला थार के रेगिस्तान को पूर्व की ओर बढ़ने से रोकने वाली आख़िरी प्राकृतिक दीवार है। यदि यह दीवार कमजोर होती है तो रेत और धूल की आँधियाँ सिर्फ़ पश्चिमी राजस्थान तक सीमित नहीं रहेंगी, वे पूर्वी राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली और उत्तर प्रदेश के उपजाऊ इलाकों तक पहुँचेंगी। आज जो लोग एसी कमरों में बैठकर यह मान रहे हैं कि 100 मीटर से कम ऊँचाई वाले पहाड़ पर्यावरण की दृष्टि से महत्वहीन हैं, वे यह भूल रहे हैं कि ecology ऊँचाई नहीं, निरंतरता और संरचना से काम करती है। छोटे-छोटे टीले, कम ऊँचाई की पहाड़ियाँ और उनके बीच के जंगल ही वह जाल बनाते हैं जो पानी रोकता है, मिट्टी को बहने से बचाता है और जीवन को टिकाए रखता है।

राजस्थान में भूजल संकट कोई नई समस्या नहीं है। कुएँ, बावड़ियाँ और नदियाँ अरावली की देन हैं। यह पर्वत श्रृंखला वर्षा जल को रोककर धीरे-धीरे धरती के भीतर उतारती है। यही कारण है कि अरावली क्षेत्र के आसपास आज भी अपेक्षाकृत बेहतर भूजल स्तर देखने को मिलता है। यदि इस क्षेत्र में खनन को खुली छूट मिलती है, तो सबसे पहला वार इसी जल-संरचना पर पड़ेगा। खनन से पहाड़ों की परतें खुलेंगी, चट्टानें टूटेंगी और वह प्राकृतिक स्पंज नष्ट हो जाएगा जो सदियों से पानी को संभालता आया है। जिसके कारण पानी का स्तर और गिरेगा, खेती चौपट होगी और ग्रामीण आबादी का विस्थापन बढ़ेगा।

इस फैसले का सबसे खतरनाक पहलू यह है कि इसे पर्यावरण संरक्षण के नाम पर पेश किया गया, जबकि इसके दूरगामी परिणाम ठीक उलट हैं। जिस समिति की रिपोर्ट के आधार पर यह नई परिभाषा तय हुई, उसमें उन्हीं राज्यों के अधिकारी शामिल थे, जहाँ अरावली फैली हुई है और जहाँ खनन का सबसे अधिक आर्थिक लालच मौजूद है। अकेले राजस्थान में अरावली का लगभग 80 प्रतिशत हिस्सा आता है। यह कोई संयोग नहीं है कि जिन राज्यों में यह पर्वत श्रृंखला फैली है, वहाँ सत्ता पर डबल इंजन की सरकारें हैं। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या यह निर्णय वास्तव में पर्यावरणीय संतुलन को ध्यान में रखकर लिया गया है या फिर इसके पीछे खनन लॉबी के हित छिपे हैं।

अरावली सिर्फ़ जंगल और पहाड़ नहीं है, यह जैव विविधता का जीवित संग्रहालय है। हजारों प्रजातियों के पौधे, पक्षी और जानवर इस क्षेत्र पर निर्भर हैं। इनमें से कई प्रजातियाँ ऐसी हैं जो सिर्फ़ अरावली जैसे शुष्क और अर्ध-शुष्क पर्यावरण में ही पनपती हैं। खनन और अंधाधुंध निर्माण इन प्रजातियों के आवास को खंडित करेगा। अरावली श्रंखला में अवैध खनन के कारण इनपर संकट मंडरा रहा है। वन्यजीवों के गलियारे टूटेंगे, मानव-वन्यजीव संघर्ष बढ़ेगा और धीरे-धीरे यह क्षेत्र एक निर्जीव पत्थरखदान में तब्दील हो जाएगा। 

पर्यावरण संरक्षण का मूल सिद्धांत यह है कि किसी भी पारिस्थितिक तंत्र को समग्रता में देखा जाए, न कि केवल एक तकनीकी मानक के आधार पर उसे खारिज कर दिया जाए। इतिहास भी अरावली की अहमियत का गवाह है। यह पर्वत श्रृंखला केवल प्राकृतिक अवरोध नहीं रही, बल्कि इसने सांस्कृतिक और ऐतिहासिक रूप से भी इस क्षेत्र की रक्षा की है। कई ऐतिहासिक दुर्ग, बस्तियाँ और सांस्कृतिक धरोहरें इसी श्रृंखला से जुड़ी हैं। विदेशी आक्रमणों के समय अरावली ने एक प्राकृतिक ढाल की भूमिका निभाई। आज वही अरावली आधुनिक लालच और नीतिगत निर्णयों के सामने असहाय खड़ी है। यह विडंबना ही है कि जिन पहाड़ों ने सदियों तक इस भूमि को बचाया, उन्हें अब विकास के नाम पर बलि चढ़ाने की तैयारी है।

इस पूरे प्रकरण में सबसे चिंताजनक बात पारदर्शिता की कमी है। एक तरफ़ खनन विभाग की वेबसाइट बंद रखी जाती है, दूसरी तरफ़ आवंटन की प्रक्रिया चलती रहती है। यह संयोग नहीं, बल्कि संदेह को जन्म देने वाली स्थिति है। यदि सरकार की मंशा साफ़ होती, तो वह न केवल इस फैसले पर व्यापक सार्वजनिक विमर्श कराती, बल्कि खनन से जुड़े हर कदम को पूरी पारदर्शिता के साथ सामने रखती। लेकिन जब निर्णय चुपचाप लिए जाएँ और उनके लाभार्थियों के नाम सार्वजनिक न हों, तो यह आशंका गहरी हो जाती है कि कहीं यह सब चंद उद्योगपतियों और राजनीतिक रूप से जुड़े लोगों के हित में तो नहीं किया जा रहा।

यह तर्क दिया जा सकता है कि खनन से विकास होगा, रोजगार मिलेगा और राजस्व बढ़ेगा, लेकिन यह विकास किस कीमत पर? पर्यावरणीय क्षति की कीमत आने वाली पीढ़ियाँ चुकाएँगी। जब पानी नहीं होगा, हवा ज़हरीली होगी और खेती असंभव हो जाएगी, तब रोजगार और राजस्व के ये तर्क खोखले साबित होंगे। विकास और पर्यावरण को आमने-सामने खड़ा करना सबसे आसान राजनीतिक चाल है, लेकिन सच्चा विकास वही है जो पर्यावरण के साथ संतुलन बनाकर चले।

अरावली को लेकर यह फैसला भविष्य के लिए एक खतरनाक मिसाल भी बनाता है। आज 100 मीटर का नियम है, कल दूसरी सरकार द्वारा अलग तकनीकी कसौटी गढ़ी जाएगी। यदि हर प्राकृतिक संरचना को इस तरह परिभाषाओं में बाँधकर कमजोर किया जाएगा, तो कोई भी जंगल, नदी या पहाड़ सुरक्षित नहीं रहेगा। पर्यावरण संरक्षण कानूनों का उद्देश्य प्रकृति को बचाना है, न कि उसे कागज़ी परिभाषाओं में उलझाकर रास्ता साफ़ करना।

यह समय चुप रहने का नहीं है। यह लड़ाई सिर्फ़ अरावली की नहीं, बल्कि उस हवा की है जिसे हम सांस के साथ भीतर लेते हैं, उस पानी की है जो हमारे घरों तक पहुँचता है और उस मिट्टी की है जिसमें हमारी फसलें उगती हैं। सरकार कुछ भी कहे, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय से यह अपेक्षा करना अनुचित नहीं है कि वह इस निर्णय के दूरगामी प्रभावों पर पुनर्विचार करे और पर्यावरणीय विज्ञान, भूगोल और पारिस्थितिकी के विशेषज्ञों की राय को प्राथमिकता दे। आम नागरिकों की भी जिम्मेदारी है कि वे इस मुद्दे को केवल एक राजनीतिक बहस मानकर न छोड़ दें, बल्कि इसे अपने अस्तित्व से जुड़ा प्रश्न समझें।

अरावली का विनाश धीरे-धीरे होगा, लेकिन उसका असर बहुत तेजी से सामने आएगा। जब दिल्ली और आसपास के इलाके धूल और गर्मी की चपेट में होंगे, जब राजस्थान का पानी और नीचे चला जाएगा, जब जंगलों की जगह खदानें दिखाई देंगी, तब यह एहसास होगा कि एक गलत फैसले ने कितनी बड़ी कीमत वसूल ली। इसलिए आज आवाज़ उठाना ज़रूरी है। यह केवल पहाड़ों को बचाने की लड़ाई नहीं है, यह आने वाली पीढ़ियों के लिए एक सुरक्षित, संतुलित और जीवित पर्यावरण को बचाने की लड़ाई है।

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