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सरकार की चुप्पी और बेरोजगारों की चीख: सब-इंस्पेक्टर भर्ती का स्याह सच

राजस्थान की सब-इंस्पेक्टर भर्ती परीक्षा अब केवल एक नौकरी की प्रक्रिया नहीं रह गई, बल्कि यह युवाओं की उम्मीदों और राज्य के सरकारी सिस्टम की जर्जर हालत का प्रतीक बन गई है। यह केवल चयनित 859 अभ्यर्थियों की कहानी नहीं है, बल्कि उन लाखों युवाओं की कथा है, जिन्होंने वर्षों की मेहनत, साधनों की कमी और सपनों के साथ इस परीक्षा को जीवन-मरण का सवाल बना लिया था। 

लेकिन जिस प्रकार इस भर्ती को लेकर सरकारी रवैया बना हुआ है, उसने इन तमाम सपनों को न सिर्फ चकनाचूर किया, बल्कि बेरोजगारी से त्रस्त युवा वर्ग में असंतोष की ज्वाला को भी भड़काया है। जयपुर के शहीद स्मारक पर बीते एक महीने से चल रहा सांसद हनुमान बेनीवाल का धरना इस आक्रोश का प्रतीक है। 

6 मई 2024 से लगातार चल रहे इस धरने ने न केवल युवाओं की पीड़ा को राजधानी के बीचोंबीच ला खड़ा किया है, बल्कि सरकार की संवेदनहीनता को भी उजागर किया है। बेनीवाल का कहना है कि जब तक यह भर्ती रद्द नहीं होगी, तब तक उनका धरना जारी रहेगा। एक सांसद का इस प्रकार खुलकर मोर्चा खोलना दिखाता है कि मामला अब सड़क से सदन तक पहुंच गया है, लेकिन सरकार की ओर से अब तक कोई ठोस प्रतिक्रिया नहीं आई।

सब-इंस्पेक्टर भर्ती 2021 के लिए कुल आठ लाख से अधिक युवाओं ने परीक्षा दी थी। यह आंकड़ा अपने आप में बताता है कि राज्य के बेरोजगार युवा इस नौकरी को लेकर कितने गंभीर थे, लेकिन चयनित 859 अभ्यर्थियों में से अब तक 70 से अधिक को राजस्थान एसओजी (विशेष अभियान समूह) द्वारा गिरफ्तार किया जा चुका है। 

उन पर पेपर खरीदकर नकल, सॉल्वर गैंग से मिलीभगत और अन्य आपराधिक गतिविधियों के आरोप हैं। कुछ को जेल भेजा गया, जिनमें से कुछ को ज़मानत मिल चुकी है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही उठता है, यदि ये अभ्यर्थी दोषी थे तो जमानत कैसे मिल गई? और अगर निर्दोष थे तो फिर एसओजी ने उन्हें गिरफ्तार क्यों किया? एसओजी की भूमिका भी अब इस मामले में पूरी तरह सवालों के घेरे में आने लगी है। 

यह बात किसी से छिपी नहीं है कि जांच एजेंसी पर राजनीतिक दबाव हो सकता है, लेकिन अगर जांच निष्पक्ष थी, तो इतने बड़े पैमाने पर गिरफ्तार लोगों को कोर्ट से राहत कैसे मिल गई? क्या सबूत इतने कमजोर थे? या जांच में कोई पूर्वाग्रह शामिल था? 

यह भी कयास लगाए जा रहे हैं कि कुछ गिरफ्तारियां केवल 'नैरेटिव' गढ़ने के लिए की गईं, ताकि सरकार यह दिखा सके कि वह पेपर लीक के खिलाफ सख्त कदम उठा रही है। लेकिन जनता के समक्ष वही सरकार अब बार-बार यह कह रही है कि मामला कोर्ट के अधीन है और वह निर्णय का इंतजार कर रही है।

वर्तमान में यह मामला राजस्थान हाईकोर्ट में लंबित है और अगली सुनवाई 1 जुलाई 2025 को निर्धारित की गई है। सरकार के मंत्री कह रहे हैं कि कोर्ट ने जो जानकारी मांगी थी, वह सरकार पहले ही प्रस्तुत कर चुकी है। लेकिन यदि अदालत से निर्णय ही सरकार की क्रियाशीलता का आधार बने, तो फिर जनता द्वारा निर्वाचित सरकार की जवाबदेही का क्या अर्थ रह जाता है? 

अगर हर भ्रष्टाचार, हर गड़बड़ी और हर बेरोजगार से जुड़ा मुद्दा सिर्फ कोर्ट पर छोड़ा जाएगा तो फिर सत्ता में बैठे लोग सिर्फ उद्घाटन, भाषण और प्रचार के लिए ही जिम्मेदार रहेंगे? सबसे दुखद पहलू यह है कि सरकार में मौजूद कुछ मंत्री भी इस मुद्दे पर थक चुके हैं। राज्य के कद्दावर मंत्री डॉ. किरोड़ी लाल मीणा, जो प्रारंभिक दिनों में इस मुद्दे को लेकर मुखर थे, अब चुप हो चुके हैं। 

उनका कहना है कि उन्होंने पर्याप्त प्रयास किए, लेकिन अब उन्हें कोई परिणाम नजर नहीं आ रहा, इसलिए उन्होंने प्रदर्शन करना छोड़ दिया है। यह स्थिति अत्यंत चिंताजनक है। जब सरकार के मंत्री ही हाथ खड़े कर दें, तो युवाओं को न्याय दिलाने की जिम्मेदारी कौन निभाएगा?

राजस्थान लोक सेवा आयोग (आरपीएससी) की भूमिका भी संदेह के घेरे में है। आयोग का नाम पहले भी पेपर लीक, भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार के आरोपों से जुड़ चुका है। हनुमान बेनीवाल ने आयोग को भंग करने की मांग की है। युवाओं ने आरोप लगाया है कि आयोग में नियुक्त कर्नल केसरी सिंह राठौड़ जैसे सदस्य जातिवादी सोच से ग्रसित हैं, जो भर्ती में पारदर्शिता की जगह जातिगत समीकरणों के आधार पर निर्णय लेते हैं। 

यह आरोप यदि सही हैं, तो यह सिर्फ आयोग की साख पर नहीं बल्कि पूरे भर्ती तंत्र पर गहरी चोट है। जिस व्यक्ति पर अतीत में जातिवादी मानसिकता के आरोप हों, क्या वह निष्पक्ष भर्ती प्रक्रिया का संचालन कर सकता है? सवाल सरकार से भी है, आखिर ऐसे लोगों को आयोग में जगह क्यों दी गई? समस्या केवल भर्ती प्रक्रिया की नहीं है, यह विश्वास के संकट की समस्या है। 

युवाओं का विश्वास सिर्फ नौकरी से नहीं, बल्कि सिस्टम की नीयत से भी जुड़ा होता है। जब लाखों युवा यह महसूस करते हैं कि मेहनत से ज्यादा सिफारिश और पैसा मायने रखता है, तो लोकतंत्र की जड़ें कमजोर होने लगती हैं। यह सवाल आज केवल राजस्थान का नहीं है, बल्कि पूरे देश में फैले उस कुंठित बेरोजगार वर्ग का है, जिसे हर बार "परीक्षा", "परिणाम", "भर्ती", और "जांच" के नाम पर ठगा जाता है।

राजनीतिक लाभ के लिए चुनाव से पहले सरकारें घोषणाएं करती हैं, नौकरियों का एलान होता है, लेकिन जब गड़बड़ियां उजागर होती हैं तो वही सरकारें पीछे हट जाती हैं और न्यायपालिका के पीछे छिप जाती हैं। इसका सीधा असर उन युवाओं पर पड़ता है, जिनकी उम्र निकलती जा रही है, जिन्होंने वर्षों प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में जीवन खपा दिया, और अब उन्हें केवल “विचाराधीन” जैसे शब्दों से जवाब मिल रहा है। 

आखिर कब तक सरकारें जवाबदेही से भागती रहेंगी? कब तक कोर्ट के निर्णय का इंतजार करके युवाओं को “सस्पेंस” में रखा जाएगा? कब तक दोषियों को राजनीतिक संरक्षण और निर्दोषों को जेल का रास्ता दिखाया जाएगा? जरूरत है कि राजस्थान सरकार बिना देर किए इस भर्ती मामले में पारदर्शिता से निर्णय करे, एसओजी की रिपोर्ट को सार्वजनिक करे, दोषियों की पहचान सुनिश्चित करे और निर्दोष युवाओं को राहत दे। 

साथ ही आरपीएससी जैसे संवैधानिक संस्थानों में नियुक्तियों को पूरी तरह से राजनीतिक और जातिगत प्रभाव से मुक्त किया जाए। यदि ऐसा नहीं होता है, तो केवल एक भर्ती नहीं, बल्कि पूरा प्रशासनिक ढांचा सवालों के घेरे में आ जाएगा। तब जो नुकसान होगा, वह केवल युवाओं का नहीं होगा, बल्कि सरकार, व्यवस्था और लोकतंत्र का होगा।

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