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इंदिरा गांधी को फॉलो करता पाकस्तान

पाकिस्तान आतंकवाद के नाम पर अपने ही लोगों को मार रहा है, अपने ही नागरिकों को बमों से उड़ा रहा है। दर्जनों की संख्या में लोगों के घर तबाह किए गए हैं, जो सैकड़ों लोगों की जान जा चुकी है। पाकिस्तानी आर्मी ने खैबर पख्तुनवा में बमवर्षा करके दुनिया को आतंक के खिलाफ कार्रवाई करने का दावा किया है, लेकिन यह बिलकुल झूठ है। असल में खैबर में जो भूख और पाकिस्तान के दोहरे बर्ताव के कारण बगावत हो रही है, उसे थामने के लिए बम गिराए जा रहे हैं। यह कैसा देश है जो अपने ही बेगुनाह नागरिकों की जान ले रहा है। इसकी पूरी कहानी को समझने का प्रयास करेंगे, लेकिन उससे पहले ऐसी ही एक कहानी भारत सुनिए, जब भारत की सरकार ने अपने एक राज्य के उपर लगातार दो दिन तक बमबारी की थी। सैकड़ों लोगों की जान चली गई थी, लेकिन दिल्ली का दिल नहीं पसीजा था। 

1 मार्च 1966 की तारीख भारतीय लोकतंत्र के माथे पर आज भी एक सवाल की तरह चिपकी हुई है, जिसका जवाब देश की सबसे ताकतवर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कभी खुलकर नहीं दिया। उस दिन भारतीय वायुसेना ने अपने ही देश के नागरिकों पर बम बरसाए। उत्तर-पूर्व का छोटा सा राज्य मिजोरम, जो उस वक्त असम का हिस्सा हुआ करता था। यहां उस समय अकाल, असमानता और उपेक्षा ने अलगाव की चिंगारी को आग बना दिया था और इस आग को बुझाने के बजाय दिल्ली की सत्ता ने वायुसेना के लड़ाकू विमानों से बम गिराकर आग में और बारूद डाल दिया।

मिजो नेशनल फ्रंट, यानी MNF नाम का संगठन, जिसे लालडेंगा नाम के करिश्माई नेता ने खड़ा किया था। उन्होंने मिजोरम को आजादी दिलाने के लिए फरवरी 1966 में विद्रोह का ऐलान कर दिया। कारण यह था कि केंद्र सरकार ने उन्हें भूखा मरने के लिए छोड़ दिया था। पांच साल पहले ही 1959 में वहां के लोगों ने अकाल का सामना किया, जिसे स्थानीय भाषा में ‘मौताम’ कहा जाता है। यह अकाल हर 48 साल में आने वाले उस प्राकृतिक चक्र का नतीजा था, जब बांस फूलते हैं, चूहे तेजी से बढ़ते हैं और पूरी फसल को चट कर जाते हैं। लोग अनाज के एक-एक दाने को तरस गए, लेकिन दिल्ली से नाममात्र की मदद मिली। नतीजा यह हुआ कि मिजोरम के लोग खुद को भारत से ठगा सा महसूस करने लगे। इसी गुस्से ने उन्हें हथियार उठाने पर मजबूर कर दिया।

28 फरवरी 1966 को मिजो नेशनल फ्रंट के हथियारबंद दस्ते ने अचानक मिजोरम की राजधानी ऐजोल समेत कई कस्बों और पुलिस चौकियों पर हमला बोल दिया। उनका मकसद था “स्वतंत्र मिजोरम” के तौर पर अलग देश बनाना। कहा जाता है कि उस दिन सुबह-सुबह जब देश के बाकी हिस्से में लोग अपने रोज़मर्रा के काम में लगे थे, तब ऐजोल की सड़कों पर गोलियों की गूंज सुनाई दे रही थी। मिजो विद्रोहियों ने सरकारी इमारतों पर कब्जा कर लिया, टेलीफोन और तार के संचार को काट दिया और भारतीय प्रशासन को चुनौती दे डाली।

दिल्ली में खबर पहुंची तो प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इसे कुचलने के लिए “ऑपरेशन सुरक्षा” को मंजूरी दे दी। सेना को भेजा गया, लेकिन इसके साथ ही ऐसा फैसला लिया गया, जिसने भारतीय लोकतंत्र के माथे पर हमेशा के लिए दाग लगा दिया। 1 मार्च 1966 को भारतीय वायुसेना के तोरणाडो और हंटर लड़ाकू विमानों ने ऐजोल और उसके आसपास के इलाकों में बम बरसाए। यह आज़ाद भारत का पहला और आखिरी मौका था, जब केंद्र सरकार ने अपने ही नागरिकों पर बम बरसाए थे।

उस घटना के मृतकों के अधिकारिक आंकड़े कभी सामने नहीं आए। इंदिरा सरकार ने उस वक्त मीडिया को भी सख्ती से इस घटना की रिपोर्टिंग से रोक दिया था, लेकिन स्थानीय लोगों के मुताबिक बमबारी में सैकड़ों लोग मारे गए और हजारों घर राख हो गए। वायुसेना के विमानों की बमबारी में गांव के गांव उजड़ गए। कई परिवार म्यांमार और बांग्लादेश की तरफ भागने को मजबूर हो गए। इंडियन एयर फोर्स ने उस दिन ऐजोल, लुंगलेई और चंपई पर लगातार दो दिन तक बम गिराए। गांवों में धुएं का गुबार छा गया और लोग समझ ही नहीं पाए कि यह हमला दुश्मन ने किया है या अपनी ही सरकार ने।

इंदिरा गांधी का तर्क था कि यह विद्रोह को दबाने के लिए जरूरी था, लेकिन असल सवाल यह है कि क्या अपने ही नागरिकों पर बम बरसाना किसी भी लोकतांत्रिक सरकार का समाधान हो सकता है? यह वही इंदिरा गांधी थीं, जो अंतरराष्ट्रीय मंचों पर खुद को गरीबों की मसीहा बताती थीं, लेकिन अपने ही देश के सबसे हाशिए पर पड़े लोगों के साथ ऐसा अमानवीय बर्ताव कर बैठीं। इस घटना ने मिजोरम को भारत से और दूर कर दिया। वहां के लोगों ने साफ संदेश दे दिया कि दिल्ली की सत्ता उन्हें अपने नागरिक नहीं, बल्कि दुश्मन मानती है। यही वजह है कि अगले दो दशकों तक मिजो नेशनल फ्रंट का विद्रोह चलता रहा। जंगलों में लड़ाई, सेना की कार्रवाई, और लगातार हिंसा ने इस छोटे से राज्य को जख्मों से भर दिया।

आखिरकार 1986 में जब राजीव गांधी ने लालडेंगा के साथ मिजोरम समझौते पर हस्ताक्षर किए, तब जाकर यह विद्रोह खत्म हुआ। मिजोरम को 1987 में पूर्ण राज्य का दर्जा मिला और लालडेंगा मिजोरम के पहले मुख्यमंत्री बने, लेकिन सवाल यह है कि अगर दिल्ली ने 1959 में ही अकाल से जूझ रहे मिजोरम के लोगों की मदद की होती, अगर उनके दर्द को समझा होता, तो क्या 1966 में बम गिराने की नौबत आती? 1966 की वह बमबारी भारतीय राजनीति के लिए काला अध्याय है। जिस भारत की पहचान विविधता और लोकतंत्र से है, उसी भारत ने अपने नागरिकों को गोलियों और बमों से जवाब दिया। यह घटना आज भी याद दिलाती है कि सत्ता का अहंकार, संवाद की कमी और हाशिए पर पड़े लोगों की उपेक्षा किस हद तक देश को तोड़ सकती है। मिजोरम आज शांति और प्रगति की ओर बढ़ चुका है, लेकिन वहां के बुजुर्ग जब भी उस दिन को याद करते हैं, उनकी आंखें भर जाती हैं। इंदिरा गांधी ने भले उस दिन अपनी सत्ता बचा ली, लेकिन देश के इतिहास में उन्होंने एक ऐसा काला धब्बा छोड़ दिया, जो कभी मिट नहीं सकता।

अब आते हैं पाकिस्तानी आर्मी की बमबारी पर। खैबर पख्तूनवा का नाम सुनते ही पाकिस्तान की उस मिट्टी की याद आती है, जो खून से ज्यादा लाल हो चुकी है। यह वही इलाका है जो कभी बहादुरी और स्वाभिमान का प्रतीक माना जाता था, लेकिन पाकिस्तान बनने के बाद से यहां के लोगों ने सिर्फ बंदूकें, बम और जबरन थोपे गए कानून देखे हैं। अब हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि पाकिस्तान की अपनी ही फौज ने एक दिन पहले यहां बम बरसाए, जैसे किसी दुश्मन देश के लोग हों।

वैसे भी पाकिस्तान के लिए यह घटना कोई नई नहीं है। खैबर पख्तूनवा में दशकों से यह खेल चल रहा है। पाकिस्तान आर्मी कभी आतंकवाद के नाम पर, कभी "ऑपरेशन" के नाम पर, यहां के गांवों को उजाड़ देती है। 22 सितंबर की इस ताजा बमबारी में कई गांव राख हो गए, लोग मारे गए, और जो बचे, वे डर और आंसुओं में डूब गए। जब सारे लोग सो रहे थे, तब आधी रात के बाद 2 बजे खैबर पख्तूनख्वा के तिराह घाटी क्षेत्र स्थित मत्रे दारा गांव, आका खेल शाल्दा पर हवाई हमला किया गया। पाक एयर फोर्स ने चीन से मिले जेएफ17 लडाकू विमान से 8 एलएस6 बम गिराए गए। जिसमें कम से कम 30 सिविलियंस की मौत हो गई। सवाल यह उठता है कि आखिर पाक आर्मी ने यहां बम क्यों बरसाए जा रहे हैं?

असल में खैबर पख्तूनवा की कहानी पाकिस्तान की सबसे बड़ी विफलताओं में से एक है। यहां के पठान, पश्तून, शुरू से ही पाकिस्तान के हुक्मरानों के खिलाफ रहे हैं। जिन्ना की जिद ने पाकिस्तान बनाया तो सही, लेकिन इन पठानों को कभी अपना नहीं माना। उनकी जमीन का इस्तेमाल अफगानिस्तान में युद्ध छेड़ने के लिए किया गया। रूस के खिलाफ जिहाद हो या अमेरिका के खिलाफ आतंक की फैक्ट्री, हर बार खैबर पख्तूनवा को मोहरा बनाया गया। यहां के गांवों में हथियार डंप किए गए, यहां के बच्चों को मदरसों में भरकर "जिहादी" बनाया गया और दुनिया भर से डॉलर वसूले गए, लेकिन जब वही हथियारबंद लोग पाकिस्तान आर्मी पर सवाल उठाने लगे, तब उन्हें “दहशतगर्द” बता दिया गया और उनके घरों पर बम बरसाए जाने लगे। आज स्थिति यह है कि खैबर पख्तूनवा का हर नौजवान पूछ रहा है कि उसका असली दुश्मन कौन है, पाकिस्तानी आर्मी या भारतीय सेना? क्योंकि भारत की तरफ से कोई गोली नहीं आती, कोई बम नहीं गिरता। बल्कि वहां के लोग मानते हैं कि भारत कम से कम अपने नागरिकों को साथ लेकर चलता है, जबकि पाकिस्तान आर्मी अपने ही नागरिकों को दुश्मन मानती है। यही कारण है कि कई बार खैबर पख्तूनवा के लोग खुलेआम भारत की तारीफ करते हैं और कहते हैं कि काश वे पाकिस्तान का हिस्सा न बनते। पाकिस्तान आर्मी का खेल साफ है। वह खैबर पख्तूनवा के संसाधनों को लूटती है, लोगों को गुलाम बनाए रखती है, और जब आवाज उठती है तो बम से कुचल देती है। 22 सितंबर की बमबारी इसका ताजा सबूत है। घटना के बाद किसी भी अंतरराष्ट्रीय मीडिया को वहां जाने नहीं दिया गया, किसी भी स्वतंत्र जांच को अनुमति नहीं मिली। बस पाकिस्तानी फौज के बयानों पर दुनिया को विश्वास करने के लिए कहा गया कि "हमने आतंकवादियों के ठिकानों को निशाना बनाया", लेकिन असल में ये ठिकाने आम नागरिकों के घर थे, जिनकी राख से आज भी धुआं उठ रहा है।

खैबर पख्तूनवा के इस दर्द को समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि यहां का विद्रोह आतंकवाद का नहीं, बल्कि अस्तित्व का है। लोग पूछते हैं आखिर हमारे घर और खेत क्यों जलाए जाते हैं? हमारे बच्चों को क्यों मारा जाता है? हमारे गांवों को क्यों उजाड़ा जाता है? इन सवालों का जवाब पाकिस्तान आर्मी के पास नहीं है। इसलिए वे गोलियों और बमों से जवाब देते हैं। खैबर की हवा में आज एक अजीब सी बेचैनी है। लोग पाकिस्तान से नफरत करने लगे हैं, और भारत को उम्मीद की नजर से देखते हैं। वे मानते हैं कि भारत अगर इतना बड़ा लोकतंत्र बन सकता है, तो क्यों न खैबर पख्तूनवा भी उसी तरह एक आज़ाद देश बन जाए। पाकिस्तान आर्मी इस डर में जी रही है कि कहीं यहां से आज़ादी की लहर न उठ जाए, इसलिए बम बरसा कर लोगों को डराने की कोशिश की जा रही है, लेकिन इतिहास गवाह है, बम और बंदूकें कभी भी लोगों की आवाज को दबा नहीं पाई हैं। खैबर पख्तूनवा आज जल रहा है। लोग मर रहे हैं, गांव उजड़ रहे हैं और पाकिस्तान आर्मी अपने ही नागरिकों के खिलाफ युद्ध लड़ रही है। सवाल सिर्फ इतना है कि यह सिलसिला कब तक चलेगा? कब तक पाकिस्तान अपने ही लोगों पर बम गिराकर खुद को बचाने की कोशिश करेगा? क्या दुनिया खामोश रहेगी, या कभी सच में यह पूछेगी कि खैबर पख्तूनवा का गुनाह आखिर है क्या?

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