बीजेपी पश्चिम बंगाल प्रचंड़ बहुमत से जीतेगी!

पश्चिम बंगाल में अगले साल विधानसभा चुनाव है और 15 साल बाद यहां की राजनीति एक बार फिर से उसी निर्णायक मोड़ पर खड़ी है, जहां 2011 में खड़ी थी। इस बार चुनाव से पहले बहस का केन्द्र सिर्फ़ मुस्लिम वोट बैंक, ध्रुवीकरण या विकास का नैरेटिव ही नहीं है, बल्कि SIR (स्टेटवाइड आइडेंटीफिकेशन रीविजन) के चलते अवैध बांग्लादेशियों के नाम काटे जाने की संभावना और इसका सीधा प्रभाव टीएमसी–बीजेपी के वोट अंतर पर पड़ने वाला गणित है। विभिन्न मीडिया रिपोर्ट्स में दावा किया जा रहा है कि पश्चिम बंगाल में 6% तक वोट अवैध बांग्लादेशी मतदाता हो सकते हैं, जिनके नाम एसआईआर में काटे जाने की संभावना है। पश्चिम बंगाल में हाल के वर्षों के चुनावी आंकड़ों पर ध्यान देते हैं, तो बेहद साफ़ नज़र आता है कि भाजपा की तेज रफ्तर और टीएमसी के कोर वोट का अंतर बेहद पतली रेखा बन चुका है। 

वामपंथियों के 35 साल के शासन का अंत कर पहली बार सत्ता में आई ममता बनर्जी की टीएमसी के पास 2011 में 39% वोट थे और आज तक पश्चिम बंगाल की सत्ता तक नहीं पहुंच सकी भाजपा सिर्फ 4% तक पहुंच पाई थी। इसके बाद 2016 में यह अंतर 2 फीसदी कम हुआ। टीएमसी 45%, भाजपा को प्रदेश में 10% वोट मिले। इसके अगले चुनाव में भाजपा ने इतिहास रचते हुए 38% वोट हासिल कर लिया, जबकि टीएमसी 48% पर रही, यानी दोनों के बीच केवल 10 फीसदी का अंतर रह गया। 2024 के लोकसभा चुनाव में अंतर और घटकर सिर्फ 7% रह गया। इस चुनाव में टीएमसी ने 46%, भाजपा ने 39% वोट हासिल किये। यह वही बंगाल है, जहां भाजपा को 2001 के विधानसभा चुनाव में सिर्फ 1.9% वोट मिला था, लेकिन 20 वर्षों में यह बढ़कर 38% हो गया। यानी इन बरसों में भाजपा की विचारधारा को स्वीकार करने वाला वर्ग 36% से ज्यादा बढ़ चुका है। 

बंगाल की राजनीति का यही नया चेहरा है, जिसने 15 सालों में ममता बनर्जी के लिए पहली बार असली खतरे की घंटी बजाई है। सवाल यही है कि यदि इन 6% अवैध वोटों में से आधे भी SIR में कट जाते हैं, तो क्या टीएमसी अपना बहुमत बचा पाएगी? यह साफ़ है कि टीएमसी की लगातार तीन जीतों में माइक्रो-मोबिलाइज़ेशन की बहुत बड़ी भूमिका रही है। 

दक्षिण बंगाल के उत्तर 24 परगना, दक्षिण 24 परगना, नदिया, मुर्शिदाबाद और मालदा में मुस्लिम आबादी के साथ-साथ सीमा पार बंग्लादेश से आए मुस्लिम भी टीएमसी के कोर वोटर माने जाते रहे हैं। अगर SIR के दौरान इन मतदाताओं पर कैंची चलती है और 6% में से केवल 2–3% वोट भी वोटर लिस्ट से कट जाता है, तो टीएमसी का वास्तविक वोट शेयर 43–44% तक सिमट सकता है। दूसरी ओर भाजपा को 2021 के बाद से बढ़ते हुए मोदी सरकार का विकासवादी चेहरा, पश्चिम ​बंगाल में हिंदूओं का एकीकरण, पार्टी का संगठनात्मक विस्तार, आरएसएस का विशाल बूथ नेटवर्क और 2024 लोकसभा चुनाव में 39% की मजबूत बहुत मायने रखती है। 

अगर भाजपा 2026 के विधानसभा चुनाव में महज़ 5% भी बढ़ जाती है, जो उसके पिछले दशक के ट्रेंड के हिसाब से बिल्कुल संभव है, तो आराम से 43–44% के आसपास पहुंच सकती है। यानी टीएमसी और बीजेपी में सीधे बराबरी का मुकाबला हो जाएगा। बंगाल की राजनीति में यह पहली बार होगा कि मुकाबला त्रिकोणीय नहीं, बल्कि दो बड़े ध्रुवों में सिमट जाएगा। इसके अलावा लगातार 3 बार से सत्ता में बैठीं ममता बनर्जी को सत्ता विरोधी लहर का भी सामना करना पड़ेगा। माना जा रहा है कि भाजपा को 5 फीसदी की बढ़त, 2 से 4 फीसदी अवैध वोटर्स का कम होना और 3 से 5 फीसदी टीएमसी को सत्ता विरोधी लहर से नुकसान गिना जाए तो भाजपा को 148 के पूर्ण बहुमत से रोकना बेहद कठिन होगा। 

लगातार तीन बार की सत्ता, भ्रष्टाचार के आरोप और सरकार की शह पर कटमनी का मुद्दा, सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द किया गया टीचर भर्ती घोटाला, टीएमसी के समर्थकों का सैंड माफिया और महिलाओं के साथ बढ़ते रेप मामलों ने सरकार की छवि को झटका दिया है। यही वजह है कि टीएमसी का वोट स्थिर तो है, पर बढ़ नहीं रहा। 

2011 से 2024 तक टीएमसी सिर्फ 39% से 48% के दायरे में खेल रही है, जबकि भाजपा 4% से 38–39% तक पहुंच गई है। इन दोनों कर्व को देखते हुए साफ़ है कि टीएमसी का वोट बैंक रुक चुका है, जबकि भाजपा का वोट बैंक तेज़ी से विस्तार की स्थिति में है। पश्चिम बंगाल में 2026 की लड़ाई इस बात पर निर्भर करेगी कि कौन सा वर्ग बेहतर तरीके से पोलराइज़ और मोबलाइज़ होता है। 

भाजपा इस समय शहरों, कस्बों, उत्तर बंगाल और जंगल महल में पहले ही मजबूत स्थिति में है। टीएमसी की मज़बूती मुख्यतः दक्षिण बंगाल के जिलों में है, और वहीं पर SIR की सबसे ज्यादा मार पड़ने की संभावना है। अगर बंग्लादेश से आए 2–3% वोट भी कटते हैं तो यह सीधे टीएमसी की 25–30 सीटों पर नतीजे बदल सकता है। इस बार बंगाल में यह भी पहली बार होगा कि ममता बनर्जी को सिर्फ मोदी फैक्टर नहीं, बल्कि बीजेपी के स्थानीय चेहरों की ताकत से भी सामना करना पड़ेगा।

कभी ममता बनर्जी के खास रहे सुभेंदु अधिकारी जैसे नेता लगातार मुख्यमंत्री बनर्जी के खिलाफ प्रतिरोध का नेतृत्व कर रहे हैं। टीएमसी जानती है कि अगर सीटें 150 से नीचे आती हैं, तो बंगाल की राजनीति में अनवरत सत्ता का क्रम टूट जाएगा। भाजपा जानती है कि 2016 की 3 सीटों से 2021 में 77 तक की छलांग ने पूरे माहौल को बदल दिया है, और अब तीसरी छलांग सत्ता परिवर्तन की राह खोल सकती है। 

असली सवाल यही है कि क्या बंगाल 2026 में परंपरा बदलने जा रहा है? बीते 15 सालों के आंकड़े इस बार सत्ता परिर्वतन होने की गवाही दे रहे हैं। पश्चित बंगाल में टीएमसी के लिए मुकाबला अब जीवन-मृत्यु जैसा हो गया है। इस राज्य में भाजपा पहली बार यथार्थवादी बहुमत की सीमा पर खड़ी है, जबकि टीएमसी पहली बार रक्षात्मक मुद्रा में आती दिखाई दे रही है, जिसने 2011 में वाम दलों को सत्ता से बाहर किया था। 

SIR का प्रभाव, 6% अवैध वोटों की चिंताओं का राजनीतिक परिणाम, भाजपा का बढ़ता वोट आधार, ममता सरकार के खिलाफ जन असंतोष और लोकसभा में 7% का पतला अंतर, ये सब मिलकर संकेत देते हैं कि 2026 विधानसभा चुनाव बंगाल के राजनीतिक इतिहास में सबसे कड़ा, सबसे नज़दीकी और सम्भवतः सत्ता परिवर्तन वाला चुनाव हो सकता है। ममता बनर्जी का तिलिस्म पहली बार दरकता दिख रहा है और भाजपा पहली बार ऐसा दावा कर सकती है कि वह ‘कहीं दूर नहीं, सत्ता के बिल्कुल दरवाज़े पर है।’ जहां 2026 के विधानसभा चुनाव के रूप में एक पतली और जर्जर दीवार खड़ी है।

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