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वसुंधरा या मोदी, कौन जीतेगा?


सियासत में एक दिन फर्श से अर्श पर जाना और अर्श से फर्श पर आना तय होता है। वसुंधरा राजे एक समय देश की सबसे पॉवरफुल मुख्यमंत्री हुआ करती थीं। भाजपा में केंद्र तक उनका रुतबा चलता था। उनकी एक नाराजगी पर केंद्रीय संगठन हिल जाया करता था। विधायक एक आवाज भी एकसाथ इस्तीफा देने दिल्ली पहुंच गए थे। जनसमर्थन ऐसा था कि राजस्थान में भाजपा को पहली बार पूर्ण बहुमत अपने दम पर दिलाया तो दूसरी बार ऐसा इतिहास बनाया, जो कभी नहीं रहा। 

करीब 8 साल पहले एक दौर ऐसा भी आया, जब वसुंधरा राजे ने दिल्ली में बैठे पीएम मोदी और भाजपा अध्यक्ष रहे अमित शाह के फैसले को राजस्थान में लागू नहीं होने दिया। वसुधंरा का पॉवर भाजपा में ही नहीं था, बल्कि उनके एक इशारे पर विपक्षी दलों में भी बहुत कुछ तय होता था। प्रदेश के तीन बार सीएम रहे कांग्रेस के दिग्गज नेता अशोक गहलोत भी वसुंधरा राजे के नाम से खौफ खाते थे, लेकिन आज भाजपा के अंदर ही उनको राजनीति में हाशिए पर धकेल दिया गया है।

जो कभी भाजपा में राजस्थान की राजनीति का सर्वमान्य एकमात्र चेहरा हुआ करती थीं। वो वसुंधरा आज एक तरह से राजनीतिक तौर पर नेपथ्य में हैं। इसकी शुरूआत तो 2018 में सत्ता से बेदखल होने के साथ ही हो गई थी, लेकिन डेढ़ साल पहले दिसंबर 2023 में जब भारतीय जनता पार्टी ने राजस्थान में सत्ता में वापसी की, तब बहुतों को उम्मीद थी कि सियासी वनवास खत्म कर वसुंधरा राजे तीसरी बार मुख्यमंत्री बनेंगी, किंतु ऐसा नहीं हुआ। उनकी जगह एक नया चेहरा सामने लाया गया। ये फैसला चौंकाने वाला था, लेकिन भाजपा के मौजूदा चरित्र को समझने वाले लोग जानते हैं कि यह अप्रत्याशित नहीं था। 

वसुंधरा राजे का राजनीतिक सफर 1985 में शुरू हुआ, जब वे पहली बार धौलपुर से विधायक बनीं। उसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। छह बार विधायक बनीं, 1989 में पहली बार सांसद बनीं और लगातार पांच बार झालावाड़ से लोकसभा पहुंचीं। उन्हें अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में केंद्रीय मंत्री भी बनाया गया। वे दो बार भाजपा की प्रदेशाध्यक्ष रहीं और दो बार राजस्थान की मुख्यमंत्री भी। यानी एक पूरा राजनीतिक जीवन शिखर से शिखर तक रहा।

दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी हैं, जो 2001 में पहली बार गुजरात के मुख्यमंत्री बने। उनसे पहले उन्हें बहुत कम लोग जानते थे। लेकिन उन्होंने संगठन से अपनी पहचान बनाई, जनता से जुड़ाव बनाया और 2014 में प्रधानमंत्री बने। तब से अब तक लगातार देश के प्रधानमंत्री हैं। दिलचस्प बात यह है कि जब नरेंद्र मोदी राजनीतिक मैदान में अपने कदम जमाने का प्रयास ही कर रहे थे, तब वसुंधरा राजे संसद में भाषण दे रही थीं, और दिल्ली में मंत्री पद संभाल रही थीं। 

सीनियरिटी के लिहाज से वसुंधरा राजे, नरेंद्र मोदी से काफी आगे थीं, लेकिन दोनों की राजनीति की बुनियाद अलग रही है। नरेंद्र मोदी को लोग 'सेल्फ-मेड' नेता कहते हैं। वे एक कार्यकर्ता से प्रधानमंत्री तक का सफर खुद तय करते हैं। वहीं वसुंधरा राजे को लेकर यह धारणा बनी रही कि वे 'डायनेस्टी मेड' हैं। उनकी मां विजया राजे सिंधिया जनसंघ की संस्थापक नेताओं में से एक थीं और वसुंधरा की राजनीति की शुरुआत भी उसी विरासत से हुई। शायद यही बात मोदी और उनके करीबी सहयोगियों के मन में खटकती रही। 

राजस्थान में भाजपा को पहली बार बहुमत दिलाने वाली नेता वसुंधरा राजे ही थीं। जब 2003 में उन्होंने पार्टी को सत्ता में पहुंचाया, तो उन्हें राजस्थान की राजनीति का नया सूर्य कहा गया। उस जीत से भाजपा को राज्य में स्थायी जगह मिली, लेकिन जब 2013 में भाजपा ने 163 सीटों के साथ भारी बहुमत से फिर चुनाव जीता, तब पार्टी के भीतर एक टकराव की शुरुआत हुई।

वसुंधरा उस जीत को अपनी लोकप्रियता और नेतृत्व का नतीजा मानती थीं, लेकिन पार्टी के शीर्ष नेतृत्व—खासकर मोदी और शाह—उसे केंद्र की रणनीति और उनकी लोकप्रियता का असर मानते थे। यहीं से दोनों ध्रुवों के बीच पहली बड़ी दरार पड़ी। कहा जाता है कि मोदी पहले से ही इस बात से नाराज़ थे कि जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे और अमित शाह राजस्थान दौरे पर आए थे, तब वसुंधरा ने उन्हें मिलने तक का समय नहीं दिया था। 

वह नाराजगी धीरे-धीरे राजनीतिक दूरी में बदल गई। लेकिन दोनों धड़ों के बीच टकराव 2018 में खुलकर सामने आया। उस समय मोदी—शाह भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष के लिए किसी और नाम को आगे बढ़ाना चाहते थे, लेकिन वसुंधरा राजे अपने करीबी नेता को ही उस पद पर देखना चाहती थीं। यह टकराव इतना तीखा हो गया कि पार्टी के भीतर दो स्पष्ट खेमे बन गए। नतीजा यह हुआ कि चुनाव में पार्टी को हार का सामना करना पड़ा और इसके लिए अप्रत्यक्ष रूप से वसुंधरा को ज़िम्मेदार ठहरा दिया गया। 

इसके बाद से पार्टी के भीतर वसुंधरा की भूमिका सीमित होती चली गई। 2019 के लोकसभा चुनाव के वक्त भी उन्हें कोई विशेष भूमिका नहीं दी गई। और 2023 में जब एक बार फिर भाजपा को राजस्थान में सत्ता मिली, तब सबकी नज़र इस बात पर थी कि वसुंधरा को तीसरी बार मुख्यमंत्री बनाया जाएगा, लेकिन हुआ इसके ठीक उलट। पार्टी ने राजनाथ सिंह के हाथों पर्ची भेजकर भजनलाल शर्मा जैसे अनजान चेहरे को मुख्यमंत्री बना दिया।

ये वही पार्टी है जिसमें एक समय क्षेत्रीय क्षत्रपों का वर्चस्व होता था, लेकिन अब पार्टी की कमान पूरी तरह से केंद्र के हाथों में है। अब मुख्यमंत्री तय होते हैं दिल्ली के बंद कमरों में। यही ट्रेंड पूरे देश में दिख रहा है, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, उडिसा... हर जगह। यह पार्टी अब उस ढांचे पर नहीं चलती जहां नेता अपने जनाधार और अनुभव से अपनी भूमिका तय करते थे। अब निकटता, निष्ठा और नियंत्रण जैसे शब्द सबसे अहम हो गए हैं। 

ऐसे में वसुंधरा राजे जैसी नेता, जिनका अपना जनाधार है, जो स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता रखती हैं, वो मौजूदा राजनीतिक ढांचे में फिट नहीं बैठतीं। यही वजह है कि उन्हें आज एक तरह से पार्टी में किनारे कर दिया गया है। अब सवाल उठता है कि क्या वसुंधरा राजनीति से संन्यास लेंगी? या वे किसी और विकल्प की तलाश करेंगी? क्या वे भीतर ही भीतर एक वापसी की रणनीति बना रही हैं? या फिर वह दिन कभी नहीं आएगा? राजनीति में भविष्यवाणियाँ करना आसान नहीं होता, लेकिन ये तय है कि वसुंधरा जैसी नेता सिर्फ पद की राजनीति नहीं करतीं, वे प्रभाव की राजनीति करती हैं।

आज वे भले ही भाजपा की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हों, एक ऐसा पद जो सिर्फ नाम का पद माना जाता है, लेकिन उनका जनाधार, उनकी प्रशासनिक समझ और उनकी पहचान आज भी बनी हुई है। यदि कभी भाजपा नेतृत्व को राजस्थान में राजनीतिक अस्थिरता या जन असंतोष का सामना करना पड़ा तो हो सकता है कि पार्टी फिर वसुंधरा की ओर देखे। राजनीति में कोई दरवाज़ा हमेशा के लिए बंद नहीं होता और न ही कोई नेता हमेशा के लिए हाशिए पर रहता है, लेकिन ये जरूर कहा जा सकता है कि वसुंधरा राजे जैसी सीनियर नेता, जिनका राजनीतिक अनुभव और जनसमर्थन असंदिग्ध रहा है, उन्हें अगर इस तरह से दरकिनार किया गया है, तो यह सिर्फ एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि पार्टी की कार्यशैली में आए बदलाव की भी कहानी है। 

हाल ही में उन्होंने कहा था कि पार्टी उनकी मां है और मां से अलग होने के बारे में वो सोच भी नहीं सकती हैं, लेकिन एक समय ऐसा आया था, जब कल्याण सिंह, योगी आदित्यनाथ से लेकर राजस्थान में घनश्याम तिवाड़ी और किरोड़ीलाल मीणा जैसे नेताओं ने भी पार्टी छोड़कर अलग राज चुन ली थी। अभी के लिए वसुंधरा राजनीति में चुप हैं, मौन नहीं हैं। लेकिन याद रखना, इसी राजनीति में कभी-कभी मौन के बीच सबसे गूंजदार वापसी भी होती है।


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