नेता पैदा करने वाले हनुमान का साथ क्यों छोड़ रहे हैं नेता?



राजस्थान में नेता तो बहुत हुए, लेकिन जिन नेताओं के कारण राजनीति की दिशा और दशा दोनों बदली, उनमें से एक हैं हनुमान बेनीवाल। बेनीवाल जीवन के पांच दशक पूरे कर चुके हैं। राजस्थान विवि के छात्रसंघ अध्यक्ष से अपने सियासी सफर की शुरुआत करने वाले हनुमान बेनीवाल आज की तारीख में इसलिए युवाओं की जुबान पर हैं, क्योंकि जब भी प्रदेश में कहीं पर जुल्म होता है तो गरीब, मजदूर, किसान, युवा के साथ सबसे पहले खड़े होने वाले हनुमान बेनीवाल ही होते हैं। चार बार विधायक और एक बार सांसद बन चुके बेनीवाल इन दिनों अपने ही लोगों के धोखे से सुर्खियों में हैं। 

हालांकि, उन्होंने इसका जवाब बेहद गंभीरता और विश्वास के साथ दिया है कि उनके पैदा किए नेता जो आज उनको छोड़कर जा रहे हैं, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता है, क्योंकि जो आज छोड़कर दूसरे दलों में जा रहे हैं, उनकी पहचान ही हनुमान बेनीवाल ने बनाई है, उनका सियासी वजूद ही बेनीवाल के बिना नहीं के बराबर है। बेफिक्री से यह कहना कि उम्मेदाराम और पुखराज के जाने से कुछ नहीं होता, उनकी जगह 10—10 उम्मेदा और पुखराज तैयार कर लेंगे। हनुमान बेनीवाल की यह बात इसलिए सत्य जान पड़ती है, क्योंकि जो उम्मेदाराम बेनीवाल और पुखराज गर्ग आरएलपी को छोड़कर कांग्रेस और भाजपा में गए हैं, वो राजनीतिक तौर पर हनुमान बेनीवाल के ही पैदा किए गए थे। यदि हनुमान का साथ नहीं होता तो इन नेताओं की पहचान जीरो थी। ऐसा भी नहीं है कि आरएलपी को बीच राह में छोड़कर जाने वाले ये ही दो नेता हैं, बल्कि इससे पहले विधानसभा चुनाव से पूर्व भी कई नेताओं ने हनुमान को धोखा दिया है। 

कईयों ने तो टिकट लेकर भी आखिरी दिन अपना नामांकन पत्र वापस लेकर दगा किया, लेकिन हनुमान बेनीवाल पीछे नहीं हटे। पांच साल पहले 3 विधायक और एक सांसद की पार्टी के मुखिया हनुमान आज एक विधायक भले ही हों, लेकिन हकीकत यह है कि भाजपा—कांग्रेस को सबसे अधिक डर ही बेनीवाल से है। कारण यह है कि पश्चिमी राजस्थान की कोई भी लोकसभा सीट ऐसी नहीं है, जहां हनुमान बेनीवाल अपना उम्मीदवार उतारकर एक लाख से दो लाख तक वोट हासिल नहीं कर सकते। उम्मेदाराम बेनीवाल को अपने पाले में लेकर कांग्रेस बाड़मेर जीत के सपने भले ही देख ले, लेकिन जब तक हनुमान बेनीवाल साथ नहीं होंगे, तब तक कांग्रेस का यह सपना केवल सपना ही रह जाएगा। 

पिछली बार भी मोदी की लहर थी और इस बार भी है, लेकिन भाजपा भी पश्चिमी राजस्थान की सीटों पर हनुमान के डर में जी रही है। आरएलपी को 2018 में करीब 8.50 लाख वोट मिले थे, जबकि इस बार 10 लाख से ज्यादा वोट मिले हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने आरएलपी से गठबंधन उसी 8.50 लाख वोटबैंक के कारण किया था, इस बार भी 10 वोटबैंक वाले हनुमान बेनीवाल को भाजपा और कांग्रेस दोनों ने गठबंधन करने का प्रस्ताव दिया, लेकिन शर्तों के टकराव से अलाइंस नहीं हो पाया। 

कहा तो यह जा रहा है कि उनकी कांग्रेस के साथ अलाइंस करने की बातें हो रही हैं, और कहा यह भी जा रहा है कि भाजपा हनुमान बेनीवाल को पार्टी विलय का प्रस्ताव देकर कैबिनेट मंत्री बनाना चाहती है, लेकिन हनुमान ने अभी तक अपने पत्ते नहीं खोले हैं। उन्होंने इतना जरूर कहा है कि उनकी कांग्रेस के साथ बात चल रही है।
अब समझने वाली बात यह है कि आखिर भाजपा—कांग्रेस हनुमान से अलाइंस चाहती क्यों हैं? क्या वजह है कि एक विधायक वाली पार्टी से दोनों दलों को डर लग रहा है? आखिर क्या कारण है कि लगातार दो बार सभी 25 सीटें जीतने वाले भाजपा अकेले नेता का साथ क्यों चाहती है? 

साथ ही सवाल यह भी उठ रहा है कि राहुल गांधी की यात्राओं के बाद सत्ता पाने का दम भरने वाली कांग्रेस क्या बेनीवाल का साथ लेकर 10 साल बाद राजस्थान में खाता खोलना चाहती है? दरअसल, देखा जाए तो इसकी जड़ 2008 के विधानसभा चुनाव के बाद शुरू हो गई थी। जब भाजपा के विधायक होते हनुमान ने सार्वजनिक सभा में कहा था कि वसुंधरा—गहलोत दोनों भ्रष्ट हैं और दोनों एक दूजे को बचाने का काम करते हैं। इसके बाद भाजपा ने उनको निलंबित कर दिया, और बेनीवाल ने 2013 का चुनाव निर्दलीय लड़ा, जिसमें जीत गए। 

जीत के बाद बेनीवाल के निशाने पर वसुंधरा—गहलोत के अलावा तत्कालीन सरकार में सबसे पॉवरफुल मंत्री रहे राजेंद्र राठौड़ और यूनुस खान पर गैंगस्टर आनंदपाल के साथ मिलीभगत होने के आरोप लगाए। विधानसभा से लेकर सड़क तक बेनीवाल ने दोनों मंत्रियों को खूब घेरा और आखिरकार 2016 में आनंदपाल के एनकाउंटर के बाद विवाद खत्म हुआ। उसके एनकाउंटर से पहले बेनीवाल ने कहा कि यूनुस खान ने ही आनंदपाल को जेल से भगाया था, क्योंकि यूनुस खान को 2013 का चुनाव आनंदपाल ने जिताने में मदद की थी। 

2013 से 2018 के बीच बेनीवाल ने नागौर, बाड़मेर, जोधपुर, सीकर और जयपुर में लाखों की तादाद वाली किसान सभाएं कीं। दिसंबर 2018 के विधानसभा चुनाव से पहले राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी बनाई और 57 उम्मीदवार मैदान में उतारे, जिनमें से तीन जीते। उनकी बढ़ती ताकत को देखकर भाजपा ने 2019 के लोकसभा चुनाव में गठबंधन किया, जिसमें खुद बेनीवाल नागौर से सांसद बने और करीब 10 सीटों पर उन्होंने भाजपा के उम्मीदवारों को जिताने में मदद की। किंतु 2021 में किसान आंदोलन के दौरान उन्होंने भाजपा से अलाइंस तोड़ लिया। बाद में वो आंदोलन में उतर गए। 

किसान आंदोलन 13 महीने चला, जिसमें सक्रिय रहे। केंद्र सरकार 2023 में अग्निवीर योजना लेकर आई तो बेनीवाल ने किसान के बेटों और जवानों के पक्ष में उसके खिलाफ भी आंदोलन किया। संसद से सड़क तक हर जगह विरोध किया। 2023 में महिला पहलवानों के मामले में भी बेनीवाल ने केंद्र सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला। ऐसा नहीं है कि बेनीवाल बड़े आंदोलनों में ही सक्रिय रहे, बल्कि राजस्थान में बजरी माफिया के खिलाफ पूरी रात धरने देने और आधी रात को कलेक्टर—एसपी को उठाकर मौके पर बुलाने जैसे ऐतिहासिक और साहसिक कार्य भी किए। 

बजरी माफिया द्वारा टोंक में मीणा समाज के युवा की मौत के मामले में आंदोलन करना हो या फिर जोधपुर में भूंगरा गैस त्रासदी के बाद सबसे पहले मदद करने और संसद में उनकी पुरजोर तरीके से मांग उठाना हो, हर जगह बेनीवाल का योगदान अतुलनीय रहा। ऐसे दर्जनों घटनाक्रम थे, जब बेनीवाल से असहाय जनता उम्मीद लगाए मौके पर आने का इंतजार करती थी। यही कारण था कि जब विधानसभा चुनाव की बारी आई तो दोनों दलों ने उनके साथ अलाइंस करने का प्रयास किया, लेकिन बेनीवाल ने भीम आर्मी के साथ अलाइंस कर मैदान में उतरे। बड़ी चौंकाने वाली बात यह रही है कि 10 लाख से अधिक वोट तो हासिल कर लिए, लेकिन बेनीवाल की पार्टी के सभी 86 उम्मीदवार चुनाव हार गए। खुद बेनीवाल खींवसर से बमुश्किल 2000 वोटों से जीते। 

पांच साल तक दिनरात मेहनत करने के बाद जब ऐसा परिणाम आए तो हर कोई टूट सकता है, लेकिन बेनीवाल अलग मिट्टी के बने हैं। विधानसभा चुनाव हारने के बाद भी नहीं रुके। बीते तीन महीनों में बेनीवाल हर उस मोर्चे पर तैयार मिले, जहां जनता उनको पुकार रही थी। यही वजह है कि भाजपा कांग्रेस आज उनके साथ अलांइस करने को तैयार बैठी हैं। 2019 के विधानसभा चुनाव के बाद गजेंद्र सिंह शेखावत, कैलाश चौधरी, दीया कुमारी, राज्यवर्धन राठौड़, भागीरथ चौधरी, पीपी चौधरी जैसे नेताओं ने माना कि हनुमान बेनीवाल की वजह से बड़े अंतराल से जीते हैं। इस बार भी सुनने में आया कि गजेंद्र सिंह शेखावत और कैलाश चौधरी जैसे मंत्रियों ने आलाकमान को अपनी राय में कहा है कि बेनीवाल के साथ बिना उनकी जीत कम हो सकती है या हार भी सकते हैं। 

इसलिए भाजपा—कांग्रेस को पता है कि हनुमान बेनीवाल की ताकत क्या है। किंतु जिस तरह से बेनीवाल की पार्टी के नेता छोड़कर दूसरे दलों में भाग रहे हैं, उससे बाद कई सवाल खड़े हो रहे हैं। असल बात यह है कि आजकल नेतागिरी में सिद्धांत नाम की चीज खत्म हो चुकी है। भाजपा कांग्रेस जहां हनुमान बेनीवाल को एक जाति का नेता बनाकर छोटा करने के प्रयासों में जुटी है, तो बेनीवाल ने एससी समाज से आने वाले पुखराज गर्ग को विधायक का चुनाव जिताया और पार्टी का अध्यक्ष तक बनाया, लेकिन अब दूसरा चुनाव हारते ही पुखराज भाजपा में भाग गए। 

इसी तरह से आरएलपी की तीसरी विधायक इंद्रा बावरी थीं, जो भी एससी समाज से आती थीं। हनुमान बेनीवाल की पहचान एक दबंग नेता के तौर पर है, हर मुद्दे पर खुलकर अपनी राय रखने वाले बेनीवाल को आज भी दोनों प्रमुख दल एक जाति तक सीमित करना चाहते हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि बेनीवाल की पार्टी को जितना वोट किसान वर्ग से मिलता है, उससे कहीं अधिक एससी वर्ग से मिलता है। जोधपुर में राजपूत समाज के घर में हुए भूंगरा गैस कांड के बाद संसद में सबसे पहले आवाज बुलंद करने वाले हनुमान बेनीवाल ही थे, जबकि गजेंद्र सिंह शेखावत जोधपुर के सांसद भी हैं और केंद्र में कैबिनेट मंत्री भी हैं। 

इसके कारण राजपूत समाज शेखावत से नाराज तक हो गया था। मीणा, गुर्जर, मेघवाल, सुनार, माली, रेबारी, राजपूत, जाट समेत तमाम जातियों के गरीब, मजदूर, किसान के साथ खड़े रहने वाले हनुमान बेनीवाल की ताकत एक बार फिर से इस लोकसभा चुनाव में देखने को मिलेगी, जब उनका अलाइंव दोनों प्रमुख दलों से नहीं होने पर आरएलपी अपने दम पर आधा दर्जन सीटों पर उम्मीदवार उतारेगी, जो वोट लेकर दिखाएंगे कि विधानसभा चुनाव में भले ही उनके सभी उम्मीदवार हार गए हों, लेकिन उनके वोटबैंक पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। 

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