हमारे देश में चुनाव तो सियासी दलों के प्रत्याशी लड़ते हैं, लेकिन एक दशक से इनका श्रेय राष्ट्रीय स्तर पर उन बड़े नेताओं को दिया जाने लगा है, जो लीडरशिप कर रहे होते हैं। हम यदि बीते 2 दशक में हुए लोकसभा और विधानसभा जैसे विभिन्न चुनावों पर नजर डालें तो सामने आता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सबसे बड़े इलेक्शन विनर लीडर साबित हुए हैं। एक दशक में पीएम मोदी की लीडरशिप में भाजपा लगातार तीन लोकसभा चुनाव जीतकर पूरे देश में छाई हुई है, जबकि इसी दौरान सबसे ज्यादा इलेक्शन लूज करने के मामले में कांग्रेस नेता राहुल गांधी बाजी मार जाते हैं। ये दोनों नेता इलेक्शंस में 'एक सिक्के के दो पहलू' के रूप में दिखाई देते हैं।
यही वजह है कि भारत की राजनीति में राहुल गांधी का सियासी सफ़र एक अनोखा विरोधाभास है। जहाँ एक तरफ कांग्रेस उनके प्रभाव वाले दौर में कई राज्यों में सत्ता में आई, तो दूसरी ओर पिछले दो दशकों में कांग्रेस ने अभूतपूर्व तरीके से 95 चुनाव हारे हैं, जो किसी भी राष्ट्रीय पार्टी के लिए चिंताजनक रिकॉर्ड है। लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष और कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व से जुड़े जीत के आंकड़े भी कम नहीं हैं। कांग्रेस समर्थक मानते हैं कि 2004 में 145 और 2009 में 206 लोकसभा सीटों की ऐतिहासिक सफलता सोनिया गांधी के कारण ही मिली थीं। तब सोनिया गांधी पार्टी को लीड करती थीं और राहुल गांधी उनकी छात्रछाया में राजनीति का ककहरा सीख रहे थे।
2010 के बाद जब सोनिया गांधी की राजनीति ढलान पर शुरू हुई, तब राहुल गांधी का उदय होने लगा था। खासकर मनमोहन सिंह की दूसरी सरकार में जब लैंड इक्विजेशन एक्ट का ड्राफ्ट फाड़कर फेंक दिया, तब कांग्रेसियों ने राहुल गांधी को कांग्रेस का भविष्य बताया। इसके बाद राहुल गांधी को पीएम बनने की चर्चा होने लगी, तब हिमाचल में 2012 और 2022 का चुनाव जीता।
ऐसे ही कैप्टन अमरिंदर सिंह की लीडरशिप में 2017 में पंजाब की पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई। कांग्रेस ने कर्नाटक 2013 और 2018 की गठबंधन की लगातार दो सरकार बनाई। फिर 2023 की निर्णायक जीत रही। तेलंगाना में कांग्रेस को रेवंत रेड्डी की लीडरशिप में 2023 की सत्ता मिली। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में 2018 की आंशिक जीत का सुनहरा प्रदर्शन कांग्रेस के लिए सुखद बना। पूर्वोत्तर राज्य असम में 2006 के बाद 2011 में वापसी की, मणिपुर में 2007 के बाद 2012 में कांग्रेस जीती, मिज़ोरम में 2008 और 2011 की सफलता राहुल गांधी के नाम मानी गई। झारखंड में 2019 और 2024 JMM-INC गठबंधन की जीत राहुल गांधी की लीडरशिप में कांग्रेस की उपलब्धि बताई जाती है। कांग्रेस समर्थकों के अनुसार ये सभी जीतें सोनिया गांधी की छाया में राजनीति सीख रहे राहुल गांधी के नेतृत्व में हुईं, लेकिन यह तस्वीर कांग्रेस की पूरी कहानी नहीं बताती।
कांग्रेसियों द्वारा राहुल गांधी को इन जीतों को श्रेय दिया जाता है तो भाजपाईयों द्वारा उनकी हारों का रिकॉर्ड बताया जाता है। भाजपा के अनुसार राहुल गांधी की लीडरशिप में कांग्रेस की हार का इतिहास भरा पड़ा है। बीते 2 दशक में कांग्रेस करीब 95 चुनाव हारी है, जिनमें से डेढ़ दशक में राहुल गांधी की लीडरशिप रही है। इस दौरान उत्तर प्रदेश से लेकर राजस्थान, गुजरात, दिल्ली, जम्मू कश्मीर समेत तकरीबन हर राज्य में कांग्रेस चुनाव हारी है। आबादी के लिहाज से देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में 4 चुनाव, बिहार में 5 चुनाव, गुजरात में 6 चुनाव, राजस्थान में 3 चुनाव की हार, मध्य प्रदेश में 5 चुनाव में पराजय, महाराष्ट्र में 3 चुनाव की जार, हरियाणा में 3, दिल्ली में 4, ओडिशा में 5, अरुणाचल प्रदेश में 5, नागालैंड में 5, त्रिपुरा 4, मणिपुर 2 चुनाव, असम में 2 चुनाव, तमिलनाडु में 2 चुनाव, आंध्र प्रदेश में 3 चुनाव, गोवा में 3 चुनाव, पश्चिम बंगाल में कई चुनाव, जम्मू-कश्मीर में बरसों से सत्ताहीन, उत्तराखंड में लगातार चार चुनाव, सिक्किम में 3 हार, मेघालय में 2 चुनाव की हार कांग्रेस के लिए काला अध्याय बना गई है। सोनिया गांधी के साथ राहुल गांधी की उम्मीद में कांग्रेस के नाम हार की ऐसी लंबी लिस्ट है, जो भारतीय राजनीति में किसी भी पार्टी और उसके नेताओं के लिए बेचेनी पैदा कर सकती है।
ये 95 हारें सोनिया गांधी, राहुल गांधी को कांग्रेस का सबसे विवादित और कमजोर माना जाने वाला चेहरा बनाती हैं, जबकि उनकी कुछ उपलब्धियाँ भी उसी राजनीति में मौजूद हैं, लेकिन असली सवाल यह है कि कांग्रेस इतनी बुरी तरह क्यों हारी? इसका जवाब केवल राहुल गांधी के नेतृत्व की कमियों में नहीं छिपा है, बल्कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह की करश्माई विशाल राजनीतिक मशीन में छुपा है, जिसने पिछले दस वर्षों में भारतीय राजनीति को पूरी तरह बदलकर रख दिया। मोदी का करिश्मा केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि राजनीति का एक ब्रांड है। निर्णायक राष्ट्रीय नेता की छवि, केंद्रित संदेश, राष्ट्रवाद का शक्तिशाली नैरेटिव, गरीबों को सीधे योजनाओं का लाभ देने की माइक्रो–टार्गेटिंग और जनता के साथ भावनात्मक जुड़ाव का अभूतपूर्व स्तर इसे अभेद किला बनाती है। मोदी ने यह स्थिरता पैदा की, जिससे देश सुरक्षित, निर्णायक और तेज़ी से आगे बढ़ रहा है। यही “स्टेबल लीडरशिप” का नैरेटिव विपक्ष को लगातार पराजित करता है।
दूसरी ओर अमित शाह राजनीति को सिर्फ चुनाव की तरह नहीं लड़ते, बल्कि सैन्य–रणनीति की तरह फाइट करते हैं। उन्होंने बीजेपी को एक अनुशासित, डेटा संचालित चुनावी मशीन में बदल दिया। बूथ स्तर पर लाखों कार्यकर्ता, हर विधानसभा में सटीक माइक्रो–मैनेजमेंट, हर जिले में सोशल इंजीनियरिंग, हर चुनाव में 24 घंटे चलने वाली डिजिटल टीम, विपक्ष के नैरेटिव को मिनटों में धवस्त देने वाली तेज प्रतिक्रिया और आने वाले बरसों का रणनीतिक ब्ल्यू प्रिंट, ये सब कांग्रेस के पास नहीं है। मोदी–शाह की रणनीति की असली ताकत विपक्ष को चुनाव शुरू होने से पहले ही मनोवैज्ञानिक रूप से कमजोर कर देती है। राहुल गांधी चाहें कितनी भी पैदल यात्राएँ करें, कितने भी तीखे भाषण दें, कांग्रेस की स्लो मशीनरी, असंगठित ढांचा, मोदी–शाह की आक्रामकता और सामरिक क्षमता के सामने टिक ही नहीं पाता है।
कांग्रेस की असली समस्या यह है कि उसके पास दिशा है पर गति नहीं, मुद्दे हैं पर संगठन नहीं, नेता हैं पर कमांड नहीं है। राहुल गांधी कई मुद्दों पर ईमानदार दिखाने की भरपूर कोशिश करते हैं, फिर भी अडाणी—अंबानी, बेरोज़गारी, संविधान, लोकतांत्रिक संस्थाओं का कमजोर करने के आरोप चुनाव जिताने वाले नहीं होते हैं, बल्कि असली ताकत रणनीति और अभेद किले जैसा संगठन होता है। इसलिए राहुल गांधी के नेतृत्व में कुछ राज्यों की जीत चमकती तो है पर टिकाऊ नहीं रहती, जबकि हारें लगातार बढ़ती जा रही हैं।
अब सवाल उठता यह है कि क्या राहुल गांधी भविष्य में कांग्रेस को सत्ता में वापस ला पाएंगे? इसका ठोस जवाब किसी के पास नहीं है। फिर भी माना जाता है कि कांग्रेस खुद को जमीनी स्तर से रीबूट करे तो संभावना बनती है। जब पार्टी की बूथ मशीनरी मिशन मोड पर काम करे, जब कांग्रेस पार्टी 10–12 नए और चमकदार, 24 घंटे काम करने वाले क्षेत्रीय चेहरे दे, डिजिटल युद्ध में मोटा निवेश करे, पार्टी की स्थानीय गुटबाजी खत्म करे, गठबंधन की राजनीति को अहंकार के बिना अपनाए। कांग्रेस के पास आज भी भारत के कई राज्यों में 25–35% वोट शेयर का आधार है। मतलब इतनी हारों के बाद आज भी कांग्रेस की जमीन मरी नहीं है, बस थोड़ी सोई हुई है, जिसे जगाना होगा। रणनीति बेहतर हो तो राजनीति में परिस्थितियाँ दो चुनावों में कितनी बदल जाती हैं, भारत का चुनावी इतिहास इसका गवाह है।
हम कांग्रेस की हार पर बात करते हैं, लेकिन यह सोचना भी गलत है कि बीजेपी हमेशा अजेय रहेगी। भारत में कोई दल स्थायी विजेता नहीं रहा। न कांग्रेस, न बीजेपी, न कोई और। बीजेपी की आज सबसे बड़ी ताकत मोदी हैं। यह भी उतनी ही सच बात है कि नेतृत्व बदलते ही राजनीतिक समीकरण बदल जाते हैं। आने वाले समय में मोदी, शाह, योगी के बिना भाजपा कैसा प्रदर्शन करेगी, यह भी कोई नहीं जानता, लेकिन कांग्रेस अगर अपनी वर्तमान गति, नेतृत्व शैली और संगठन क्षमता के साथ आगे बढ़ती रही, तो बीजेपी अपने शीर्ष नेतृत्व के रहते लगभग अपराजेय ही बनी रहेगी। असली मुकाबला तब होगा, जब कांग्रेस अपनी नींव को बदलकर खुद को फिर से लड़ने योग्य बनाएगी।
राहुल गांधी की लड़ाई केवल मोदी–शाह या योगी से नहीं हैं, बल्कि अपनी पार्टी की कमजोरी, अपनी संगठनात्मक विफलताओं और अपनी रणनीतिक कमियों से है। कांग्रेस की दो दशकों में 95 हारें केवल एक रिकॉर्ड नहीं हैं, बल्कि यह सच्चाई है कि पार्टी आधुनिक राजनीति की शैली में पीछे रह गई। मोदी–शाह ने जहाँ राजनीति को आधुनिक, तकनीकी, आक्रामक और भावनात्मक बनाया, जबकि कांग्रेस आज भी पुराने ढर्रे पर चल रही है। कांग्रेस पार्टी केंद्र की सत्ता में आ सकती है, लेकिन तभी, जब इस पुरानी कांग्रेस को तोड़कर एक नई कांग्रेस खड़ी की जाए, जो बूथ पर लड़े, सड़क पर दिखे, डिजिटल में लड़े, मुद्दों पर साफ हो, और नेतृत्व में अनुशासन लाए। वरना जीत की कुछ बूँदें और हार का अनंत रेगिस्तान ही कांग्रेस का भविष्य बना रहेगा। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या राहुल गांधी कभी प्रधानमंत्री बन सकेंगे?
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