राजस्थान में जाट मुख्यमंत्री क्यों नहीं बनाया जाता है?

Ram Gopal Jat
राजस्थान में विधानसभा चुनाव से पहले जाट मुख्यमंत्री की दशकों पुरानी मांग एक बार फिर सुर्खियों में है। वजह है हाल ही में सम्पन्न हुये जाट महाकुंभ के समय जाट मुख्यमंत्री बनाने की उठी पुरजोर मांग। राज्य की राजनीति में सबसे मजबूत वोटबैंक होने के बावजूद राजस्थान में जाट समुदाय से कभी मुख्यमंत्री नहीं बन सका है। इसी टीस के साथ 5 मार्च को हनुमान बेनीवाल, अमराराम को छोड़कर प्रदेश के करीब—करीब सभी नेता, मंत्री-विधायक, पार्टी संगठनों में अहम पदों पर बैठे लोग जाट महाकुंभ में जुटे। मंथन हुआ कि राजस्थान में मुख्यमंत्री की कुर्सी और विधानसभा में जाट समाज का मजबूत प्रतिनिधित्व क्यों नहीं? संविधान के अनुसार प्रतिनिधित्व की बात की जाये तो राजस्थान विधानसभा में 200 विधायकों में से 33 विधायक और 5 मंत्री, लोकसभा की 25 सीटों में से 8 सांसद और केंद्र में एक मंत्री जाट समुदाय से आता है। दोनों राष्ट्रीय पार्टी के मौजूदा प्रदेशाध्यक्ष और देश के उपराष्ट्रपति तक जाट हैं। राजस्थान में पहली क्षेत्रिये पार्टी बनाने वाले नागौर सांसद हनुमान बेनीवाल ने भी उस स्थान को भरने का प्रयास किया है, जो कभी नाथूराम मिर्धा, परसराम मदेरणा और शीशराम ओला के पास हुआ करता था।
सवाल यह उठता है कि राजस्थान में करीब 22 प्रतिशत वोट बैंक रखने वाले समुदाय से आखिर मुख्यमंत्री नहीं बनने के पीछे क्या वजह है? प्रदेश के दोनों ही प्रमुख दलों के प्रदेशाध्यक्ष जाट होने के बावजूद बीजेपी और कांग्रेस में जमे—जमाये कई नेता मुख्यमंत्री के लिए किसी जाट चेहरे को स्वीकार नहीं करना चाहते, जबकि भाजपा में बीते साढ़े तीन साल से डॉ. सतीश पूनियां पूर्व सीएम वसुंधरा राजे का एकछत्र सियासी राज खत्म कर तेजी से प्रदेश मुखिया की कुर्सी की तरफ बढ़ रहे हैं। आज भी कांग्रेस में जहां सीएम अशोक गहलोत के बाद अगले चेहरे के रूप में सचिन पायलट का नाम है, तो बीजेपी में पूर्व सीएम वसुंधरा राजे के बाद दूसरी पंक्ति में प्रदेशाध्यक्ष डॉ. सतीश पूनिया के अलावा कोई नाम नहीं है। 5 मार्च 2023 को राजस्थान जाट महासभा में जयपुर के विद्याधरनगर स्टेडियम में जाट महाकुंभ में प्रदेशभर से नेता पहुंचे। सबसे अधिक चर्चा में रामेश्वर डूडी का 'टांग खिंचाई छोड़ें, तभी नंबर वन कुर्सी मिलेगी' वाला बयान रहा। जिस पुरजोर तरीके से डूडी ने जाट सीएम का मुद्दा उठाया, वह संख्याबल होने के बावजूद भी किसी दल द्वारा जाट सीएम नहीं बनाने की टीस को दिखाता है।
सवाल यह उठता है कि सियासी दलों द्वारा आखिर जाट समाज के नेता को मुख्यमंत्री क्यों नहीं बनाया गया? राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि जाटों का बहुसंख्या में होना ही उनके टॉप सीट तक नहीं चढ़ने का कारण रहा है। इसके कारण जाट पावर तो शेयर करते हैं, अच्छी संख्या में विधायक-सांसद होते हैं। मगर प्रभावशाली राजनीति होने के चलते हर पार्टी को यह डर रहता है कि अगर बहुसंख्यक जाति के हाथ में सत्ता चली दी गई तो उनकी राजनीति मुश्किल हो जाएगी। सबसे बड़ी जाति का मुख्यमंत्री जब भी चुना गया, तब राजनीति हमेशा गर्म ही रही है। पड़ोसी राज्य हरियाणा इसका बड़ा उदाहरण माना जाता है। यही वहज है कि संख्याबल के हिसाब से जाटों के सबसे बड़े प्रदेश हरियाणा में भाजपा अब हारने की कगार पर पहुंच रही है, किंतु फिर भी मनोहर लाल खट्‌टर के रूप में गैर जाट सीएम बना रखा है। राजस्थान में जाट भले ही सबसे बड़ा जातिगत समूह हो, मगर प्रदेश के बड़े हिस्सों में बिखरा हुआ है। मारवाड़, शेखावाटी सहित अलग-अलग क्षेत्रों में जाटों की अलग-अलग तरह का वर्चस्व है। राजस्थान के हनुमानगढ़, गंगानगर, बीकानेर, चूरू, झुंझनूं, जोधपुर, बाड़मेर, जैसलमेर, नागौर, जयपुर, चित्तौड़गढ़, भीलवाड़ा, अजमेर, बाड़मेर, टोंक, सीकर, जोधपुर, भरतपुर, धोलपुर जिलों में जाट काफी प्रभावी हैं। कूटनीति और एकता के मामले में भी जाटों में बिखराव है।
करीब दो दशक पहले 1999 के समय शुरू हुआ बिखराव का दौर ऐसा चल रहा है कि आज भी जाट समुदाय दोनों ही पार्टियों में एकजुट नहीं है। ना बीजेपी और ना ही कांग्रेस आज जाटों को लेकर दावा कर सकती है कि पूरा वोट उनको ही मिलेगा। समाज के विधायक भले ही 35 हों, लेकिन ये पांच पार्टियों में बंटे हुये हैं। इस वजह से जैसे कुछ अन्य जातियों को किसी एक पार्टी का वोट माना जाता है। ऐसा जाट समुदाय को लेकर कोई भी पार्टी पक्के तौर पर नहीं कह सकती है, कि ये वोट बैंक उनका ही है। राजस्थान की राजनीति पर बारीकी से नजर रखने वाले राजनीति जानकार मानते हैं कि राजस्थान में जाट पॉलिटिक्स की शुरुआत आजादी के तुरंत बाद 50 के दशक में कांग्रेस और जाट एक-दूसरे को ताकत देने से हुई, लेकिन राजस्थान के जाट नेताओं की सैद्धांतिक राजनीति के कारण उनकी पहुंच केवल मतदाताओं तक सीमित रही, आलाकमान के पास छोटी जातियों के नेताओं ने अप्रोच बनाई।
राजपूत समाज के दो सीएम भैंरूसिंह शेखावत और वसुंधरा राजे 10—10 साल सीएम रहे, जबकि इसके अलावा छोटी जातियों के ही सीएम बने। राज्य में 16 साल सबसे अधिक समय तक वैश्य समाज के आने वाले मोहनलाल सुखाड़िया रहे, जबकि इसी समाज से हीरालाल देवपुरा भी सीएम बने हैं। माली जैसी छोटी जाति के अशोक गहलोत 14 साल सीएम रह चुके हैं। इसी तरह से कायस्थ समाज से शिवचरण माथुर, ब्राह्मण समाज से जयनारायण व्यास, हीरालाल शास्त्री, टीकाराम पालीवाल और हरदेव जोशी 6 साल सीएम रहे। यहां तक कि मुस्लिम समुदाय से बरकत्तुला खान भी मुख्यमंत्री बन चुके हैं।
जाट समाज के विधायकों की बहुसंख्या थी, इसलिए वर्ष 1971 में मोहनलाल सुखाड़िया, 1973 में बरकतुल्लाह खान को हटाने को लेकर लॉबिंग हुई। फिर 1980 में भी मुख्यमंत्री पद के लिए जाट विधायकों ने की कई बार कोशिश, लेकिन कांग्रेस आलाकमान के साथ सैद्वांतिक तालमेल नहीं बैठ पाया। जाट समाज के नेताओं को सैद्धांतिक स्वभाव गांधी परिवार को कभी पसंद नहीं आया। साल 1990 के आस-पास तो जाट फेस आगे करके चुनाव लड़ा गया, लेकिन दिल्ली में पार्टी आलाकमान ने जाट समाज की ताकत को कमजोर करने का काम किया। यही वजह है कि हरियाणा और पश्चिमी यूपी के जाट लीडर्स अपना वर्चस्व रखते हैं, वैसा राजस्थान वाले नहीं रख पाये हैं।
राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि राजस्थान में केवल संख्याबल ही नहीं, आर्थिक रूप से भी जाट अन्य समुदायों की तुलना में काफी मजबूत स्थिति में माने जाते हैं, लेकिन द्वितीय और तृतीय स्तर पर लीडरशिप डेवलप नहीं हो पाई। जो जाट नेता बचे थे, उन्हें मंत्री पद देकर सीमित कर दिया जाता है। यही वजह है कि सीएम के तौर पर जाट अपना पक्ष मजबूती से नहीं रख पाए। राजस्थान की प्रशासनिक सेवाओं में भी आरक्षण मिलने के बाद जाट समुदाय का अच्छा प्रतिनिधित्व हो गया है। जिन जिलों में जाट बाहुल्य में हैं, वहां पर गांवों में पर्याप्त जमीन वाले जाट अच्छी स्थिति में, जबकि शहरों में पलायन करने वाले जाट अच्छा कारोबार कर रहे हैं।
हर दृष्टि से जाट समुदाय प्रभावशाली कौम श्रेणी में आता है, इस वजह से अन्य समुदायों में उनके प्रति एक अलगाव का भाव आ जाता है। राजनीति के शीर्ष पदों पर पहुंचने के लिए एक सभी कौम, समाज, जातियों या समुदायों को साथ लेना पड़ता है। इसी श्रेणी में इस समय भाजपा के अध्यक्ष डॉ. सतीश पूनियां पहले नंबर पर हैं, लेकिन वास्तव में देखा जाये तो वसुंधरा राजे से लेकर डॉ. किरोड़ीलाल मीणा भी उनके बढ़ते कद से परेशान दिखाई दे रहे हैं। राज्य भाजपा के करीब आधा दर्जन नेता डॉ. सतीश पूनियां को रोकने का प्रत्यक्ष प्रयास कर रहे हैं।
राजनीतिक जानकार मानते हैं कि राजस्थान में जाट अपनी ही पार्टियों में धड़ों में बंटे हुये हैं। कांग्रेस में जहां अशोक गहलोत और सचिन पायलट के दो अलग-अलग खेमों के चलते जाट विधायक कांग्रेस के भीतर ही विभाजित हैं। वर्ष 2020 में कांग्रेस के सियासी संकट के दौरान सचिन पायलट के साथ मानेसर जाने वाले विधायकों में भी हेमाराम चौधरी, विश्वेंद्र सिंह, बृजेन्द्र ओला, मुकेश भाकर, रामनिवास गावड़िया जैसे जाट विधायक थे, जबकि हरीश चौधरी, गोविं​द सिंह डोटासरा, महेंद्र चौधरी, दिव्या मदेरणा, कृष्णा पूनिया जैसे विधायक गहलोत खेमे में थे। बीजेपी की बात करें तो यहां भी जाट विधायक पूर्व सीएम वसुंधरा राजे और प्रदेशाध्यक्ष के अलग-अलग खेमों में बंटे हुए हैं। कोई जाट नेता आज तक मुख्यमंत्री भले ही न बन सका हो, मगर इनका प्रतिनिधित्व हमेशा महत्वपूर्ण रहता है। हर विधानसभा चुनाव में लगभग 35 से 45 विधायक जाट समुदाय के राजस्थान में दोनों पार्टियों से चुनकर आते हैं। लोकसभा में हर बार 5 से 7 सांसद जाट समुदाय से जीतते हैं।
कुछ लोग कहते हैं कि संख्या बाहुल्य होने के कारण राजस्थान में प्रमुख राजनीतिक दल भाजपा और कांग्रेस जाटों के प्रति आकर्षित रहे हैं। एक समूह के रूप में तो यह महत्वपूर्ण रहा है, मगर मुख्यमंत्री का पद जाट समाज को हासिल नहीं हुआ है। हालांकि, इससे भी जाटों का राजनीतिक वर्चस्व किसी तरह कम नहीं हुआ है, बंटने की वजह से जरूर कमजोर साबित हो रहा है। जाट महाकुंभ आयोजित करवाने वाली राजस्थान जाट महासभा के अध्यक्ष राजाराम मील का कहना है कि बात मोटे तौर पर जाट समाज के प्रतिनिधित्व की है। राजस्थान में 100 से ज्यादा सीटों को जाट प्रभावित करते हैं। लोकसभा की 15 से ज्यादा सीटों पर भी जाट प्रभाव डालते हैं। ऐसे में राजस्थान में कम से कम 80 टिकट जाट समुदाय से विधानसभा में दिए जाने चाहिए। राजाराम मील के अनुसार ऐसा होगा तो 50 से 55 जाट विधायक चुनकर आएंगे। जब इतने विधायक चुनकर आएंगे तो समुदाय की सुनी जाएगी। आज जाट समाज की बात को उस तरह से नहीं सुना जाता, जिस तरह कुंभाराम आर्य, रामनिवास मिर्धा की सुनी जाती थी। आज केंद्र में सिर्फ एक राज्यमंत्री है और राजस्थान के मंत्री भी प्रभावी नहीं है।
राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक किसी समय कांग्रेस को एकतरफा वोट करने वाला जाट समुदाय पार्टी से कैसे छिटका और कैसे धड़ों में बंटता चला गया? इसके पीछे दो बातें सामने आई हैं। पहली 1980 के दौर में कांग्रेस की नई रणनीति और दूसरा 1999 में तत्कालीन पीएम अटल बिहारी वाजपेयी की ओर से जाट समाज को आरक्षण देने की ऐतिहासिक घोषणा। उस समय परसराम मदेरणा का हक मारकर अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री बना देने के कारण जाट समाज की कांग्रेस से काफी नाराजगी थी। साल 1980 के दौर में खासतौर से 1977 के चुनाव के बाद कांग्रेस को यह अहसास हुआ कि उन्हें राजस्थान में बाकी जातियों के साथ संतुलन करना होगा। इसके बाद कांग्रेस ने मीणा, विश्नोई, राजपूत और मुसलमानों के साथ नई सोशल इंजीनियरिंग का सिलसिला शुरू किया। उस दौर तक राजस्थान में जाट कांग्रेस के लिये बड़ी चुनौती बन चुके थे।
यह वह दौर था, जब जाटों के जबरदस्त प्रभाव के कारण राजस्थान में बार-बार CM बदलने पड़ रहे थे। इस दौर में राजस्थान कांग्रेस ने हरिदेव जोशी, जग्गन्नाथ पहाड़िया, शिवचरण माथुर, हीरालाल देवपुरा सहित कई सीएम बदले। उस वक्त कांग्रेस की केंद्रीय लीडरिशप को यह मंजूर नहीं था कि जाट लॉबी इतनी मजबूत हो कि वो जैसा चाहे वैसा करना पड़े। यही कारण था कि मोटा जातिगत आधार नहीं होने के बावजूद सेंट्रल लीडरशिप के करीबी लोग ही सीएम बनाए गए। राजस्थान में कुछ नेताओं को छोड़ दिया जाए तो ज्यादा मुख्यमंत्री वो रहे जिनकी सेंट्रल लीडरशिप से नजदीकी थी। यही वजह रही कि बगैर जातिगत बैकग्राउंड के भी कई मुख्यमंत्री राजस्थान में बने।सबसे ज्यादा समय तक राजस्थान के सीएम रहने वाले मोहनलाल सुखाड़िया वैश्य समाज से आते हैं, जबकि वैश्य समाज का बहुत बड़ा वोट बैंक राजस्थान में नहीं है। आज अशोक गहलोत माली जैसी छोटी संख्या वाली जाति से आते हैं, लेकिन बड़े दंभ से कहत हैं कि वह एक विधायक होकर भी तीसरी बार मुख्यमंत्री हैं, और यही बात जाट समाज को 1999 का वह दौर याद दिला देती है, जब परसराम मदेरणा का हक मारकर कांग्रेस ने गहलोत को सीएम बना दिया था।
कांग्रेस ने जब जाटों के अलावा ओबीसी वर्ग की दूसरी जातियों को साथ लेना शुरू किया, तभी से राजस्थान में जाटों का बिखराव शुरू होने लगा। गंगाराम चौधरी उस दौर में पहले ऐसे प्रभावशाली नेता थे जो बीजेपी की तरफ गए। कांग्रेस के एक वरिष्ठ और कद्दावर जाट नेता बताते हैं कि 1990 से राजस्थान में भैरोंसिंह शेखावत प्रभावशाली नेता बन चुके थे। वे 98 तक सत्ता में रहे। राजपूत एकतरफा वोटिंग किया करते थे। तब तक बीजेपी में बड़े जाट लीडर नहीं थे। मगर 1999 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने सीकर से जाट आरक्षण की घोषणा की, तभी से जाट बीजेपी की ओर आना शुरू हो गए।जाट आरक्षण का असर ये हुआ कि साल 1999 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी राजस्थान में 16 सीटों पर आई और कांग्रेस 9 पर सिमट गई। इनमें बीजेपी के टिकट से 4 जाट नेता जीतकर संसद पहुंचे, जबकि कांग्रेस का संख्याबल उतना ही रहा, जितना 1996 में था। इसके बाद 2004 के चुनाव में तो बीजेपी के टिकट से 6 जाट संसद में गए, जबकि कांग्रेस से केवल एक सांसद जीत पाया। साल 2003 में वसुंधरा राजे सत्ता में आईं। वसुंधरा ने तब मैं जाटों की बहू, राजपूतों की बेटी और गुर्जरों की समधन हूं कहते हुये पहली बार चुनावी कैंपेन के लिए निकलीं, जिसका वसुंधरा राजे को बहुत फायदा मिला, जबकि वसुंधरा का धोलपुर के जाट राजघराने के हेमंत सिंह से बहुत पहले ही तलाक हो चुका था। जाट समुदाय की बहू बनकर प्रचार करने के कारण वसुंधरा को बहुत फायदा मिला, क्योंकि मदेरणा के साथ हुये अन्याय की वजह से जो जाट कांग्रेस से साइडलाइन कर दिए गए थे। वसुंधरा के नारे ने जाटों को बीजेपी की तरफ खींच लिया।
गंगाराम चौधरी जैसे कई नेता बीजेपी के साथ हुए। यहीं से राजस्थान में जाट नेताओं का बिखराव हुआ। वे दोनों पार्टियों में बंट गए। जाट समाज के युवा आज काफी समझदार हैं, वे शिक्षा, जमीन, सिविल सेवा, पुलिस, फौज वगैरह में अपना करियर बना रहे हैं। इस वजह से ओबीसी की एक अन्य जाति को काफी दिक्कत हो रही है। माली जाति के द्वारा खुद को ओबीसी से वर्गीकरण करने का मामला भी उठाया है। माली जाति के नेताओं को लगता है कि जाटों को ओबीसी में लेने के बाद से उनको आरक्षण का फायदा नहीं मिल रहा है। हालांकि, इस बात के कोई आंकड़े नहीं है कि जाटों की वजह से मालियों को नुकसान हुआ है। अफवाह फैलाकर कुछ लोग अपनी राजनीति जरूर चमकाते दिखाई दे रहे हैं।
इतिहासकार और राजस्थान की राजनीति पर पकड़ रखने वाले विश्लेषक बताते हैं कि आजादी से पहले जाटों की स्थितियां ठीक नहीं थी। वे मूल रूप से किसान परिवार से थे। उस दौर में मारवाड़ में कई तरह के टैक्स होते थे। इन परिवारों को अर्थी उठाने तक के टैक्स भी देने पड़ते थे। लोकतांत्रिक व्यवस्था से पहले भी किसान आंदोलन करते थे। इनसे जुड़ने वाले सबसे ज्यादा लोग जाट समाज से ही थे। राजस्थान में कांग्रेस सामंतवाद को खत्म करना चाहती थी। यहीं से जाटों का राजनीतिक उदय शुरू हुआ। पहले विधानसभा चुनाव 1952 में कांग्रेस ने जाटों को खूब टिकट दिए। विशेषतौर से मारवाड़ में बड़ी संख्या में टिकट बांटे गए। इससे जाट मोटे तौर पर कांग्रेस के साथ हो गए। उनका राजनीति में प्रतिनिधित्व भी बढ़ा।
जाटों काे तवज्जो देने से राजपूत लॉबी में ‘वोट अगेंस्ट कांग्रेस’ का माइंडसेट बना। हालांकि इस दौर में ब्राह्मण, जाट, दलित और मुसलमानों के कॉम्बिनेशन से कांग्रेस लगातार राजस्थान जीतती रही।साल 1950 से लेकर 1977 तक जाट एकतरफा कांग्रेस के पक्ष में रहे। इसकी वजह कांग्रेस के कई कदम थे। शुरुआत में सामंतवाद के खिलाफ कांग्रेस ने लड़ाई लड़ी और फिर 1969 में इंदिरा गांधी ने राजाओं से उनके टाइटल और पेंशन छीन ली। इसके बाद 1971 का युद्ध। इन सबसे जाट समाज का झुकाव कांग्रेस की तरफ बढ़ता गया। इस समय तक फौज और पुलिस सेवाओं में जाट समुदाय के लाेग तेजी से बढ़ने लगे थे। यहां से जाट वेस्टर्न राजस्थान के इलाकों में प्रभावी होते चले गए। जाट एक तरफा कांग्रेस के साथ थे।
जाट समाज के राजस्थान से पहले सबसे प्रभावशाली लीडर बलदेवराम मिर्धा रहे। वे मारवाड़ में IG रैंक के पुलिस अफसर थे। उन्होंने जाटों को मोबलाइज करने का काम बखूबी किया। इन्हीं के साथ कुंभाराम आर्य, नाथूराम मिर्धा, रामनिवास मिर्धा जैसे प्रभावशाली नेता भी उभरे। इनके बाद दौलतराम सारण, शीशराम ओला, बलराम जाखड़, परसराम मदेरणा जैसे जाट नेता उभरे। नाथूराम मिर्धा को हार्डकोर जाट लीडर माना जाता था। वे अक्सर अपने बेबाक बयानों के लिए जाने जाते थे। कांग्रेस की आलाकमान ने जब जाटों के अतिरिक्त बाकी जातियों-वर्गों की तरफ ध्यान देना शुरू किया। तब राजस्थान में अशोक गहलोत ने बाजी मार ली और तभी से कांग्रेस का फोकस माली, मेघवाल और मुसलमान समाज की तरफ बढ़ा। तब यह भी तय किया गया अब जातिगत आधार पर टिकट वहीं दिए जाएंगे, जहां जाट क्लीयर कट मैजोरिटी होंगे। हालांकि, इससे जाट विधायकों की संख्या पर राजस्थान में असर नहीं पड़ा, मगर केंद्र में धीरे-धीरे जाट समाज का डोमिनेंस कम होने लगा था।
भाजपा को अब तक दो ही मुख्यमंत्री मिले हैं और दोनों ही राजपूत समाज से आते हैं। पहली बार भाजपा को जाट नेता के रूप में मजबूत नेता के रूप में सतीश पूनियां मिले हैं। अपने सरल व्यक्तित्व के कारण सतीश पूनियां भाजपा की टॉप लीडरशिप के चहेते तो हैं, लेकिन अभी उनको वसुंधरा राजे जैसी मजबूत ​दीवार को पार करना है। उसके बाद करीब आधा दर्जन कांटे रुपी छोटे नेता भी उनका रास्ता रोकने के लिये दिनरात मेहनत कर रहे हैं। भाजपा के पास यह अच्छा अवसर है, जब राज्य की सबसे बड़ी आबादी की मुख्मयंत्री बनाने की मांग को पूरी करके राजस्थान ही नहीं, बल्कि हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड़, मध्य प्रदेश, गुजरात तक मैसेज दिया जा सकता है।

Post a Comment

Previous Post Next Post