राजस्थान की राजनीति इन दिनों फिर एक बार सियासी असहजता और युवा आंदोलनों की आंच से तप रही है। एसआई भर्ती घोटाले को लेकर उठा तूफान अब केवल युवाओं की नौकरी या परीक्षा की शुचिता का मुद्दा नहीं रह गया है, बल्कि यह सत्ता और विपक्ष के बीच सत्ता-संकेतों की गहरी जंग का प्रतीक बन गया है। इस पूरे घटनाक्रम में तीन मुख्य किरदार हैं—किरोड़ी लाल मीणा, हनुमान बेनीवाल और वह सरकार जो बाहर से एक और अंदर से दूसरी तस्वीर पेश कर रही है।
डेढ़ साल तक किरोड़ी लाल मीणा अपनी ही सरकार से एसआई भर्ती रद्द करने की मांग करते रहे, धरने से लेकर ज्ञापन तक, मीडिया से लेकर सड़कों तक अपनी बात रखते रहे, लेकिन सत्ता में मंत्री पद पर होते हुए भी सरकार के दरवाजे उनके लिए बंद ही रहे। थक-हारकर उन्होंने मंत्री पद की गरिमा बचाने के लिए फिर से कामकाज शुरू कर दिया, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने यह लड़ाई व्यक्तिगत रूप से नहीं छोड़ी—बल्कि अब इसे लड़ने के लिए हनुमान बेनीवाल के हाथों में थमा दिया है।
हनुमान बेनीवाल की पहचान एक ज़मीनी नेता की है, जिनका अतीत उनके जुझारूपन का गवाह रहा है। किसानों से लेकर युवाओं तक, वे हर मुद्दे को लेकर सड़क पर उतरे और अक्सर उनके आंदोलनों का कोई न कोई ठोस निष्कर्ष भी सामने आया है। यही कारण है कि जब उन्होंने एसआई भर्ती मामले में मोर्चा संभाला, तो एक उम्मीद जगी कि शायद अब सरकार दबाव में आकर इस मामले में कोई निर्णायक कदम उठाएगी। लेकिन यह मामला जितना सतह पर नज़र आता है, उससे कहीं अधिक जटिल है। हनुमान बेनीवाल की इस लड़ाई को देखने के दो कोण हैं—एक यह कि वे ईमानदारी से युवाओं की लड़ाई लड़ रहे हैं और दूसरा यह कि कहीं वे किसी राजनीतिक स्क्रिप्ट का हिस्सा तो नहीं बन गए हैं?
कई सूत्रों का यह मानना है कि सरकार खुद अंदर से दो भागों में बंटी हुई है। एक धड़ा ऐसा है जो किरोड़ी लाल मीणा को किसी भी सूरत में बढ़ने नहीं देना चाहता। ऐसा इसलिए क्योंकि यदि एसआई भर्ती रद्द होती है और इसका श्रेय किरोड़ी को मिलता है, तो न केवल उनका जनाधार बढ़ेगा बल्कि भाजपा में भी उनका सियासी कद मजबूत होगा।
किरोड़ी एक जुझारू नेता हैं, उनकी जमीनी पकड़ भी कम नहीं है। वे कई बार सरकार के लिए असहज स्थिति पैदा कर चुके हैं। यही कारण है कि सत्ता में बैठे लोग उन्हें बढ़ने नहीं देना चाहते और यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि उनके उठाए मुद्दों पर कार्रवाई न हो। इसी समीकरण में एक नया मोहरा बनकर सामने आए हैं हनुमान बेनीवाल।
अब सवाल यह उठता है कि हनुमान की यह लड़ाई वास्तव में युवाओं के लिए है या फिर किरोड़ी को पीछे धकेलने के लिए किसी 'सत्तावादी स्क्रिप्ट' का हिस्सा? क्योंकि जिस तरह से सरकार में मौजूद कुछ लोग पर्दे के पीछे से हनुमान को समर्थन दे रहे हैं, वह एक बहुत गहरी राजनीतिक चाल की ओर संकेत करता है।
किरोड़ी की मांग को तो सरकार ने अनसुना कर दिया, लेकिन हनुमान की चुप्पी और रणनीति को शायद सुन भी रही है और समझ भी रही है। यदि सरकार इस आंदोलन को एक सुरक्षित आउटलेट मानकर समर्थन दे रही है, तो यह भविष्य में भर्ती रद्द होने की संभावनाओं को बल दे सकता है, लेकिन यदि हनुमान अकेले मोर्चा लिए खड़े हैं, बिना किसी 'इनसाइड सपोर्ट' के, तो यह लड़ाई बेहद कठिन है।
इस पूरी सियासी उठापटक में जो सबसे बड़ी विडंबना है, वह है उन 859 नव-नियुक्त एसआईज़ का भविष्य, जिनकी नियुक्ति सवालों के घेरे में है। वे आज सरकारी वेतन तो ले रहे हैं, लेकिन उनकी नौकरी की वैधता स्वयं एक प्रश्न है।
भर्ती प्रक्रिया में गड़बड़ी की बात को अगर दरकिनार भी कर दें, तो भी जिस तरह से इस मामले को डेढ़ साल से दबाया गया है, वह सरकार की हठधर्मिता को उजागर करता है। एक ओर युवाओं में रोष है, दूसरी ओर सरकार चुप है, और तीसरी ओर विपक्ष प्रतीकात्मक प्रदर्शन तक सीमित है।
इस पूरे घटनाक्रम में सबसे दुखद पक्ष यह है कि राजस्थान का मीडिया लगभग खामोश है। आज जब विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस मनाया जा रहा है, तब यह सवाल प्रासंगिक हो जाता है कि क्या प्रेस केवल सत्ता के विज्ञापनों का भोगी बनकर रह गया है? क्यों नहीं कोई बड़ा अखबार या न्यूज़ चैनल इस आंदोलन को प्रमुखता से दिखा रहा है? क्यों एक लोकप्रिय जनप्रतिनिधि के संघर्ष को 'स्पेस' नहीं मिल पा रही?
शायद इसलिए क्योंकि मौजूदा मीडिया का चरित्र अब पत्रकारिता से हटकर प्रबंधन बन गया है। जो सरकार विज्ञापन दे रही है, उसके खिलाफ कोई बात नहीं करनी है। ऐसे में जब हनुमान बेनीवाल जैसे नेता सड़कों पर संघर्ष करते हैं, तो मीडिया उन्हें अनदेखा कर देता है। निस्संदेह, यह दौर 'परतंत्र मीडिया' का है, जहां सच्चाई नहीं, विज्ञापन चलता है।
राजनीति में अक्सर कहा जाता है कि जो दिखता है, वो होता नहीं, और जो होता है, वो दिखता नहीं। अशोक गहलोत की यह पंक्ति इस मामले में सटीक बैठती है। हनुमान की लड़ाई कितनी ईमानदार है और उसमें कितना सत्ता का छिपा खेल है, यह आने वाले समय में साफ होगा, लेकिन फिलहाल तो यह निश्चित है कि यह लड़ाई अब युवाओं के हित और नेताओं के हित—इन दोनों के टकराव का केंद्र बन चुकी है।
सरकार किस पक्ष में खड़ी है, यह भी धीरे-धीरे सामने आएगा। फिलहाल, एक स्पष्ट तस्वीर यही है कि राजस्थान का युवा अपनी ही सरकार और अपने ही प्रतिनिधियों के बीच छली जा रहा है, और एक भर्ती प्रक्रिया—जो देश में युवाओं का भविष्य तय करती है—वह अब सियासत का हथियार बन चुकी है। इसी में दब रही है युवाओं की उम्मीद, सत्य की आवाज और पत्रकारिता की स्वतंत्रता।
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