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अरावली में अरबों रुपयों का खजाना लूटना चाहती हैं सरकारें!

राजस्थान का बेहश्मीती अरबों रुपये का प्राकृतिक खजाना सरकारें लूटने जा रही हैं। इसके लिए पहला कदम बढ़ाया जा चुका है। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से इसकी अधिकारिक मंजूरी ले ली है। राजस्थान के अलावा, गुजरात, हरियाणा और दिल्ली सरकार भी अरबों रुपये के नेचुरल खजाने पर हाथ साफ करने की तरफ बढ़ने लगी है। जिस खजाने को सुप्रीम कोर्ट ने 23 साल पहले बचाने का आदेश दिया था, उसी को सरकारों की मंशा पर सर्वोच्च अदालत ने लूट की छूट देकर बेपर्दा कर दिया है। अरावली पर्वत रेंज में इन सरकारों को 100 मीटर उंचाई तक माइनिंग की मंजूरी मिल गई है। 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने सीईसी बनाई थी, जिसकी रिपोर्ट के अनुसार अरावली की 25 फीसदी पहाड़ियां खोदी जा चुकी हैं। अलवर जिले की 128 में से 31 पहाड़ियां इतिहास बन चुकी हैं।

अरावली पर्वतमाला को लेकर सर्वोच्च अदालत के हालिया निर्णय ने सिर्फ पर्यावरणविदों को ही नहीं, बल्कि इतिहास, भूगोल और नीति को समझने वाले हर संवेदनशील नागरिक को बेचैन कर दिया है, क्योंकि यह फैसला किसी एक पहाड़ी, एक जिले या एक परियोजना का नहीं, बल्कि पूरे पश्चिमी भारत के भविष्य से जुड़ा हुआ है। 20 नवंबर 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने खनन गतिविधियों को लेकर एक अहम निर्णय सुनाया, जिसके तहत 100 मीटर तक ऊंचाई वाले पहाड़ों पर खनन की अनुमति दे दी गई। प्रदेश के 15 जिलों में मौजूद 12 हजार 81 अरावली पहाड़, पठार और टीले 20 मीटर या उससे अधिक ऊंचे हैं, लेकिन इनमें से केवल 1 हजार 48 ही ऐसे हैं जो 100 मीटर से ज्यादा ऊंचे हैं, यानी 11 हजार 33 संरचनाएं सरकारी परिभाषा अब अरावली नहीं कही जाएंगी।

 यह आंकड़ा अपने आप में बताता है कि एक झटके में किस तरह अरावली के विशाल भूभाग को संरक्षण के दायरे से बाहर किया जा रहा है। 20 मीटर ऊंचाई का मानक इसलिए वर्षों से अहम माना जाता रहा है, क्योंकि इतनी ऊंचाई की पहाड़ियां भी हवा के प्रवाह को रोकने वाली प्राकृतिक दीवार का काम करती हैं और थार के रेगिस्तान को पूर्व की ओर बढ़ने से रोकने में निर्णायक भूमिका निभाती हैं।

अरावली पर्वतमाला को खोदने की प्रक्रिया कोई अचानक शुरू हुई नहीं हुई है। इसे कमजोर होने की शुरुआत 1990 के दशक में ही हो गई थी, जब शहरी विस्तार, बड़े निर्माण कार्य और अंधाधुंध खनन को विकास के लिए जरूरी मान लिया गया। मनचाहे तरीके से पेड़ों की कटाई, पत्थरों का विस्फोट, पहाड़ों की परतों को चीरती मशीनें और नेचुरल रिर्सोस का बेलगाम दोहन इस प्रक्रिया को लगातार तेज करता गया। 2002 में Supreme Court ने अवैध खनन पर सख्त रोक लगाई थी। सर्वोच्च अदालत के उस निर्णय को अरावली के लिए नया जीवन माना गया, लेकिन अब उसी सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले के बाद फिर से वही संकट कहीं बड़े रूप में दिखाई दे रहा है। 

प्रश्न यह उठता है कि क्या 2002 में और अब में अरावली में ऐसा कोई बदलाव आ गया है, जिसके कारण सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही पुराने फैसले को निष्प्रभावी किया है? ऐसा तो नहीं है कि सरकार को शहरी निर्माण के लिए अरावली में पत्थर, चूना, रोड़ी, सीमेंट का अथाह खजाना दिखाई दे रहा है?

राजस्थान की पहचान सिर्फ उसके किलों, मरुस्थल और संस्कृति से नहीं, बल्कि अरावली पर्वतमाला से भी है। यह विश्व की सबसे पुरानी वलित पर्वतमालाओं में से एक मानी जाती है, जिसकी कुल लंबाई 692 किलोमीटर है, जिसमें से लगभग 550 किलोमीटर हिस्सा अकेले राजस्थान में फैला हुआ है। कुछ रिपोर्ट्स में इसकी लंबाई 800 किलोमीटर तक माना जाता है। राजस्थान को यह पर्वत श्रंखला लगभग 60:40 के अनुपात में दो हिस्सों में बांटती है। अरावली जहां से निकलती है, वहीं से कई मायनों में राजस्थान की प्राकृतिक पहचान बदल जाती है। 

इस श्रृंखला की सबसे ऊंची चोटी माउंट आबू का गुरु शिखर है, जिसकी ऊंचाई 1727 मीटर है, जो इस पर्वतमाला की भौगोलिक गरिमा का प्रतीक माना जाता है। चंबल नदी और गंग नहर को छोड़कर राजस्थान की सभी नदियां अरावली से निकलती हैं। अरावली के कारण राजस्थान के 27 जिलों में प्रति हेक्टेयर 20 लाख लीटर पानी रिजार्च होता है। अरावली के कारण राजस्थान में 32 ब्लॉक्स हैं, जिनमें अवैध खनन के चलते 22 फीसदी नष्ट हो चुके हैं। यही कारण है कि यह पर्वतमाला राज्य की जल आपूर्ति के लिए रीढ़ की हड्डी जैसी है। 

पर्यावरण मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार अरावली पर्वत का लगभग 90 प्रतिशत हिस्सा 100 मीटर से भी कम ऊंचाई का रह गया है। इसी रिपोर्ट और तकनीकी व्याख्या के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा कि 100 मीटर से कम ऊंचाई वाले क्षेत्रों को अब पहाड़ी नहीं माना जाएगा और वहां खनन के रास्ते खोले जा सकते हैं। यह फैसला कागजों में भले ही तकनीकी लगे, लेकिन इसके परिणाम राजस्थान के लिए दूरगामी और खतरनाक साबित होंगे। 

एनवायरोमेंटल स्पेशलिस्ट कहते हैं कि इस फैसले के लागू होते ही प्रदेश में रेगिस्तान का क्षेत्र और तेजी से बढ़ेगा। रेगिस्तान को रोकने में अरावली एक प्राकृतिक अवरोध की तरह काम करती है, जो पश्चिम से आने वाली गर्म और शुष्क हवाओं में रुकावट पैदा करती है। जब 11 हजार से अधिक पहाड़ी संरचनाएं एक झटके में संरक्षण से बाहर हो जाएंगी, तो हवा, रेत और धूल को रोकने वाला वह प्राकृतिक जाल टूट जाएगा, जो सदियों में बना था। इसका असर केवल राजस्थान तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि हरियाणा, दिल्ली और पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक दिखाई देगा, जहां तापमान बढ़ेगा, वायु प्रदूषण गंभीर होगा और जल संकट और गहराएगा।

अरावली का महत्व सिर्फ एनवायरोमेंट तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका ऐतिहासिक और रणनीतिक पक्ष भी उतना ही अहम है। इतिहास गवाह है कि विदेशी आक्रमणों के दौर में अरावली ने एक प्राकृतिक ढाल का काम किया। पश्चिम से आने वाले आक्रमणकारियों के लिए यह पर्वतमाला एक कठिन बाधा थी, जिसने उन्हें सीधे गंगा के मैदानों तक पहुंचने से रोका या उनकी गति को धीमा किया। कई युद्धों, किलों और बस्तियों का विकास इसी प्राकृतिक सुरक्षा कवच के कारण संभव हुआ। 

आज वही अरावली, जिसने सदियों तक इस भूभाग को बाहरी खतरों से बचाया, आधुनिक नीतिगत फैसलों के सामने असहाय खड़ी दिखाई दे रही है। राजस्थान के रणथंभौर, सरिस्का, मुकंदरा, जवाई और झालाना जैसे अभ्यारण इसी अरावली की देन है। नई परिभाषा में इनमें से अधिकांश को खोद दिया जाएगा। अरब सागर से उठने वाला मानसून अरावली के कारण पाकिस्तान तक नहीं पहुंच पाता है।

यह सवाल भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को मंजूरी क्यों दी। इसके पीछे तर्क यह दिया जा रहा है कि एक स्पष्ट और मापक परिभाषा के अभाव में विकास परियोजनाएं अटक रही थीं, राज्यों को राजस्व का नुकसान हो रहा था और खनन गतिविधियां नहीं हो पा रही थीं। अदालत ने तकनीकी स्पष्टता के नाम पर 100 मीटर का मानक स्वीकार कर लिया, ताकि नियमों की व्याख्या में एकरूपता लाई जा सके। आलोचकों का कहना है कि पर्यावरण को केवल मीटर और आंकड़ों में बांधकर नहीं देखा जा सकता। 

प्रकृति की भूमिका उसकी निरंतरता, फैलाव और इकोलॉजी डिजाइन में होती है। अरावली की 1 लाख 60 हजार टीलों में से 25 फीसदी को नष्ट किया जा चुका है, यदि सुप्रीम कोर्ट की मंजूरी लागू हुई तो महज 1 हजार 33 पहाड़ियां ही बच पाएंगी। कोर्ट की अनुमति जारी रही तो अलवर, सीकर, सवाईमाधोपुर, जयपुर, अजमेर, भीलवाड़ा, उदयपुर, प्रतापगढ़, पाली, जोधपुर, जालौर, डूंगरपुर, बासंवाड़ा समेत 27 जिलों में खनन कार्य प्रदेश की प्राकृतिक रचना को नष्ट कर देगा।

सरकार की संभावित नीति भी इसी आर्थिक तर्क के इर्द-गिर्द घूमती दिखाई देती है। खनन से राजस्व बढ़ेगा, उद्योगों को कच्चा माल मिलेगा और रोजगार के अवसर पैदा होंगे। यह एक कथा है, जिसे सरकार के मुख से खनन माफिया द्वारा बार-बार दोहराया जाता है। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि अल्पकालिक राजस्व के बदले दीर्घकालिक पर्यावरणीय नुकसान की कीमत कई गुना ज्यादा होती है। जब भूजल नीचे चला जाएगा, खेती प्रभावित होगी, लोग पलायन करेंगे और स्वास्थ्य संकट बढ़ेगा, तब वही राजस्व नगण्य साबित होगा। 

अरावली में खनन का अर्थ है राजस्थान की नदियों का सूखना, कुओं और बावड़ियों का इतिहास बन जाना और ग्रामीण अर्थव्यवस्था का बुरी तरह से टूटना। यह पर्वतमाला वर्षा जल को रोककर धीरे-धीरे धरती में उतारती है, जिससे भूजल रिचार्ज होता है। अरावली में खनन से पहाड़ों की परतें खुलेंगी, चट्टानें टूटेंगी और वह प्राकृतिक स्पंज नष्ट हो जाएगा, जिसने सदियों तक पानी को धरती में रोके रखा है।

यह पूरा मामला केवल एक कानूनी या तकनीकी बहस नहीं है, बल्कि यह उस सोच का प्रतिबिंब है, जिसमें विकास और पर्यावरण को एक-दूसरे का विरोधी मान लिया गया है। अरावली के साथ हो रहा यह प्रयोग आने वाले समय में जंगलों, नदियों और पहाड़ों के लिए भी एक खतरनाक मिसाल बन सकता है। यदि आज 100 मीटर के नाम पर 11 हजार से अधिक पहाड़ी संरचनाएं खत्म मानी जा सकती हैं, तो कल किसी और प्राकृतिक धरोहर के लिए कोई नया मानक गढ़ा जा सकता है और 100 मीटर से बड़ी पहाड़ियों को भी खोदा जाएगा।

प्रश्न यह नहीं है कि खनन होगा या नहीं, बल्कि यह है कि हम किस कीमत पर विकास चाहते हैं। अरावली का कानूनी खनन पानी, हवा, मिट्टी और जीवन पर तेज गति से असर दिखाएगा। यह फैसला हमें सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हम इतिहास, भूगोल और भविष्य तीनों को दांव पर लगाकर केवल तात्कालिक लाभ की राह चुन रहे हैं।

यदि आज अरावली नहीं बची, तो आने वाली पीढ़ियों के पास पछतावे के अलावा कुछ नहीं बचेगा, और यही इस पूरे प्रकरण की सबसे बड़ी त्रासदी होगी। इसे बचाने के लिए खड़ा होना होगा, लड़ना होगा और आने वाली पीढ़ियों को सुरक्षित, समृद्ध, प्राकृतिक अरावली देने के लिए हमारा आज बलिदान करना होगा।


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