राजस्थान की राजनीति में आज जो तस्वीर उभरकर सामने आई है, वो किसी लोकतांत्रिक सरकार की नहीं, बल्कि एक दिशाहीन तंत्र की झलक है। हालात ऐसे हैं कि प्रदेश में अब मंत्री भी खुद को मज़ाक का पात्र महसूस कर रहे हैं। ऐसा लगता है जैसे सरकार चल नहीं रही, बल्कि दिशाहीन बिना लीडरशिप के रेंग रही है। जयपुर से लेकर जैसलमेर तक अफसरों का साम्राज्य है। मंत्री नाम के रह गए हैं, और शासन-प्रशासन अब पूरी तरह से अफसरशाही के हवाले है। स्वास्थ्य मंत्री आदेश देते हैं तो निचले स्तर के अधिकारी फाइल तक नहीं पलटते।
कानून मंत्री के पास केस आते हैं, पर विभाग के बाबू उनकी बात पर हंसी उड़ा देते हैं। शिक्षा मंत्री योजनाओं की घोषणा करते हैं, पर डायरेक्टर स्कूल एजुकेशन उनकी फाइलें ठंडे बस्ते में डाल देते हैं। खुद मुख्यमंत्री पंडित भजनलाल शर्मा के आदेशों का भी अब कोई विशेष वजन नहीं रह गया है। पहले बजट सत्र के दौरान सीएम ने विधानसभा में कहा था कि उनकी सरकार का मंत्री जो बोल देगा, वो सरकार करके दिखाएगी, लेकिन आज मंत्री तो छोड़ दो अफसरों द्वारा खुद सीएम के आदेश को भी टाल दिया जाता है।
सोचिए, जब किसी राज्य का कानून मंत्री ही कानून के दायरे से बाहर खड़ा छोड़ दिया जाए, तो प्रदेश की स्थिति क्या होगी। सोमवार को जयपुर के सीतापुरा स्थित कन्वेंशन सेंटर में भारत न्याय संहिता (BNS) की प्रदर्शनी का उद्घाटन केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के हाथों हुआ, लेकिन इस आयोजन में राजस्थान के कानून मंत्री जोगाराम पटेल को दो बार प्रवेश से रोक दिया गया।
मंत्री को इंस्पेक्टर प्रीतम कुमार ने यह कहते हुए रोक दिया कि "आपका नाम सूची में नहीं है"। मंत्री बाहर खड़े रहे, बार-बार अपना परिचय देते रहे, पर इंस्पेक्टर ने उच्च अधिकारियों के आदेश का हवाला देकर एक नहीं सुनी। आखिर मुख्यमंत्री स्तर पर बात पहुंचने के बाद जाकर मंत्री को प्रवेश मिला। जहां मंत्री तक को अपनी पहचान साबित करनी पड़े, वहां जनता की क्या बिसात होगी?
कृषि मंत्री किरोड़ीलाल मीणा की कहानी तो और भी दर्दनाक है। प्रदेश के सबसे दबंग, जमीन से जुड़े और जनता के बीच सम्मानित मंत्री को उनके ही विभाग के अफसरों ने बेअसर कर दिया है। पिछले छह महीनों से किरोड़ीलाल लगातार नकली खाद और बीज की जांच कर रहे हैं, छापेमारी कर रहे हैं, लेकिन उनके पीछे विभाग के अफसर जाकर उन्हीं व्यापारियों को “क्लीन चिट” दे देते हैं।
किरोड़ीलाल मीणा मुख्यमंत्री पंडित भजनलाल शर्मा से बार-बार मिलते हैं, पत्र लिखते हैं, अधिकारियों को चेतावनी देते हैं, पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। ऐसा लगता है मानो विभाग के अफसरों को किसी “अदृश्य शक्ति” का संरक्षण प्राप्त है। सरकार में अगर एक मंत्री अपने विभाग के भीतर ही पराया महसूस करने लगे, तो यह मानकर चलो कि सरकार चल नहीं रही, बस औपचारिकता निभा रही है।
मुख्यमंत्री पंडित भजनलाल शर्मा के पास सत्ता की कुर्सी जरूर है, लेकिन उस कुर्सी का कंट्रोल दिल्ली में है। वे आदेश देते हैं, अफसर हां में हां मिलाकर भूल जाते हैं। उनकी न ब्यूरोक्रेसी पर पकड़ है, न राजनीति पर असर है। पहले मुख्यमंत्री हैं, जिन्होंने रील बनाने पर फोकस कर रखा है।
डीआईपीआर विभाग को सीएम की रील्स बनाकर उनको वायरल करने का जिम्मा दे रखा है, कई यूट्यूब चैनल बनाकर हर महीने लाखों रुपये खर्च किए जा रहे हैं, सीएम की छवि बनाने के लिए अखबरों और टीवी चैनलों को करोड़ों रुपये के विज्ञापन दिए जा रहे हैं, लेकिन जनता में जरा भी स्वीकार्यता नहीं बन पा रही है। भैरोंसिंह शेखावत से लेकर वसुंधरा राजे तक किसी भी सीएम को इस तरह से रील्स बनाकर अपनी नकली छवि गढ़ने का काम नहीं करना पड़ा।
आज भी वसुंधरा राजे जहां जाती हैं, उनके लिए हजारों लोगों की भीड़ स्वत: ही जुट जाती है, लेकिन दूसरी तरफ भजनलाल शर्मा हैं, जो करोड़ों रुपये खर्च कर भी हजार लोग एकत्रित नहीं कर पा रहे हैं। यह बात उनको और उनके सलाहकारों को अच्छे से पता है कि पर्ची से कुर्सी तो सौंपी जा सकती है, लेकिन जनता में स्वीकार्यता काम से ही आएगी, रील्स बनाने से तो सरकार के खजाने पर बोझ ही बढ़ेगा। बिना पॉवर के मंत्री, नाम के मुख्यमंत्री के कारण सरकार की स्थिति अब वैसी ही हो गई है, जैसी बिना ड्राइवर की बस की होती है, जो चल तो रही है, पर जाने किस दिशा में जा रही है।
वसुंधरा राजे जब 2003 में सीएम प्रोजेक्ट की गई थीं, तब भी उनके पास लाखों की भीड़ थी और आज जब केवल एक विधायक हैं, तब भी पंडित भजनलाल शर्मा से कहीं अधिक गुणा भीड़ है। इसलिए उनको लाखों रुपये खर्च कर रील्स बनाने की जरूरत नहीं पड़ती।
लोग आज भी कहते हैं “वसुंधरा राजे के समय मंत्री शेर होते थे।” वसुंधरा जब मुख्यमंत्री थीं, तो बड़े-बड़े अधिकारी उनकी एक नजर से कांप जाते थे। पुष्कर में एक IAS अधिकारी को वसुंधरा राजे ने मंच पर घूरकर देखा था, तो अगले दिन वो बीमार पड़ गया था। सीएम का रुतबा अधिकारियों और कर्मचारियों में साफ तौर पर दिखाई देना चाहिए, जनता तो काम से ही स्वीकार करती है।
अफसरों को अहसास होना चाहिए कि वे सरकार के नौकर हैं, मालिक जनता और उनके चुने हुए प्रतिनिधि हैं। वसुंधरा राजे के कैबिनेट में यूनुस खान, राजेंद्र राठौड़, किरण माहेश्वरी, सांवरलाल जाट, कालीचरण सराफ, श्रीचंद कृपलानी जैसे मंत्री थे, जिनको वसुंधरा ने जनहित में पॉवर देकर ताकतवर बना रखा था। अफसर उनकी फाइल पर नोट लिखने से पहले दो बार सोचते थे, लेकिन आज हालत यह है कि खुद मुख्यमंत्री पंडित भजनलाल शर्मा का सियासी कद एक सामान्य मंत्री से भी छोटा दिखाई देता है।
आज सरकार मौन है, मंत्रियों की जुबान बंद है और अफसरशाही बोलती है। जनता परेशान है, किसान ठगा हुआ है, कर्मचारी निराश हैं, और बीजेपी आलाकमान दिल्ली में बैठा तमाशा देख रहा है। मुख्यमंत्री बनने के बाद पंडित भजनलाल शर्मा पूरी तरह से बेअसर हैं, मंत्री मीडिया से दूर हो गए और सरकार केवल “सोशल मीडिया की सरकार” बनकर रह गई है। वसुंधरा राजे के समय जो राजस्थान प्रशासनिक अनुशासन का मॉडल था, वो अब अव्यवस्था और अफसरशाही के अराजक मॉडल में तब्दील हो चुका है।
राजस्थान की सरकार अब "जनता की सरकार" नहीं रही, बल्कि "अफसरों की सरकार" बन गई है। मंत्री बेबस हैं, मुख्यमंत्री बिलकुल कमजोर हैं और जनता ठगा हुआ महसूस कर रही है। सच लिखने, बोलने वाले पत्रकारों को डराया जाता है, झूठे मुकदमों में फंसाकर जेल भेजा जाता है।
जनता के वोट से कुछ दिनों के लिए सरकार में बैठे लोग ये मान बैठे हैं कि पत्रकारिता को खरीदा जा सकता है या झूठे मुकदमों से डराया जा सकता है, लेकिन शायद ये लोग भूल जाते हैं कि ये देश भगतसिंह और चंद्रशेखर जैसे शेर पैदा करता है, जो न झुकते, न बिकते हैं और न डरते हैं।
यह वही राजस्थान है, जिसने कभी नेतृत्व में शेरनी जैसी सीएम देखी थी और आज उसी प्रदेश में मुख्यमंत्री से लेकर मंत्री तक को अपना परिचय देना पड़ रहा है। दो साल बीत चुके हैं, जनता की कोई सुनने को तैयार नहीं हैं, अगर यही हाल रहा, तो तीन साल बाद चुनाव में जनता अपना फैसला सुना देगी, जिसका मरी हुई कांग्रेस गिद्ध की भांति चुपचाप इंतजार कर रही है।
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