मां के पेट में पल रहा बच्चा भी एक लाख के कर्ज तले!


राजस्थान की जनसंख्या करीब 8 करोड़ है, जबकि राज्य सरकार पर भी लगभग 8 लाख करोड़ रुपये का कर्ज (Debt) चढ़ चुका है। यानी सीधे तौर पर समझें तो आज मां के पेट में विकसित हो रहा भ्रूण एक लाख रुपये के कर्ज बोझ तले दबा हुआ है। बीते 15 सालों में राजस्थान पर हर दल की सरकार ने कर्ज बढ़ाया है। वेतन, पेंशन और फ्री बंटवारे के बोझ ने विकास के पैसे को डकार लिया है। 

जिसके कारण राजस्थान आज कर्ज के बोझ तले दबा विकास को तरस रहा है। कर्ज लेकर घी पीने की इसी परंपरा को भजनलाल शर्मा पर आगे बढ़ा रहे हैं। दो साल पहले भाजपा वाले कांग्रेस की अशोक गहलोत सरकार को कर्ज के लिए कोस रहे थे, आज कांग्रेस भी भाजपा सरकार को कर्जा बढ़ाने वाली बिना विजन की पर्ची सरकार कहकर कटाक्ष मारती है, लेकिन 1993 से अब तक के चुनाव परिणाम बताते हैं कि 3 साल बाद 2028 में कांग्रेस सरकार होगी, लेकिन उसके पास भी कर्ज बढ़ाने के अलावा कोई विजन होगा, ऐसी कल्पना करना भी पाप है।

विकसित राजस्थान, नंबर वन राजस्थान जैसे जुमले फेंकने वाली राज्य की पर्ची वाली भजनलाल शर्मा की सरकार ने फिर से कर्ज के सहारे प्रदेश के विकास का नाटक रच लिया है। इस बार कर्ज का स्वरूप ऐसा है कि राज्य के हर नागरिक के सिर पर एक लाख रुपये का बोझ डाल दिया गया है। 

भजनलाल शर्मा सरकार ने रिज़र्व बैंक के माध्यम से स्टेट-गारंटेड सिक्योरिटीज के जरिए 5,000 करोड़ रुपये जुटाए हैं। सरकार ने सीधे कर्ज नहीं लेकर आरबीआई के बैंडबक्स में तीन अलग-अलग बॉन्ड रिफाइनेंस कराकर ये कर्ज लिया है। इन बॉन्डों की अवधि 10 साल से लेकर 26 साल तक तय की गई है, यानी यह बोझ लंबे समय तक राज्य के टैक्सपेयर पर टिका रहेगा।

राजस्थान एसजीएस 2043 को री-इश्यू करके 1,500 करोड़ रुपए निकाले गए हैं, इस बॉन्ड पर 7.57 प्रतिशत का ब्याज दिया जाएगा, जिसे 18 साल के लिए जारी किया गया है। राजस्थान एसजीएस 2035 के जरिए 2,000 करोड़ रुपए 10 साल के लिए 7.23 प्रतिशत इंटरेस्ट पर जुटाए गए हैं और एसजीएस 2051 के जरिए 1,500 करोड़ 26 साल के लिए 7.30 प्रतिशत ब्याज पर लिए गए हैं। 

आरबीआई ने इन तीनों बॉन्डों की नीलामी 20 अक्टूबर को, यानी दिवाली के दिन करवाई। बॉन्ड आकर्षक ब्याज दरों पर मिलते हैं, इसलिए निवेशक और संस्थाएं इन्हें खरीदना पसंद करती हैं, पर असल प्रश्न यह है कि ये बॉन्ड कितनी महंगी की गोली है।

राजस्थान की तरह दूसरे राज्यों ने भी आरबीआई SGS के जरिए फंड जुटाए हैं। महाराष्ट्र ने 5,000 करोड़ रुपये, छत्तीसगढ़ ने 2,000 करोड़, उत्तर प्रदेश ने 2,000 करोड़ और तमिलनाडु ने 3,000 करोड़ रुपये जुटाए हैं, किंतु तुलनात्मक रूप से तमिलनाडु की ब्याज लागत राजस्थान से सस्ती है। 

तमिलनाडु ने 2032 तक 1,000 करोड़ को 6.99% पर, 2035 तक 1,000 करोड़ को 7.14% पर और 2055 तक 1,000 करोड़ को 7.34% पर जुटाया है। जबकि राजस्थान को 7.23–7.57% के बीच दरें मिली हैं। यानी राजस्थान सरकार ने भारी ब्याज दरों पर कर्ज उठाया है। महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ की अलग-अलग अवधि पर दरें बताई गई हैं, पर केन्द्र सरकार और निवेशक यह समझ रहे हैं कि राजस्थान की बोरोइंग कॉस्ट अधिक है।

राज्य सरकार अपने रुटीन खर्चों के लिए कई बरसों से बॉन्ड के जरिए पैसा जुटाती आ रही है। पिछले दस साल में राज्य का कर्ज तेज रफ्तार से बढ़ रहा है। अब तक की रिपोर्ट्स और बजट दस्तावेज़ों के अनुसार 2025–26 में राजस्थान सरकार का कुल कर्ज लगभग 8 लाख करोड़ रुपये पहुंच सकता है। 

इस आंकड़े का अर्थ आम आदमी की जुबान में समझें तो हर आदमी पर एक लाख रुपये का कर्ज होगा। यह कोई कागज़ी कर्ज नहीं है, बल्कि वास्तविक दायित्व है, जिसे राज्य की जनता को ब्याज सहित चुकाना होगा।

यहां सवाल उठता है कि पैसा किस काम आया और सामान्य जनता को इसका क्या मिला? असल में सरकार का बड़ा हिस्सा कर्मचारियों के वेतन और पेंशन पर खर्च हो जाता है। यह खर्च लगातार बढ़ता जा रहा है। विकास परियोजनाओं और बुनियादी ढांचे को दरकिनार कर वेतन, पेंशन और चुनाव जीतने के लिए फ्री योजनाओं के लिए कर्ज लेना सरकारों की सामान्य प्रवृत्ति बन चुकी है। 

जिस तरह से ये बॉन्ड लंबे समय की किश्तों पर भारी ब्याज के साथ जारी किए गए हैं, उससे साफ है कि आने वाले वर्षों में ब्याज और मूलधन के कारण राज्य के बजट पर भारी दबाव बढ़ेगा। अधिक कर्ज का मतलब होगा या तो सरकार टैक्स में वृद्धि करे या विकास की योजनाओं में कटौती करे, अथवा नए-नए लोन लेकर पुराने कर्ज का बोझ टालती रहे, जिसको सरकारें सबसे आसान रास्ता मानकर अपना रही हैं। 

बीते 30 साल से राज्य में सत्ता परिवर्तन एक बीमारी की तरह बनकर सामने आया है, जिसके कारण कोई भी सरकार बिना झिझक के कर्ज लेकर चुनाव जीतना चाहती है, लेकिन उस कर्ज को रिफंड करने के बारे में कभी विचार नहीं करती। बड़े—बड़े कागजी अर्थशास्त्री राज्य के खजाने से मोटा वेतन पा रहे हैं, लेकिन सरकार को यह नहीं बता रहे हैं कि बिना कर्ज किए पुराने कर्ज को चुकाते हुए राज्य का विकास कैसे किया जाए।

राज्य ने 10 से 26 साल की अवधि वाले बॉन्ड लिए हैं, पर 7.2–7.6 प्रतिशत जैसे दरों पर लंबे समय के भुगतान का अर्थ यह है कि केवल ब्याज के रूप में हर साल अरबों रुपये का भुगतान करना होगा। आप यदि सिंपल मैथेमेटिक्स से देखें तो 5,000 करोड़ के तीनों बंड्स पर सरल ब्याज की वार्षिक देनदारी भी करोड़ों में होती है। चुकाने की प्रवृत्ति के बजाए राज्य सरकार ने लगातार कई वर्षों के लिए ऐसी लोनिंग की आदत बना ली है, जिसको वापस चुकाने का मार्ग असंभव सा हो गया है।

प्रश्न यह उठता है कि राजस्थान की कर्ज प्रणाली पर बॉन्ड-धारकों को गारंटी किसने दी? आरबीआई के SGS सर्किट में राज्य सरकार गारंटी देती है। पर यह भी सच्चाई है कि जब कर्ज का ट्रेवल बढ़ता है, तो गारंटी के बाद भी नीतिगत फैसलों पर राजनीतिक और आर्थिक दबाव का असर दिखता है। तमिलनाडु जैसे राज्यों को सस्ती दरों पर लोन मिलता है, जबकि राजस्थान को महंगी दरें चुकानी पड़ती हैं। यह संकेत है कि बाजार में राजस्थान सरकार की क्रेडिट इमेज बेहद खराब है, जिसका सबसे बड़ा कारण है पुराना कर्ज नहीं चुकाना।

अंत में सबसे कड़वा प्रश्न यह है कि कर्ज किसने लिया और किस योजना से प्रदेश का विकास हुआ? क्या यह पैसा सड़कों-पुलों-स्कूलों के दीर्घकालिक निवेश में खर्च हुआ, या योजनात्मक खर्चों की नाकामी भरने में? नतीजा यह दिखता है कि विकास की जगह कर्ज-निर्भरता बढ़ी है और आम आदमी के नाम पर एक लम्बा लोन सिलसिला शुरू हो गया है। 



आने वाले वर्षों में राज्य सरकार को बेहद कठिन विकल्प लेने होंगे। एक जरा भी विचार किया गया तो इस भारी कर्ज को चुकाने के लिए टैक्स बढ़ाना होगा, चुनाव जीतने के लिए शुरू की गई योजनाओं में कटौती करनी होगी या और कर्ज लेकर वर्तमान देनदारी टालना होगा, लेकिन इनमें से कोई भी विकल्प जनता के लिए सुखद नहीं है।

राजनीतिक भाषणों में “विकास” का नारा हमेशा सुहावना लगता है, पर उसकी कीमत बहुत भारी होती है। यही कीमत सरकारों द्वारा राजस्थानियों के नाम लिखी जा रही है। आप कितना भी कमा लिजिए, लेकिन सरकार की नाकामी, चुनाव जीतने के लिए बेवजह की योजनाओं को शुरू करने की प्रवृत्ति और भारी भ्रष्टाचार के कारण आपकी आर्थिक आज़ादी और भविष्य इस 8 लाख करोड़ रुपये की उधारी के नीचे दबा हुआ है।

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