पायलट से आंख क्यों नहीं मिला रहे गहलोत?

Ram Gopal Jat
आमतौर पर देखा जाता है कि राजनीतिक दलों के लोग जब एक दूसरे से मिलते हैं, तो बहुत प्रेम से गले मिलकर अभिवादन करते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चाहे देश के विरोधी दल के नेताओं से मिलते हों, या विदेश में किसी दुश्मन देश के राष्ट्राध्यक्ष से, हर बार गले लगकर या गर्मजोशी से हाथ मिलाकर अभिवादन करते हैं। यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जो रिश्तों को मजबूती देती है। भारत की स्वतंत्र सियासी परंपरा का यह रिवाज सात दशक से चला आ रहा है। कहते हैं कि लोकतंत्र तब तक ही जीवित मान लीजिये जब त​क सियासी दलों के लोग एक दूसरे से वैचारिक मतभेद रखते हों, मनभेद नहीं रखते हों। संसद और विधानसभाओं में सत्र के दौरान सत्तापक्ष और विपक्ष के नेता एक दूसरे से जोरदार गर्मजोशी से मिलकर बधाई देते हैं। जब संसद या विधानसभा में बजट पेश किया जाता है, तो भले ही विपक्षी दल उसकी आचोलना करते हों, लेकिन नेता जब मिलते हैं तो बजट के लिये बधाई देते हैं। यही परंपरा भारत के स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी है।
किंतु अब इसमें भारी गिरावट देखने को मिली है। देश की सबसे बड़ी पंचायत में बीते आठ साल में कभी भी यह देखने को नहीं मिला कि विपक्ष में यूएय की चैयरपर्सन होने के बाद भी सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या गृहमंत्री अमित शाह को बधाई दी हो या गर्मजोशी से उनका अभिवादन किया हो। ऐसा प्रतीत होता है कि सोनिया गांधी नरेंद्र मोदी और भाजपा को विरोधी दल नहीं, बल्कि दुश्मन मानती हैं। जो पार्टी सत्ता में सात दशक से राज कर रही हो, और उसको एक व्यक्ति के प्रचंड बहुमत ने हमेशा के लिये बाहर कर दिया है, उसके नेता के मन में खटास तो होगी ही, लेकिन स्वस्थ लोकतंत्र के लिये यह जरुरी है कि सत्ता किसी के पास भी हो, लेकिन कभी मनभेद नहीं पालना चाहिये। संसद में एक बार राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से गले लगकर कहा था कि वह भाजपा से नफरत नहीं करते हैं, लेकिन जब राहुल गांधी मोदी के गले लगे तो ऐसा लगा मानों वह प्रधानमंत्री के जबरदस्ती गले पड़ने का प्रयास कर रहे हों, और उससे भी ज्यादा मजेदार यह रहा है​ कि जब अपनी सीट पर पहुंचे तो अपने साथ सांसद की ओर आंखों से इशारा करके सारे प्रयास को धुमिल कर दिया।
धारा 370 और 35ए को खत्म करने जैसे एतिहासिक कदम के बाद भी विपक्षी दलों के मुखिया के नाते सोनिया गांधी या राहुल गांधी ने मोदी सरकार को बधाई नहीं दी। जबकि यह बात सबको पता है कि आजाद भारत की राजनीति में इससे बड़ा कठोर कदम कोई नहीं उठाया गया। बावजूद इसकी सफलता उनको पंसद नहीं आई। पूरे देश में इसका भव्य स्वागत किया गया, लेकिन विपक्षी के नेता गांधी परिवार को यह भी रास नहीं आया। यह बात तो सही है कि विपक्षी दलों के नेताओं के अधिकांश नेताओं के मतभेद होते हैं, जिसके चलते दूरियां दिखाई देती हैं, लेकिन क्या किसी दल में अपनी ही पार्टी के भीतर इतने अधिक मतभेद हो सकते हैं, जो मनभेद से भी गहरे हों? ऐसे घटनाक्रम कम ही देखने को मिलते हैं, लेकिन ऐसा एक मामला राजस्थान राजनीति में काले अध्याय की तरह जुड़ गया है।
यह बात तो सभी जानते हैं कि राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पूर्व उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट के बीच सियासी लड़ाई समाप्त नहीं हो पा रही है। इस लड़ाई का स्तर इस कदर गिर गया है कि दोनों नेता एक दूसरे को फूटी आंख नहीं सुहाते हैं। यहां गहलोत होते हैं, वहां पायलट नहीं होते और जहां पायलट होते हैं, वहा गहलोत दिखाई नहीं देते। बीते सवाल दो साल तो जो नजारा राज्य कांग्रेस की सियासत में दिखाई दे रहा है, उसका बीजारोपण तो तभी हो गया था, जब जनवरी 2014 में सचिन पायलट जैसे 34 साल के युवा को कांग्रेस की कमान सौंप दी गई थी। उस वक्त अशोक गहलोत की सत्ता गये केवल दो माह भी पूरे नहीं हुये थे और इस कारण से उनपर से मुख्यमंत्री का खुमार उतरा भी नहीं था कि राहुल गांधी के करीबी मित्र सचिन पायलट को अध्यक्ष बनाकर भेज दिया गया।
कहा जाता है कि अशोक गहलोत अपने किसी खास को अध्यक्ष बनाना चाहते थे, लेकिन कांग्रेस ने ऐसे नेता को बना दिया, जो नाम के बजाये केवल काम में भरोसा करता था। दोनों के बीच तल्खियां तब बढ़ीं, जब 2014 के आम चुनाव में राजस्थान की सभी 25 सीटों पर भाजपा जीत गई। तब पहली बार अशोक गहलोत की ओर से बयान दिया गया कि युवाओं को अनुभव का लाभ लेना चाहिये। सचिन पायलट ने गहलोत के उस बयान की परवाह नहीं किये बगैर संघर्ष का रास्ता चुना। नतीजा यह हुआ कि पायलट की लीडरशिप में दो लोकसभा सीटों के उपचुनाव में भाजपा हार गई। इसके साथ ही विधानसभा सीटों के उपचुनाव में भी कांग्रेस भारी पड़ी। प्रचंड बहुमत पर सवार वसुंधरा राजे की सरकार ने इसकी परवाह किये बिना अपने हिसाब से निर्णय लिये और नजीता यह हुआ कि विधानसभा चुनाव से करीब एक साल पहले भाजपा के खिलाफ बनी एंटी इनकंबेसी ने 163 से 72 सीटों पर लाकर पटक दिया।
सड़क पर पायलट और सदन में रामेश्वर डूडी ने संघर्ष किया और अशोक गहलोत ने दो—चार माह में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। 2018 के साल में चुनाव से पहले दोनों परोक्ष रुप से मुख्यमत्री उम्मीदवारी को लेकर जुबानी जंग शुरू हो गई। हालांकि, राहुल गांधी अध्यक्ष थे और उनके सामने एकता दिखाने के लिये दोनों नेता रैलियों में साथ रहे, लेकिन जब परिणाम आया और कांग्रेस सत्ता के मुहाने पर खड़ी हो गई, तब राहुल गांधी के सामने मुख्यमंत्री बनाने की मुसीबत खड़ी हो गई।
लगातार सात दिन तक पॉलिटिकल ड्राम जयपुर से दिल्ली के बीच चलता रहा। आखिरकार गहलोत को सीएम और पायलट को डिप्टी सीएम बनाया गया। कहा जाता है कि पायलट को यह आश्वासन दिया गया था कि लोकसभा चुनाव 2019 में यदि कांग्रेस ने बेहतर प्रदर्शन नहीं किया तो गहलोत को हटा दिया जायेगा। आम चुनाव में दूसरी बार कांग्रेस पूरी तरह से साफ हो गई और उसके साथ पायलट ने आलाकमान को वादा याद दिलाया, लेकिन जब तक राहुल गांधी अध्यक्ष पद छोड़ चुके थे, कार्यवाहक अध्यक्ष सोनिया गांधी थीं, और यह माना जाता है कि सोनिया गांधी खुद के अशोक गहलोत को सचिन पायलट से अधिक करीब मानती हैं। कहीं पर भी सुनवाई नहीं होने की हालत देखकर ठीक 19 महीने बाद 11 जुलाई 2020 को सचिन पालयट ने अपने साथियों संग गहलोत सरकार से हाथ खींच लिया। अपने समर्थक विधायकों के साथ पायलट हरियाणा में चले गये और अशोक गहलोत की सरकार होटलों में कैद हो गई। लगातार 34 दिन ड्रामा चला। बाद में कांग्रेस आलाकमान ने दोनों में समझौता करवाया और पायलट कैंप के सहयोग से गहलोत सरकार ने सदन में बहुमत साबित कर दिया।
किंतु मामला शांत नहीं हुआ। इस खींचतान को सवा दो साल से अधिक हो चुके हैं, चुनाव को केवल 12 महीने बचे हैं और अब दोनों पक्ष जिस तरह से एक दूसरे से आंख तक नहीं मिला पा रहे हैं, उससे साफ हो गया है कि अगले साल के अंत में होने वाला विधानसभा चुनाव कांग्रेस के लिये बहुत डरावने सपने जैसा होने वाला है। राजनीति जानकार कहते हैं कि अशोक गहलोत के नेतृत्व में कांग्रेस कभी सत्ता तक नहीं पहुंच सकती। हालांकि, गहलोत तो फिर भी कह रहे हैं कि कांग्रेस रिपीट होगी। अब गुजरात चुनाव चल रहा है, अशोक गहलोत को वहां पर बड़ी जिम्मेदारी मिली हुई है, लेकिन उनका मन ही गुजरात में नहीं है। ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस ने वहां पर चुनाव से पहले ही हार स्वीकार कर ली है। कांग्रेस का कोई नेता गुजरात जाने को लेकर राजी नहीं है। अशोक गहलोत कभी जाते हैं तो भी जल्द से जल्द वापस लौटना चाहते हैं। कारण यह है कि 3 तारीख को राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्र राजस्थान में प्रवेश करने वाली है। राज्य के झालावाड़ से अलवर तक 6 जिलों से 521 किलोमीटर तक गुजरने वाली इस यात्रा की अशोक गहलोत बड़े पैमाने पर तैयारियां कर रहे हैं। मंत्रियों की कमेटियां बनाई जा चुकी हैं, और खुद गहलोत इसको लेकर मॉनिटरिंग कर रहे हैं।
इसी सिलसिले में बुधवार को कांग्रेस प्रदेश कार्यालय में एक मीटिंग आयोजित की गई थी, जिसमें पायलट और गहलोत भी उपस्थित थे, लेकिन दोनों की नजरें नहीं मिलीं। जब मीटिंग होने वाली थी, तो पायलट समय पर पहुंच चुके थे, लेकिन गहलोत काफी देर से पहुंचे। जब मीटिंग आहूत हुई तो पायलट ने गहलोत को देखा जरुर, लेकिन दोनों की आंखें नहीं मिलीं। कारण यह था कि गहलोत ने पायलट की तरफ देखा तक नहीं। जब कोई व्यक्ति बड़ा अपराध कर देता है, तो वह किसी से आंखें नहीं मिला पाता है, ठीक ऐसा ही बर्ताव अशोक गहलोत का रहा, जो पायलट से आंखें ही नहीं मिला पा रहे थे। ओबीसी आरक्षण का मामला तूल पकड़ता जा रहा है, राहुल गांधी की यात्रा को एक गुट ने यात्रा निकालने की चुनौती दी है, सरदारशहर में 4 तारीख को उपचुनाव है, और उससे ठीक पहले पायलट गहलोत के बीच ये दूरियां कांग्रेस के लिये कतई शुभ संकेत नहीं माने जा सकते। यदि दोनों नेताओं के बीच विवाद को जल्द खत्म नहीं करवाया गया तो आने वाले एक साल में कांग्रेस की हालात क्या होगी, इसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है।

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