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VB G-Ram-G Bill नाम बदला, आत्मा बदली?

 


(One Shot | Rural Employment | Rights vs Scheme)

Ram Gopal Jat

जब किसी अधिकार आधारित कानून को हटाकर नए नाम और नई भाषा के साथ पेश किया जाता है, तो सवाल सिर्फ शब्दों का नहीं होता, सवाल सत्ता की मंशा का होता है। MGNREGA ऐसा ही एक कानून था—जो किसी सरकार की कृपा नहीं, बल्कि ग्रामीण भारत का कानूनी हक़ (Legal Right) था। अब उसकी जगह लाने की तैयारी है Viksit Bharat–Guarantee for Rozgar and Ajeevika Mission (Gramin) Bill यानी VB-GRAMG। दावा है कि यह ज्यादा आधुनिक है, ज्यादा प्रभावी है और ज्यादा काम देगा। लेकिन असली सवाल यह है—क्या यह सच में गारंटी है, या गारंटी का प्रबंधित संस्करण (Managed Welfare)?

MGNREGA की ताक़त इसकी डिमांड-ड्रिवन प्रकृति (Demand Driven Model) में थी। गांव का कोई भी परिवार जब चाहे काम मांग सकता था और सरकार बाध्य थी कि उसे 100 दिन का रोजगार दे। मजदूरी का पूरा बोझ केंद्र सरकार उठाती थी और ग्राम पंचायतें स्थानीय ज़रूरतों के हिसाब से काम तय करती थीं। यही कारण था कि यह योजना नहीं, बल्कि अधिकार आधारित कानून (Rights-Based Law) कहलाती थी।

VB-GRAMG पहली नज़र में आकर्षक लगता है। काम के दिन 100 से बढ़ाकर 125 करने का वादा, ग्रामीण इंफ्रास्ट्रक्चर, जलवायु अनुकूलन और आजीविका से जुड़े एसेट्स की बात—सब कुछ विकासोन्मुख दिखाई देता है। लेकिन इसी चमकदार पैकेजिंग के भीतर असली बदलाव छुपा है। नया बिल 60 दिनों का अनिवार्य ब्रेक जोड़ता है, जो खेती के पीक सीज़न में लागू होगा। यानी जिस समय ग्रामीण मज़दूरों को वैकल्पिक काम की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है, उसी समय उन्हें काम से बाहर कर दिया जाएगा।

सबसे बड़ा परिवर्तन फंडिंग मॉडल में है। MGNREGA में मजदूरी की ज़िम्मेदारी केंद्र की थी, जबकि VB-GRAMG में इसे केंद्र प्रायोजित योजना (Centrally Sponsored Scheme) की शक्ल दी जा रही है, जहाँ राज्यों को मजदूरी का बड़ा हिस्सा खुद उठाना होगा। इसका सीधा मतलब है कि रोजगार अब ज़रूरत से नहीं, बल्कि बजट अलोकेशन (Budget Ceiling) से तय होगा। अगर राज्य के पास पैसा नहीं, तो काम भी नहीं—चाहे गांव भूखा क्यों न हो।

यही वह बिंदु है जहाँ “गारंटी” कमजोर पड़ जाती है। अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज़ (Jean Drèze) पहले ही चेतावनी दे चुके हैं कि अगर काम मांगने से नहीं, बल्कि केंद्र की मंज़ूरी से मिलेगा, तो गरीब की कानूनी ताक़त खत्म हो जाती है। तमिलनाडु जैसे राज्यों का आकलन है कि मौजूदा रोजगार स्तर बनाए रखने के लिए उन्हें हर साल हजारों करोड़ रुपये अतिरिक्त खर्च करने होंगे। नतीजा साफ है—राज्य रोजगार देने से बचेंगे और मजदूर चुपचाप बाहर हो जाएंगे।

नाम बदलने की राजनीति भी अनदेखी नहीं की जा सकती। महात्मा गांधी से जुड़ा कानून हटाना सिर्फ प्रशासनिक निर्णय नहीं है, यह सांकेतिक राजनीति (Symbolic Politics) है। यह उस ऐतिहासिक स्मृति को मिटाने की कोशिश है, जिसमें रोजगार एक हक़ था, एहसान नहीं।

VB-GRAMG बड़ी परियोजनाओं और एसेट क्रिएशन पर ज़ोर देता है, लेकिन ग्रामीण भारत के लिए MNREGA सिर्फ सड़क या तालाब नहीं था, बल्कि तुरंत नकद सहारा (Immediate Wage Support) था। ICAR और PARI जैसे अध्ययनों से साफ है कि एसेट्स का लाभ सालों बाद मिलता है, जबकि मज़दूर को आज की मजदूरी चाहिए।

आख़िर में सवाल यही है—क्या यह सुधार है, या अधिकार का संकुचन?

अगर काम की मांग की गारंटी नहीं, अगर फंडिंग अनिश्चित है और अगर पंचायतों की भूमिका सीमित है, तो 125 दिन का वादा भी खोखला साबित होगा। ग्रामीण भारत को नारे नहीं, भरोसे चाहिए। और भरोसा सिर्फ एक चीज़ से आता है—कानूनी गारंटी (Enforceable Right) से, न कि बदले हुए नाम और चमकदार घोषणाओं से।


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