'एनडीए' के जवाब में विपक्ष का 'इंडिया' कहां तक टिक पायेगा?

2024 के लोकसभा चुनाव की लड़ाई का राजनीतिक मंच तैयार हो चुका है। 26 दलों के विपक्षी गठबंधन ने बेंगलुरु की बैठक में बीजेपी को घेरने की रणनीति पर एक कदम और बढ़ाते हुए अपने गठबंधन को इंडिया नाम से एक नया नाम दिया। इसके जवाब में 38 दलों वाले NDA की दिल्ली में हुई मीटिंग में 41 दलों के सामने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विपक्ष के अलायंस को ये कहते हुए घेरा कि ये मिशन नहीं, मजबूरी है। हमारे लिए एक गठबंधन मजबूरी नहीं, मजबूती है। चर्चा तो खूब हो रही है, लेकिन दम की बात करें तो अपने अपने हिसाब से दावा कर रहे हैं। इसको हम दो पहलू में देखें तब बात समझ आती है। एक बेंगलुरु में जो विपक्ष की मीटिंग हुई, जिसमें गठबंधन को INDIA नाम दिया गया। अब तक इसको UPA के नाम से जानते थे। 2019 से कई बार ये चर्चा हुई कि यूपीए का नए तरीके से विस्तार हो, नया नाम दिया जाए। पिछले दो महीने में नीतीश कुमार और कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे की मीटिंग के बाद जब विपक्ष की मीटिंग हुई थी, तो उसमें भी ये मांग उठी थी। इसमें सबसे बड़ा फैक्टर था इसका नाम क्या रखा जाए। आप जानते हैं कि नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली बीजेपी और NDA की जो पॉलिटिक्स रही थी, उसमें नाम का बहुत बड़ा योगदान होता है। इसमें राष्ट्रवाद, हिंदुत्व, विकास समेत बहुत सारी चीजों को ध्यान में रखना पड़ता है।
कहीं ना कहीं विपक्ष की कोशिश थी कि वो ऐसे नैरेटिव के साथ आएं, ऐसे नाम के साथ आएं, जो लोगों को कुछ फ्रेश लगे। उन पर बार-बार आरोप लगता रहता है कि वो परिवारवादी हैं, वंशवादी हैं, उन तमाम नैरेटिव से हटना चाह रहे थे। उनके हिसाब से देखें तो उन्होंने INDIA नाम रख के कहीं न कहीं सफलता पाई है। हालांकि, इस नाम को लेकर मामला कोर्ट में जा सकता है। इसलिए इसका लीगल पहलू क्या होगा, वो अलग बात है। दूसरी तरफ दिल्ली में NDA मीटिंग की भी बैठक हुई है। सवाल यह उठ रहा है कि इसी समय इसकी क्यों जरूरत हुई? जबकि खुद बीजेपी की राजनीतिक पूंजी इतनी है कि आज की तारीख में देखें तो वो अकेले 303 सीट के साथ पूर्ण बहुमत में है। बीजेपी को लगातार दो बार पूर्ण बहुमत मिला और इस हिसाब से देखा जाये तो उनको किसी सहयोगी की भी जरूरत नहीं है। इसके बावजूद नरेंद्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी की जो राजनीतिक खासियत हाल में रही है, वो बेहतरी के लिए सुधार समय पर करते रहे हैं।
विपक्ष कितना होगा, क्या होगा, इसपर आप अंतिम समय में तैयारी नहीं कर सकते हैं। जो NDA की मीटिंग थी, उसे एक एहतियातन उपाय कह सकते हैं, या बेहतरी के लिए सुधार कहें या समय पर हस्तक्षेप कह सकते हैं। कई बार आपने देखा होगा कि बीजेपी नैरेटिव को अपने पक्ष में रखना चाहती है तो कहीं ना कहीं उनकी कोशिश रही है कि यदि विपक्ष एक भी हो जाये तो प्रचंड बहुमत मिल जाये। भाजपा इसी में लगी हुई है कि मोदी की लीडरशिप में तीसरी बार बहुमत के साथ सरकार बनाई जाए, ताकि सहयोगी दलों द्वारा आंख दिखाने की कोशिश की जाये तो भी उनको मनाने की मजबूरी नहीं हो। विपक्ष का कुनबा पटना के बाद बेंगलुरु की दूसरी मीटिंग में 17 से बढ़कर 26 तक पहुंच गया, लेकिन जो दूसरा बड़ा एजेंडा सीट शेयरिंग का यहां तय होना था, उसका कुछ नहीं हुआ, क्योंकि यह बहुत ही जटिल काम है। कौन कहां से लड़ेगा, कौन किसके लिए सीट छोड़ेगा, ये सब पर कुछ चर्चा हुई या इसे अगली मुंबई की मीटिंग के लिए छोड़ दिया गया है? पहले जब पटना में मीटिंग हुई थी या उससे पहले जब टुकड़ों-टुकड़ों में मीटिंग हो रही थी, तो उसमें कई नेताओं ने ये बात कही थी।
उनका कहना था कि बार-बार मीटिंग में बैठना और डिस्कस करना कि सब लोग एक होकर चुनाव लड़ेंगे और मोदी को हराएंगे, उसका बहुत असर तब तक नहीं होगा, जब तक सब लोग हर मीटिंग के बाद कुछ न कुछ कदम आगे बढ़ाते नहीं दिखेंगे। सबसे बड़ी चुनौती थी कि इस मीटिंग के बाद जब ये दल सामने आते हैं तो इनके हाथ में कुछ हासिल होता है कि नहीं? यह बहुत बड़ा पॉइंट है, जिस पर बहुत सारी चीजें निर्भर करती हैं। उसके अलावा कई छोटी-छोटी चीजें हैं। जो भी नया अलायंस होगा, उसका दिल्ली में एक सचिवालय होगा, जहां गठबंधन वाली हर पार्टी के लोग बैठेंगे। अलाइंस की अगली मीटिंग मुंबई में होगी। नया नाम होगा, एक कोऑर्डिनेशन कमेटी बनेगी, जिसमें 11 दलों के नेता होंगे। इन तमाम छोटी-छोटी चीजों से लगा कि एक गति शुरू हुई है। मीटिंग के बाद नेताओं से बात हुई है तो वो कह रहे हैं कि जब मुंबई की मीटिंग होगी, उसमें सीट शेयरिंग पर सीरियस बात शुरू हो जाएगी। यूपीए के बाद विपक्ष का जो INDIA गठबंधन बना है, उसका संयोजक और बाकी चीजें, जैसे चेहरा कौन होगा, किस तरह से नेतृत्व होगा, उस पर कुछ ठोस फैसला लेने की स्थिति में रहेंगे। किंतु नीतिश कुमार ने इंडिया नाम पर ही सवाल उठा दिया है। इस शब्द को लेकर नीतिश कुमार का कहना है कि कांग्रेस इस गठबंधन पर हावी होना चाहती है। नीतिश कुमार का बयान उनकी भविष्य की प्लानिंग को लेकर भी कुछ इशारा हो सकता है।
माना यह भी जा रहा है कि सीटों का बंटवारा विपक्षी अलायंस इंडिया के लिए ही नहीं, बल्कि NDA के लिए एक बड़ी चुनौती होने वाली है। उसका कुनबा भी बढ़कर 38 का हो गया है। ऐसी चर्चा थी कि बहुत से जो नए साथी जुड़े हैं, उसमें कई दलों ने सीटों की मांग की है। उन शर्तों के बाद ही वो आये हैं। तो ये चुनौती NDA के लिए भी बहुत बड़ी होने वाली है? सीट शेयरिंग में दोनों के लिए कुछ खास राज्यों में ही दिक्कत होने वाली है। अगर विपक्ष की बात करें तो विपक्ष को पश्चिम बंगाल, दिल्ली, केरल और पंजाब में दिक्कत है। पश्चिम बंगाल में वामदल और कांग्रेस का अलायंस है। विपक्ष के अंदर बात हुई कि कहां-कहां अलायंस होना चाहिए तो उसमें एक सहमति हुई कि केरल जैसे राज्यों में, जहां पर कांग्रेस और लेफ्ट के बीच कड़ा मुकाबला होता है, उनका मानना है कि वहां बीच मुकाबला होने दीजिए। अगर ये लोग वहां भी गठबंधन कर लेंगे तो स्वाभाविक रूप से बीजेपी नंबर दो पर आ जाएगी। अभी उनके हिसाब से वहां बीजेपी नंबर तीन की पार्टी है। इसी तरह वो तमिलनाडु या आंध्र प्रदेश जैसी जगहों पर बीजेपी की उपस्थिति कम है। इनकी कोशिश है कि जहां बीजेपी नंबर वन या नंबर दो हो, वहां पर एक सीट पर विपक्ष का केवल एक उम्मीदवार तय किया जाये।
पंजाब और दिल्ली में इस तरह की एक चुनौती है। मीटिंग में केजरीवाल ने कहा कि अब सीट शेयरिंग की प्रक्रिया तुरंत शुरू की जानी चाहिये। कहीं न कहीं केजरीवाल ने भी यह इशारा किया कि अगर इस तरह की बात होती है तो वो स्वतंत्र हैं। आपने देखा होगा कि पिछले कुछ समय में दिल्ली हो या पंजाब हो, चाहे आम आदमी पार्टी हो चाहे कांग्रेस की यूनिट हो या पश्चिम बंगाल में अधीर रंजन चौधरी का आपने देखा होगा, इन दो राज्यों में काफी चैलेंज होंगे। विपक्ष में कोई एक पार्टी उस तरह से हावी होने वाली ताकत नहीं है, लेकिन बीजेपी अपने गठबंधन में केंद्र में है, वो अपनी बातों को मनवा सकती है। NDA में बीजेपी और मोदी का नेतृत्व स्पष्ट है, पार्टी का स्वरूप स्पष्ट है तो ऐसा नहीं लगता कि NDA में सीटों के एडजस्टमेंट को लेकर इस तरह की कोई ज्यादा समस्या आएगी। यानी विपक्ष का जो गठबंधन है, ये लोकसभा चुनाव के लिए ही रहेगा। राज्यों की लड़ाई में ये अलग-अलग ही लड़ेंगे। बंगाल, दिल्ली और पंजाब को लेकर आपने केजरीवाल, ममता बनर्जी और कांग्रेस को सुना होगा। बंगाल में TMC और कांग्रेस, दिल्ली-पंजाब में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस, वहीं केरल में लेफ्ट और कांग्रेस आपस में लड़ रहे हैं। इसका मतलब ये लोग राज्यों की लड़ाई अलग-अलग ही लड़ेंगे। विपक्ष की मीटिंग में जब यह बात उठी और कुछ लोगों ने सवाल उठाया कि इस तरह से लोकल कैडर को कैसे मनाया जाएगा?
कई नेताओं ने इस बात को साफ किया कि अभी हमको 2024 का चुनाव देखना है, वहां पर हम लोग साथ होंगे। उसके बाद हर पार्टी अपना विस्तार चाहती है। विधानसभा चुनाव में आप जिस तरह से अभी तक लड़ते आए हैं, लड़ें, लेकिन अभी सबका एजेंडा सिर्फ 2024 लोकसभा चुनाव है। उसमें विधानसभा चुनाव या उसके बाद की बात नहीं है। बात साफ है कि ये सब सिर्फ एक चुनाव के लिए अभी ऐसा कर रहे हैं। विपक्षी दलों की एक अच्छी बात ये रही कि उन्होंने ये माना कि उनके बीच कुछ मतभेद हैं, जिन्हें वो बातचीत करके दूर कर लेंगे, लेकिन एक बड़ी चुनौती इस गठबंधन में हर पार्टी के अंदर की भी है। हर पार्टी को अपने अंदरूनी असंतोष को भी संभालना होगा। अभी दूसरी मीटिंग से पहले ही जिस तरह से एनसीपी में फूट पड़ गई, ये भी बड़ी चुनौती सामने है, इससे निपटने की कोई तैयारी दिखाई नहीं दे रही है? दूसरे हिसाब से कहें तो पिछली बार प्रफुल्ल पटेल विपक्ष की मीटिंग में थे, किंतु इस बार NDA की मीटिंग में शामिल हुए हैं।
इस मीटिंग से पहले कई लोग रालोद के जयंत चौधरी के बारे में सियासी चर्चा कर रहे थे। कोई किसी और दल के बारे में कह रहा था। इसलिए विपक्ष में यह खतरा तो हमेशा बना रहेगा। हाल के समय में जिस तरह से NCP के साथ हुआ, जिस तरह से शिवसेना के साथ हुआ या अलग-अलग दलों के साथ हुआ, ये खतरा तो बना रहेगा। 26 दलों के एक कुनबे को अगले 10 महीने तक एक जगह समेट कर रखना, ये सबसे बड़ा चैलेंज है। आज की तारीख में विपक्षी दलों के लिए सबसे बड़ी चिंता यही है। इस संदर्भ में प्रधानमंत्री मोदी का बयान बहुत अहम है। जब उन्होंने कहा कि NDA को बनाने में लालकृष्ण आडवाणी, बाला साहेब और प्रकाश सिंह बादल ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। NDA को बनाने में इनका योगदान बहुत ज्यादा रहा है। उन्होंने बाला साहेब का नाम लिया। इसलिए माना जा रहा है कि एक तरह से वो उद्वव ठाकरे को भी लुभाने की कोशिश कर रहे हैं। मोदी ने इस मीटिंग में बाला साहेब ही नहीं, प्रकाश सिंह बादल का भी नाम लिया और शरद यादव का भी नाम लिया। बाला साहेब को छोड़ दें, उनके यहां तो अब टूट हो चुकी है। शरद पवार को सम्मान दिया, उनकी पार्टी में टूट हो चुकी है। बीच में शरद यादव जेडीयू के नेता थे, वो NDA के संयोजक भी रहे हैं, उनका भी नाम लिया।
अभी चर्चा चल रही है कि अकाली दल की एनडीए में वापसी फिर से हो सकती है। प्रधानमंत्री ने मीटिंग में जो संदेश दिए, वो बहुत ही दिलचस्प थे। उसमें कहीं न कहीं राजनीतिक संदेश भी थे। विपक्ष की ओर से कहा जा रहा था कि मोदी अब विपक्षी एकता से डर गए हैं, इसलिए उनको भी अपना कुनबा बढ़ाने की जरूरत पड़ रही है? उन्होंने इसका भी जवाब दिया कि गठबंधन उनके लिए मजबूरी नहीं, एक बेहतर विकल्प है, वो नंबर गेम नहीं खेल रहे हैं, जो तमाम सवाल उठ रहे थे, NDA की मीटिंग में उन सारे सवालों को मोदी ने एजडस्ट करने की कोशिश की है। तब सवाल यह उठता है​ कि विपक्ष की ओर से मोदी के सामने चेहरा कौन होगा? नीतिश कुमार को खड़गे और राहुल के बीच में बिठाया गया, वो लंबे समय से महागठबंधन की बात कर रहे थे, उनको एक तरह से कांग्रेस ने काफी महत्व दिया है, जो केजरीवाल जैसे अति महात्वाकांक्षी नेता के लिए पचने वाली बात नहीं है। इसी तरह से केसीआर भी काफी समय से विपक्षी एकता का दम भर रहे थे, क्या वो नीतिश कुमार या केजरीवाल को इस गठबंधन का नेता स्वीकार कर पायेंगे? शरद पवार की पार्टी भले ही टूट गई हो, लेकिन उनके पीएम बनने का सपना काफी पुराना है। कांग्रेस पहले ही राहुल गांधी को अगला पीएम मान चुकी है। इसी प्रकार लेफ्ट के लिए अपना अलग ही रास्ता है, हालांकि, वो कांग्रेस के नेतृत्व को स्वीकार कर लेंगे, लेकिन नीतिश या केजरीवाल को कैसे पचा पायेंगे?
सवाल यह नहीं है कि 26 पार्टी साथ हैं, यक्ष प्रश्न यह भी है कि समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव भले यूपी में लगातार दूसरी बार सत्ता से बाहर रहे हो, लेकिन वो भी अपने को केजरीवाल, नीतिश, केसीआर, शरद या अन्य छोटे दलों से कम नहीं मानते हैं। उनके साथ लालू के बेटे ने भी ताल ठोक रखी है। भले ही वो अभी पीएम बनने के सपने नहीं देख रहे हों, लेकिन नीतिश को केंद्र में भेजकर खुद बिहार में सीएम बनने की लालसा तो पाले हुए हैं। फारुख अब्दुलाह और महबूबा का राज्य अभी हाथ में नहीं है, वहां पर चुनाव होने की तारीख कब आयेगा, यही सबसे बड़ा प्रश्न है। इन्होंने केंद्र के साथ राज्य में भी पूर्ण राज्य का दर्जा और फिर चुनाव की कोशिशें कर रखी हैं। राज्यों में अपने हिसाब से चुनाव लड़ने पर सहमत हैं, लेकिन फिर भी लोकसभा में किस चेहरे केा आगे किया जायेगा, ये सबकुछ कांग्रेस की रणनीति पर ही निर्भर करता है। काफी समय से देखा जा रहा है कि कोई भी क्षेत्रीय दल कांग्रेस में राहुल गांधी को भी पीएम उम्मीदवार के तौर पर आगे नहीं बढाना चाहते हैं। दरअसल, इन दलों का मानना है कि यदि एनडीए के खिलाफ एक हुए तो करीब 45 फीसदी वोट हासिल कर सकते हैं। पिछले लोकसभा चुनव में भाजपा को करीब 37 प्रतिशत वोट मिले थे, जबकि एनडीए को करीब 45 फीसदी वोट मिले थे।

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