राजस्थान की राजनीति इन दिनों एक भयावह दौर से गुजर रही है, जहाँ पत्रकारों को डराना, धमकाना, आधी रात को ही उठवा लेना, उनके साथ गुंडागर्दी करना और प्रताड़ित करना सत्ता का नया शगल बन चुका है। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ जनता की आंखों के सामने लगातार पिस रहा है, और जो पत्रकार सत्ताधारियों से असुविधाजनक सवाल पूछने का साहस कर रहे हैं, उन्हें अपराधी की तरह पेश किया जा रहा है।
फ़रवरी माह में “सियासी भारत” के पत्रकार रामगोपाल जाट को उनके घर से दो दर्जन पुलिसकर्मियों ने बिना कोई ठोस आरोप बताए उठा लिया था। इसी महीने ब्लैकमेलिंग के आरोप में रामसिंह राजावात और जितेंद्र शर्मा को पुलिस ने पकड़ लिया, जेल भेज दिया और अब द सूत्र के प्रधान संपादक आनंद पांडे और प्रबंध संपादक हरीश दिवेकर को राजस्थान पुलिस ने मध्य प्रदेश से बिना एफआईआर दर्ज किए उठा लिया। दोनों पत्रकारों का “अपराध” यह था कि उन्होंने उप मुख्यमंत्री दीया कुमारी से जुड़े कई संवेदनशील मुद्दों को उजागर किया था।
दीपावली से ठीक पहले की गई इस कार्रवाई ने पूरे पत्रकारिता जगत को झकझोर कर रख दिया। सबसे शर्मनाक पहलू यह रहा कि मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा ने इस पूरे मामले पर अनभिज्ञता जताकर पल्ला झाड़ लिया, मानो राज्य में पुलिस किसी और की नहीं, बल्कि किसी अदृश्य ताकत की सरकार चला रही हो। यह मौन, असल में सिस्टम की आत्मा के मर जाने की निशानी है।
नो नेगेटिव न्यूज की राजनीति: सवाल उठाओ तो ब्लैकमेलर घोषित कर दो
राजनीतिक लॉबी में इन दिनों “नो नेगेटिव न्यूज” की मांग ने पत्रकारिता की आज़ादी को बंधक बना दिया है। कोई नेता अब यह बर्दाश्त नहीं कर पा रहा कि उसके भ्रष्टाचार, घोटालों या सत्ताखोरी को उजागर किया जाए। जैसे ही कोई पत्रकार सच बोलता है, उस पर “ब्लैकमेलिंग” का आरोप मढ़कर पुलिस से उठवा लिया जाता है। सत्ता की नौकरी पुलिस ऐसे कामों को बिना लाज—शर्म के अंजाम दे रही है। यह खेल बेहद सुनियोजित है। पत्रकार को अवैध तरीके से उठाओ, घंटों अवैध हिरासत में रखो, परिवार पर दबाव डालो और फिर पूरे मामले को राजनीतिक साजिश बताकर दबा दो। यह न केवल पत्रकारिता की हत्या है, बल्कि लोकतंत्र की जड़ों में जहर घोलने की कोशिश भी है।
सच यह है कि कुछ पत्रकार अपनी जिम्मेदारियों से भटकते हैं, लेकिन क्या यह वजह बन सकती है कि पूरे मीडिया तंत्र को भ्रष्ट घोषित कर दिया जाए? जो सत्ता आज पत्रकारों को “ब्लैकमेलर” कह रही है, वही सत्ता अफसरों और पुलिसकर्मियों के भ्रष्टाचार पर आंख मूंदे बैठी है, या गठजोड़ में भयंकर भ्रष्टाचार कर रही है। अगर हर पत्रकार सच उजागर करने लगे, तो आधे नेता और अफसर जनता के सामने मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे। जिन पत्रकारों पर आज तक आरोप लगाकर पकड़ा है, उनमें से कोई भी रंगेहाथ पकड़ में नहीं आया, न ही बाद में पुलिस साबित कर पाई, लेकिन भ्रष्टाचार करने वाले नेता और पुलिस वाले तो हमेशा रंगेहाथ ही पकड़े जा रहे हैं।
राजस्थान में पत्रकारों को उठाने की परंपरा पुरानी है
यह पहली बार नहीं है, जब पत्रकारों को सत्ताधारियों के इशारे पर उठा लिया गया। बाड़मेर के चर्चित युवा पत्रकार दुर्गसिंह राजपुरोहित को तत्कालीन बिहार के राज्यपाल सतपाल मलिक के इशारे पर बाड़मेर एसपी ने “चाय पीने” के बहाने बुलाया और बिहार पुलिस के हवाले कर दिया। बिना किसी ठोस कारण के उन्हें बिहार की सेंट्रल जेल भेज दिया गया। कई हफ्तों तक चले संघर्ष, और कुछ ईमानदार पत्रकारों के प्रयासों के बाद ही राजपुरोहित की रिहाई संभव हुई, लेकिन यह घटना बताती है कि राजनीतिक रसूख किस तरह कानून से ऊपर हो गया है।
इसके बाद 19 फरवरी 2024 को सियासी भारत के वरिष्ठ पत्रकार रामगोपाल जाट को अलसुबह दो दर्जन पुलिसकर्मी उनके घर से उठाकर ले गए। दोपहर तक न परिवार को खबर थी, न किसी पत्रकार को, कि पुलिस ले कहां गई है। कमिश्नरेट की पुलिस ने एक एसपी ने लगातार 10 घंटों तक अवैध हिरासत में रखा गया, शाम को गिरफ्तार दिखाया गया और फिर दूसरे दिन जेल भेज दिया गया। रामगोपाल जाट चार दिन जेल में रहे। उनका “अपराध” बस इतना था कि उन्होंने उपमुख्यमंत्री दीया कुमारी की अवैध गतिविधियों और भजनलाल सरकार की चुप्पी पर सवाल उठाते हुए खबरें लिखी थीं। मजेदार बात यह है कि जाट के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराने वाला साइबर थाने के एससीपी चंद्रप्रकाश की टीम का हैड कॉन्स्टेबल संजय कुमार डांगी था, जिसने एफआईआर में लिखा कि डिजीटल पेट्रोलिंग के दौरान वीडियो और कंंटेंट गैर कानूनी पाया गया। जिस वीडियो कंटेंट पर जाट पर मुकदमा किया गया, उसको सवा करोड़ लोगों ने सोशल मीडिया पर अपलोड कर रखा है, जो आज तक सोशल मीडिया की शोभा बढ़ा रहा है, लेकिन पकड़ा सिर्फ एक प्रतिष्ठ पत्रकार को, जो दिया कुमारी को एक्सपोज कर रहा था।
इस घटना में भी विडंबना यह रही कि पत्रकार जाट, मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा के ही निर्वाचन क्षेत्र से आते हैं, और कभी उनके नज़दीकी माने जाते थे। लेकिन जब पुलिस ने अवैध कार्रवाई की, तो मुख्यमंत्री ने सबकुछ जानते हुए भी मौन साध लिया। यही मौन इस बात का प्रमाण है कि अब राजस्थान में सच लिखना गुनाह है और पर्ची से बने सीएम भजनलाल शर्मा को कोई नॉलेज नहीं है। इसी महीने की शुरुआत में वरिष्ठ पत्रकार रामसिंह राजावत को ब्लैकमेलिंग के आरोप में पुलिस ने पकड़ लिया और उनके साथ जितेंद्र शर्मा के साथ जेल भेज दिया। मजेदार बात यह है कि जिस मुकदमे में इनको उठाया गया, उस एफआईआर में दोनों का नाम तक नहीं है। दोनों आज तक जेल में हैं, और परिवार उनके बिना दीपावली नहीं मना पा रहा है।
अब दो दिन पहले का मामला द सूत्र के दो वरिष्ठ पत्रकारों का है, आनंद पांडे और हरीश दिवेकर को उठा लिया। दोनों पत्रकारों ने दीया कुमारी के खिलाफ पिछले एक महीने में कई खुलासे किए थे। जब सत्ताधारी वर्ग को यह नागवार गुज़रा तो जयपुर पुलिस ने मध्य प्रदेश जाकर भोपाल से दोनों को उठा लिया। प्रेस नोट इस तरह जारी हुआ जैसे कोई संगठित अपराध पकड़ा गया हो, लेकिन 24 घंटे में ही पुलिस को उन्हें छोड़ना पड़ा, क्योंकि कोई ठोस सबूत था ही नहीं। यह घटना केवल दो पत्रकारों की गिरफ्तारी नहीं थी, बल्कि पूरे मीडिया को डराने का संदेश था: “सत्ता के खिलाफ लिखोगे, तो यही हश्र होगा।”
मीडिया को कमजोर करना यानी लोकतंत्र की हत्या करना
लोकतंत्र के चारों स्तंभों में मीडिया वह कड़ी है जो बाकी तीनों को जवाबदेह रखती है। लेकिन आज वही स्तंभ सबसे कमजोर स्थिति में है। मीडिया संस्थान आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं, पत्रकारों की सैलरी ठहर गई है, और सत्ताधारी दबाव बढ़ते जा रहे हैं। राजनीतिक और प्रशासनिक ताकतें यह भूल गई हैं कि मीडिया जितना कमजोर होगा, उतना ही लोकतंत्र खोखला होता जाएगा। जब पत्रकारों की आवाज दबाई जाएगी, तब बाकी तीनों स्तंभों की जवाबदेही भी खत्म हो जाएगी।
राजस्थान में हर 10 हजार लोगों पर सिर्फ एक पत्रकार
वरिष्ठ पत्रकार राकेश कुमार शर्मा के मुताबिक, राजस्थान में करीब 8,000 छोटे-बड़े पत्रकार कार्यरत हैं। आबादी के अनुपात से देखें तो हर 10 हजार नागरिकों पर सिर्फ एक पत्रकार है। ऐसे में अगर इन पत्रकारों को भी सत्ता और पुलिस के जरिए प्रताड़ित किया जाएगा, तो जनता की आवाज़ कौन उठाएगा? हर पत्रकार पर हमला, हर गिरफ्तारी, हर धमकी लोकतंत्र की एक ईंट गिराने जैसा है।
पत्रकारों को भ्रष्ट कहना आसान, उनके जैसा संघर्ष करना असंभव
आज हर दूसरा व्यक्ति सोशल मीडिया पर पत्रकारों को “ब्लैकमेलर” कहने में गौरव महसूस करता है, लेकिन यह कोई नहीं जानता कि पत्रकार रोज अपनी जान, परिवार और करियर दांव पर लगाकर सच्चाई उजागर करता है। वह न कोई अफसर है, न नेता, उसके पास सिर्फ कलम है और उस कलम से निकला सच कई बार सत्ता के कलेजे में चुभ जाता है। कभी रात के अंधेरे में उठाए जाना, कभी झूठे मुकदमों में फंसाया जाना, कभी परिवार को धमकियां मिलना— यह सब उस पेशे की हकीकत है जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है, लेकिन वही समाज, जो इस स्तंभ पर खड़ा है, उसे कमजोर करने में लगा है।
कोई भी सरकारी अफसर, नेता, प्रोफेसर या इंजीनियर अपने बच्चे को पत्रकार बनाना नहीं चाहता। क्योंकि अब यह पेशा सम्मान से ज़्यादा अपमान और असुरक्षा का प्रतीक बन गया है। पत्रकारों की कमाई घट रही है, लेकिन जोखिम बढ़ रहा है। हर ईमानदार पत्रकार को रोज यह डर सताता है कि अगली सुबह कहीं उसके दरवाजे पर पुलिस न खड़ी हो।
सवाल पूछना अब अपराध है
राजस्थान में आज सवाल पूछना, सच्चाई उजागर करना और सत्ता से टकराना अपराध बन चुका है। जो पत्रकार सत्ता की चापलूसी नहीं करता, वह “ब्लैकमेलर” घोषित कर दिया जाता है। पुलिस और प्रशासन को नेताओं की सुरक्षा की नहीं, उनकी छवि बचाने की जिम्मेदारी सौंप दी गई है। यह स्थिति न केवल मीडिया के लिए खतरनाक है, बल्कि पूरे लोकतंत्र के लिए आत्मघाती है। अगर पत्रकार डर गया, तो जनता की आवाज़ बंद हो जाएगी।
अंतिम सवाल: लोकतंत्र किसके लिए है?
आज हालात इस कदर बिगड़ चुके हैं कि पत्रकारिता करना, यानी सत्ता से युद्ध करना है। सवाल पूछो तो जेल; चुप रहो तो सिस्टम का हिस्सा मान लिया जाता है, लेकिन सच्चाई यह है जब पत्रकार चुप होंगे, तो जनता बोल नहीं पाएगी।
राजस्थान में जो आज हो रहा है, वह लोकतंत्र की आत्मा की हत्या है।
पत्रकारों को अपराधी की तरह उठा लेना, सच्चाई को कुचल देना और फिर मुख्यमंत्री का “मुझे कुछ पता नहीं” कहना: यह सब उस लोकतंत्र के माथे पर कलंक है, जिसकी रक्षा की कसमें ली गई थीं। अगर सत्ता यह भूल रही है कि कलम को कैद नहीं किया जा सकता, तो यह उसकी सबसे बड़ी भूल है। क्योंकि जब कलम जवाब देती है, तो सिंहासन हिल जाते हैं।
राजस्थान में दुर्गसिंह राजपुरोहित, रामगोपाल जाट, रामसिंह राजावत, आनंद पांडे और हरीश दिवेकर जैसे पत्रकार सत्ता के अन्याय के खिलाफ खड़े हैं। लेकिन सवाल यह है कि कब तक? कब तक पत्रकार सच बोलने की सज़ा भुगतते रहेंगे? और कब तक सत्ता अपनी आलोचना को अपराध मानती रहेगी? क्योंकि जिस दिन हर पत्रकार डर गया, उसी दिन लोकतंत्र मर जाएगा।
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