युवा पायलट के लिए कांग्रेस ने फिर संघर्ष का रास्ता चुना



राजस्थान कांग्रेस के पास 10 साल पहले वाली स्थिति आ गई है। 10 साल पहले 2013 में जब बुरी तरह से हारकर पार्टी राजस्थान की सत्ता से बाहर हुई थी, तब अशोक गहलोत सीएम थे आज भी जब सत्ता से बेदखल हुई है, तब सत्ता में गहलोत ही थे। फर्क केवल इतना है कि तब सचिन पायलट जैसा नेता कांग्रेस के पास विकल्प के तौर पर नहीं था और आज सचिन पायलट के साथ ही गोविंद सिंह डोटासरा जैसा एक क्षेत्रीय नेता भी तैयार हो चुका है। हालांकि, डोटासरा के पास पायलट जैसी सभ्य भाषा, बात करने का सहज लहजा और युवाओं को आकर्षित करने की ताकत नहीं है, किंतु फिर भी पार्टी के पास विकल्प हैं। तब भी सत्ता से बाहर होते अशोक गहलोत ने अपना कारोबार संभाल लिया था और आज भी संघर्ष की राजनीति से बाहर हो चुके हैं। 


बहुत चिंता ही नहीं, बल्कि कांग्रेस के लिए अत्यंत सोचनीय बात है कि अशोक गहलोत जैसे नेता केवल सत्ता के लिए ही पार्टी पर हावी हैं। जब सत्ता में होते हैं तो ऐसे लोग पार्टी के सबसे बड़े नेता हो जाते हैं, और जब विपक्ष में होते हैं तो ऐसे नेता पार्टी को सत्ता में लाने के लिए सड़क पर संघर्ष करने के बजाए बेरहमी और भ्रष्टाचार की सीमाओं को लांघते हुए कमाए अपने हजारों करोड़ के कारोबार संभालने में व्यस्त हो जाते हैं। बदनसीबी की बात यह भी है कि ऐसे नेताओं की कांग्रेस आलाकमान पहचान भी नहीं कर पा रहा है या कहें कि पहचान करके भी पार्टी से बाहर नहीं फैंक पा रहा है। तीन बार सीएम बनने के बाद भी अशोक गहलोत की सदन में अनुपस्थिति और एक शब्द नहीं बोलना इस बात का पुख्ता सबूत है कि इनको जनता के हित और पार्टी के पक्ष से कोई सरोकार नहीं है। इनको दूसरों के दम पर सत्ता चाहिए और जब इनके कुकर्मों के कारण पार्टी सत्ता से बाहर हो जाती है तो सत्ता में रहते अवैध तरीके से अकूत कमाए धन का कारोबार करने में जुट जाते हैं। 


दूसरी तरफ सचिन पायलट, गोविंद सिंह डोटासरा, हरीश चौधरी जैसे नेता हैं, जो चाहे सत्ता मे हों या विपक्ष में, समान रूप से पार्टी की सेवा में जुटे रहते हैं। ये उस पीढ़ी के लोग हैं, जिसके परसराम मदेरणा, शीशराम ओला, ​नाथूराम मिर्धा, रामनिवास मिर्धा, राजेश पायलट जैसे हमेशा सक्रिय रहने वाले नेता थे। सचिन पायलट को हाल ही में राष्ट्रीय महासचिव बनाया गया है, साथ ही उनको छत्तीसगढ़ का प्रभारी भी बनाया गया है। इस राज्य से भी गहलोत जैसे ही दंभी सीएम रहे भुपेष बघेले के कारण हाल ही में कांग्रेस बुरी तरह से हारकर सत्ता से बाहर हुई है। जिन 12 महासचिवों की नियुक्ति कांग्रेस ने की है, उनमें सचिन पायलट सबसे कम उम्र के हैं। यानी डूबती जा रही पार्टी को फिर से संजीवनी देने के लिए कांग्रेस ने उनकी काबिलियत को पहचानने का काम किया है। 


आपको याद होगा जनवरी 2014 में पायलट को ऐसे ही समय में राजस्थान का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया था, जब अशोक गहलोत के कुकर्मों के कारण कांग्रेस बहुत बुरी तरह से हारकर सत्ता से बाहर हो गई थी। डूबी हुई कांग्रेस को सचिन पायलट ने कांग्रेस को ग्रासरूट से उठाया और पांच साल में सत्ता तक पहुंचा दिया। पार्टी का दुर्भाय यह रहा है कि उनके संघर्ष का प्रतिफल उनको नहीं दे पाई और फिर से सत्ता से बाहर हो गई। इन पांच सालों में गहलोत ने जो भ्रष्टाचार, दुराचरण किया, उससे जनता त्रस्त हो गई और जनता के कमाए अरबों रुपयों से खुद को ब्रांड बनाने में जुटे रहे गहलोत को तीसरी बार भी नकार दिया। पार्टी यदि अब भी नहीं समझी तो आने वाले समय में फिर इसी तरह का नजारा फिर से देखने को मिल सकता है। 


आज देश में भी कांग्रेस के साथ वही हालात हैं, जो 2013 के बाद राजस्थान में थे। सचिन पायलट उस पीढ़ी के नेता हैं, जो टीम कभी राहुल गांधी ने बनाई थी, लेकिन जिम्मेदारी नहीं देने और प्रतिभा का ठीक से दोहन नहीं करने के कारण हेमंत बिश्वा सरमा, ज्योतिरादित्य सिंधिया, आरपीएन सिंह, जितिन प्रसाद और मिलन देवड़ा जैसे नेता कांग्रेस छोड़कर चले गए। उस टीम में से केवल सचिन पायलट ही कांग्रेस में बचे हैं। यह बड़ी बात है कि पांच साल तक गहलोत द्वारा अपमान करने और पार्टी द्वारा उनकी लगातार अनदेखी होने के बाद भी पायलट ने कांग्रेस को नहीं छोड़ा। 


आज यदि ईमानदारी से कहा जाए तो कांग्रेस के पास राष्ट्रीय स्तर पर सचिन पायलट से बड़ा नेता नहीं है, जो बिना किसी तामझाम के केवल अपने दम पर हजारों—लाखों की भीड़ जुटा सकता है। देखा जाए तो आज अकेले सचिन पायलट ही हैं, जो अपने दम पर कांग्रेस को राजस्थान में सत्ता दिला सकते हैं। यही कारण है कि पार्टी ने उनको राष्ट्रीय महासचिव और छत्तीसगढ़ के प्रभारी की दोहरी जिम्मेदारी दी है। राष्ट्रीय महासचिव तो और भी कई हैं, लेकिन जो सक्रियता और आकर्षण राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस में पायलट के प्रति दिखाई देता है, वैसा अन्य किसी नेता के साथ नहीं है। 


हालांकि, सचिन पायलट ने महासचिव बनने के साथ ही साफ कर दिया है कि वो राजस्थान से दूर जाने वाले नहीं है। टोंक से विधायक हैं और अब लोकसभा चुनाव में उनकी बहुत अधिक सक्रिय भूमिका रहने वाली है। डोटासरा को अध्यक्ष के रूप में रिपीट किया गया है तो साथ ही टीकाराम जूली को नेता प्रतिपक्ष बनाया गया है। हालांकि, इनमें से यदि एक जिम्मेदारी पायलट को दी जाती तो राजस्थान की भाजपा सरकार अधिक कठिनाई में आ सकती थी, लेकिन गहलोत ने अपने संबंधों का इस्तेमाल करके अपने खेमे के जूली को नेता प्रतिपक्ष बनवा लिया। 


लोकसभा चुनाव सिर पर हैं और इस दौरान चर्चा चल रही है कि पार्टी कई विधायकों को सांसद का चुनाव लड़ा सकती है। इन नामों में खुद पायलट से लेकर गहलोत, डोटासरा, हरीश चौधरी, गोविंदराम मेघवाल, दिव्या मदेरणा जैसे कई नाम सामने आ रहे हैं। कहा जा रहा है कि करीब एक दर्जन विधायकों को सांसद का चुनाव लड़ाया जा सकता है। 


अशोक गहलोत द्वारा सत्ता में रहते पांच बरसों में 'वन मैन शॉ' बनने के कारण पार्टी में इतनी बड़े नेताओं की इतनी कमी आ गई है कि 25 सीटों पर सांसद का चुनाव लड़ाने के लिए विधायकों को उतारा जाएगा। भाजपा ने अपने नेताओं को आगे कर बड़ा बनाने का काम किया और पार्टी के अधिकांश सांसद आज ऐसे नेता बन चुके हैं, जो कांग्रेस के कई बड़े नेताओं पर भारी पड़ते नजर आ रहे हैं। हालांकि, ये सभी नेता मोदी के नाम के बिना चुनाव जीत सकते हैं, इसमें भी भारी संशय है। फिर भी कांग्रेस के पास जिस तरह चुनाव जीत सकने वाले नेताओं की कमी है, वैसी स्थिति भाजपा में नहीं है। कांग्रेस में सचिन पायलट, गोविंद सिंह डोटासरा, हरीश चौधरी जैसे नेता अपने दम पर जीतने की कुव्वत रखते हैं, लेकिन गहलोत से लेकर बाकी कोई भी नेता अपने स्तर पर लोकसभा का चुनाव जीत सकते हैं, इसपर भारी संशय है। 


ऐसे में कांग्रेस ने इस लोकसभा चुनाव में कई विधायकों को टिकट देने की योजना बना रही है। कांग्रेस दो बार लगातार सभी 25 सीटें हारकर यह बात समझ चुकी है कि जब तक केंद्र में मोदी हैं, तब तक उनके कोई भी नेता लोकसभा का चुनाव नहीं जीत सकते हैं, इसलिए ऐसे नेताओं को मैदान में उतारने की योजना बनाई जा रही है जो अपने दम पर विधानसभा का चुनाव जीत रहे हैं और मोदी के कंधे पर सवार भाजपा के उम्मीदवारों का कुछ हद तक सामना करने की संभावना रखते हैं। 


वास्तव में देखा जाए तो कांग्रेस इस बार का लोकसभा चुनाव उसी दिन हार गई थी, जिस दिन देश में राहुल गांधी की दूसरी यात्रा शुरू हुई थी और अपने सभी बड़े नेताओं को उनके साथ व्यवस्थापक बनाकर बस में बिठा दिया गया था। ठीक इसी तरह से राजस्थान की बात की जाए तो सचिन पायलट को जब महासचिव बनाकर छत्तीसगढ़ का प्रभारी बनाया तो मतदाताओं में यह बात सर्कूलेट हो गई है कि उनको राजस्थान से बाहर निकालने की गहलोत की योजना सफल हो गई है। इसके बाद टीकराम जुली जैसे बिना जनाधार वाले बिलकुल निष्प्रभावी व्यक्ति को नेता प्रतिपक्ष बनाया गया तो साफ हो गया कि पार्टी के पास थिंकटैंक की भारी कमी है। 


गोविंद सिंह डोटासरा इस बार काफी परिपक्व भी नजर आ रहे हैं और जब उनको दूसरी बार अध्यक्ष कन्टीन्यू किया गया है, उसके बाद उनका आत्मविश्वास कई गुणा बढ़ा है। सदन के भीतर उन्होंने पहले ही दिन जिस तरह से सरकार की खिंचाई की, उससे साफ हो चुका है कि यदि वो मार्ग से नहीं भटकेंगे तो इस बार सदन के अंदर और सड़क पर भी कांग्रेस के सबसे बड़े नेता बनने वाले हैं। डोटासरा के हमलों से निपटने के लिए भाजपा की भजनलाल सरकार को बहुत अधिक सावधान रहने की जरूरत पड़ेगी। 


कांग्रेस के लिए सबसे अच्छा तरीका यह होता कि भले ही सचिन पायलट को राष्ट्रीय महसचिव बना दिया जाता, लेकिन सदन में नेता प्रतिपक्ष भी उनको ही बनाया जाता तो कांग्रेस में दुगुणा जोश होता। डोटासरा और पायलट का कॉम्बिनेशन बेहतरीन हो सकता था, लेकिन पार्टी हमेशा अपने उलटे फैसलों के लिए जानी जाती है। जब पायलट को सीएम बनाने की आवश्यकता थी, तब तो गहलोत को सीएम रखा गया और जब गहलोत को राजस्थान की सड़कों पर संघर्ष कराना था, तब उनको फ्री कर दिया गया, ताकि पूर्व की तरह वो आराम कर सकें और जब सत्ता मिल जाए तो अपनी कुटिल चाल से वापस सत्ता पर काबिज हो जाएं। 


यही नीति कांग्रेस में युवा नेता तैयार नहीं होने दे रही है। राहुल गांधी ने 2009 के बाद आगे बढ़कर युवाओं की एक राष्ट्रीय टीम बनाई, लेकिन जब सत्ता से बाहर हुई तो उनको जिम्मेदारी नहीं दी गई। परिणाम यह हुआ कि पायलट के अलावा सब कांग्रेस छोड़ चुके हैं। दो दिन पहले राजस्थान विधानसभा में खण्डेला विधायक सुभाष मील ने कहा था कि कांग्रेस अपने नेताओं को जिम्मेदारी नहीं देकर उनको खत्म करने का काम करती है। इसी वजह से नेता पार्टी छोड़कर भाग रहे हैं। मील ने यह भी कहा कि यही हालात रहे तो एक दिन कांग्रेस में केवल बूढ़े लोग रह जाएंगे। जो बात भाजपा विधायक सुभाष मील कह रहे हैं, यही कांग्रेस पार्टी का सत्य है। कुछ महीनों पहले हरीश चौधरी ने भी कहा था कि कांग्रेस अमीर नेताओं की गरीब पार्टी है। इसका मतलब साफ है, जब सत्ता में होते हैं तो कांग्रेस नेता अपना घर भरने का काम करते हैं। दूसरी तरफ भाजपा वाले नेता पहले पार्टी के लिए काम करते हैं, उसके बाद बचा हुआ अपने घर ले जाते हैं। 


अब कांग्रेस ने जब सचिन पायलट को केंद्र में ले ही लिया है तो उनको महासचिव से आगे बढ़कर राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने जैसा कदम उठाना चाहिए और पार्टी को उनके पीछे खड़े रहने का निर्देश दिया जाना चाहिए। पार्टी को राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद पर गांधी परिवार के भक्तों की अवधारणा से बाहर निकलना चाहिए। भाजपा जिस तरह से हर 3 या अधिकतम 6 साल के भीतर पार्टी अध्यक्ष बदलकर नई पीढ़ी की तरफ बढ़ जाती है, ठीक इसी तरह कांग्रेस को भी अपना संविधान निर्मित कर उसके अनुसार चलना चाहिए, अन्यथा भाजपा जहां खुद को कॉर्पोट घराने की तरह ढाल रही है तो कांग्रेस को उससे मुकाबला करने के लिए बहुत तेजी से नवाचारों की तरफ जाना होगा, अन्यथा पंजाब के सीएम भगवंत मान की भाषा में एक दिन देश दुनिया में यही सुनाई देने लगेगा, 'एक थी कांग्रेस।'

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