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भारत के किसानों को मिला रूस यूक्रेन युद्ध का लाभ

रूस यूक्रेन युद्ध के कारण भारत के किसान अपनी पैदावार बेचकर बड़ा फायदा उठा रहे हैं। खासकर वे किसान जो गेंहू की खेती करते हैं। लंबे समय बाद जौ और गेंहू की खेती किसानों के लिए फायदे का सौदा साबित हो रही है। जिन तीन कृषि कानूनों की खिलाफत करते हुए कथित तौर पर किसान 13 महीनों तक दिल्ली की सीमाओं पर बैठे रहे थे, बाद में केंद्र सरकार को तीनों कानून वापस लेने पड़े थे, उन्हीं किसानों को इस वक्त जो गेंहू की पैदावार फायदे का सौदा साबित हो गई है। हालांकि, भारत सरकार के खजाने में जाने वाले गेंहू की तादात में भी बड़े पैमाने पर कमी आई है। तीन कृषि कानूनों से क्या फायदा होने वाला था, जिसके चलते सुप्रीम कोर्ट की कमेटी को देश के 86 प्रतिशत किसान संगठनों ने फायदे के कानून करार दिया था और सरकार उन कानूनों को वापस लेने को क्यों मजबूर हुई, इसका जिक्र आगे करेंगे, लेकिन उससे पहले इस मुद्दे पर बात करते हैं कि कैसे रूस व यूक्रेन युद्ध के कारण भारत के जौ गेंहू पैदा करने वाले किसानों को बड़े स्तर पर लाभ मिल रहा है। भारत सरकार के एमएसपी पर खरीद आंकड़ों पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि साल 2005—06 के वक्त अप्रैल से जून तक सरकार ने 148 लाख टन गेंहू खरीदा था। उसके बाद अगले साल केवल 92 लाख टन खरीदा गया। यूपीए की सरकार में गेंहू की एमएसपी पर खरीद सबसे अधिक 2012—13 में हुई, जब केंद्र सरकार ने 382 लाख टन गेंहू क्रय किया था। उसी यूपीए की पहली सरकार में सर्वाधिक 2009—10 में 254 लाख टन गेंहू एमएसपी पर खरीदा गया था। इसी तरह से मोदी की पहली सरकार में साल 2018—19 में 358 लाख टन गेंहू की खरीद सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य पर की थी। यह आंकड़ा लगातार बढता जा रहा था। उसके बाद अब तक का सबसे अधिक गेंहू साल 2021—22, यानी पिछले वित्त वर्ष में 433 लाख टन खरीद किया गया। किंतु इस बार अब तक, जबकि अप्रैल का महीना गुजर चुका है और मई की 10 तारीख हो चुकी है, तब तक सरकार केवल 185 लाख टन ही खरीद कर पाई है। ऐसा नहीं है कि सरकार खरीद ही नहीं रही है। सरकार खरीदने को तैयार बैठी है, लेकिन किसान सरकार को बेचना ही नहीं चाहते हैं। क्या किसान सरकार से नाराज हैं? क्या सरकार समय पर भुगतान नहीं करती है? क्या कृषि कानूनों के कारण सरकार व किसानों के बीच कोई मतभेद हैं? ऐसा क्या कारण है कि सरकार मंड़ियां लगाकर बैठी है और किसान अपना गेंहू सरकार के बजाए बाहर दलालों को बेच रहे हैं? सरकार के तीन कृषि कानूनों का असर तो क्या रहा, यह दूसरी बात है, लेकिन असल कारण यह है कि इस साल भारत ने गेंहू का रिकॉर्ड निर्यात किया है। भारत सरकार कहती है कि इस वर्ष एक करोड़ टन गेंहू निर्यात किया जाएगा, जो पिछली साल के मुकाबले 30 लाख टन अधिक है। रूस यूक्रेन युद्ध से उपजे वैश्विक संकट से पैदा हुई मांग के बीच भारत ने इस साल, यानी 2022-23 के दौरान कुल 1 करोड़ टन गेहूं के निर्यात का लक्ष्य तय किया है। इसमें से अकेले मिश्र को 30 लाख टन गेहूं के निर्यात का लक्ष्य रखा गया है। साल 2020-21 तक दुनिया भर में हो रहे गेहूं के व्यापार में भारत का हिस्सा बहुत कम रहा था। तब भारत ने केवल 2 लाख टन गेंहू निर्यात किया था। पिछले साल अपनी हिस्सेदारी बढ़ाते हुए भारत ने 70 लाख टन गेहूं का निर्यात किया था, जिसकी कीमत करीब 2 बिलियन अमेरिकी डॉलर थी। हालांकि, इसमें से 50 फीसदी गेहूं केवल बंगलादेश को निर्यात किया गया था। अफ्रीकी देश मिश्र अपनी जरुरतों का 80 फीसदी गेंहू रूस व यूक्रेन से आयात करता था, लेकिन ढाई महीने से जारी युद्ध के कारण वहां से गेंहू आपूर्ति बंद हो गई है, जिसके कारण मिश्र इस बार भारत का गेंहू खरीद रहा है। रूस व यूक्रेन मिलकर दुनिया का कुल 28 प्रतिशत गेंहू निर्यात करते हैं, किंतु इस बार उनका गेंहू दुनिया को मिल ही नहीं रहा है, जिसके चलते भारत के गेंहू की डिमांड बढ़ गई है। यही कारण है कि भारत सरकार द्वारा निर्धारित गेंहू की एमएसपी 2015 रुपये प्रति क्विंटल के बजाए किसानों को खुले बाजार में 2700 से 3000 रुपये प्रति क्विंटल तक भाव मिल रहा है। ऐसे में दलालों ने किसानों से उनके खेत में ही गेंहू का सौदा कर लिया है। परिणाम यह हुआ कि किसान अपनी उपज लेकर मंड़ी तक पहुंच ही नहीं पा रहे हैं। इस साल भारत ने 27000 रुपये प्रति टन के हिसाब से गेंहू निर्यात किया है, यानी 350 डॉलर प्रति टन, जबकि इसमें बंदरगाह से विदेश में पहुंचने तक करीब 4500 से 6000 रुपये प्रति टन के हिसाब से और जुड़ जाते हैं। शिकांगो ट्रेड एक्सचेंज में गेंहू का भाव 407 डॉलर प्रति टन है, यानी करीब 31000 रुपये प्रति टन। अब आप समझिये, यदि किसान को 2015 रुपये की सरकारी खरीद के बजाए घर बैठे ही 2700 से 3000 रुपये प्रति क्विंटल मिल रहे हैं, तो वह मंड़ी जाकर अपनी उपज क्यों बेचेगा? हालांकि, इसका सरकारों को नुकसान भी है। सरकार हर साल गेंहू खरीद करती है और उसको अंत्योदय योजना के तहत 2 रुपये प्रति किलो के हिसाब से बीपीएल परिवारों को दिया जाता है। साथ ही केंद्र सरकार प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत देश के 80 करोड़ लोगों को पिछले दो साल से प्रति व्यक्ति के हिसाब से 5 किलो गेंहू या चावल प्रति माह नि:शुल्क दे रही है, यह योजना फिलहाल जून तक है, उसके बाद इसको आगे बढ़ाया भी जा सकता है। यह योजना कोरोना के कारण शुरू की गई थी, अब कोरोना लगभग खत्म हो चुका है। ऐसे में सरकार इस योजना को बंद भी कर सकती है और सीमित भी कर सकती है। भारत के गेंहू की वैश्विक स्तर पर मांग बढ़ने के कारण सरकार के पास स्टॉक नहीं होगा, तो सरकार या तो इस योजना में कटौती करेगी, या उसको महंगे दामों पर बाजार से खरीद करनी पड़ेगी, जिससे उसके बजट पर विपरीत असर होगा, लेकिन इतना तय है कि रूस यूक्रेन युद्ध के कारण दुनिया में भारत के गेंहू की मांग बढ़ी है, जिसके कारण भारत का किसान फायदे में रहेगा। अब बात अगर तीन कृषि कानूनों के फायदों की हो तो सरकार यही तो चाहती थी, कि कोई भी किसान, किसी भी कारोबारी के साथ साझेदारी कर अपनी पैदावार उसको ​बेच सकता है। इसके लिए बकायदा एग्रीमेंट करने का प्रावधान था। किसान चाहता तो अपनी जमीन ठेके पर दे सकता था और चाहता तो वह खुद पैदा करके कंपनी को बेच सकता था। इससे फायदा यह होता कि जैसे आज निर्यात बढ़ने के कारण दलालों ने खेत से गेंहू को खरीद ​लिया है, वैसे बिचोलिये किसान की पैदावार खेत से ही खरीद कर लेते, जिसके कारण उनको मंड़ी में जाने और सरकारी तुलाई का इंतजार नहीं करना पड़ता। दूसरा लाभ यह था कि प्राकृतिक जोखिम का मुकाबला किसान को नहीं करना पड़ता, क्योंकि जब कोई भी कंपनी किसान के साथ करार करती, तभी उसको यह शर्त माननी पड़ती कि प्रकृति की वजह से फसल खराब होने का जिम्मा कंपनी का होगा। यदि करार को कंपनी बीच में तोड़ती, तो उसको करार के अनुसार किसान को पूरा पैसा चुकाना होता, जबकि किसान यदि करार को बीच में ही खत्म करता तो उसे किसी तरह का भुगतान कंपनी को नहीं करना होता। तीसरी बात यह थी कि व्यापारी अपने पास कितना भी स्टॉक कर सकते हैं। इससे किसान को नुकसान नहीं होने वाला था, क्योंकि उसकी फसल समय पर बिक चुकी होती, उसको समय पूरा दाम मिल चुका होता, लेकिन कारोबारी उसको स्टॉक में रखता या बाजार में बेचता, इससे किसान की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ने वाला था। कहा जाता है कि सिंघु बॉर्डर, गाजीपुर बॉर्डर और शाहजहांपुर बॉर्डर पर बैठे किसानों में से अधिकांश लोग तो राजनीति करने वाले थे, जो हमेशा किसी भी धरने—प्रदर्शन में पाए जाते हैं, जिनको केंद्र सरकार ने आंदोलनजीवी करार दिया था। इन धरनों में शामिल बहुत से लोगों ने पंजाब और उत्तर प्रदेश चुनाव में कूदकर इस धारणा को साबित भी किया है। दूसरी बात यह है कि जिस तरह से पंजाब में खालिस्तानी समर्थक देश के खिलाफ गतिविधि करने का मौका ढूंढते रहते हैं, वही लोग सिंघु बॉर्डर पर भी बैठे थे, जिनका खेती और किसानी से कोई लेना देना नहीं था। इसकी रिपोर्ट लगातार केंद्र सरकार को गुप्तचर एजेंसिया दे रही थीं। बताया जाता है कि ये लोग विदेशी ताकतों के हाथों अपने ही देश के खिलाफ बड़े स्तर पर साजिशें करने में लगे हुए थे। यही कारण था कि केंद्र सरकार ने 13 महीने बाद तीनों कानूनों को वापस लेकर खालिस्तानी समर्थकों को सिंघु बॉर्डर से हटाया। असली किसानों को तो इस साजिश का पता भी नहीं था, उनको तो ये लोग केवल ढाल बनाकर अपने मंसूबे पूरे करना चाहते थे। यही कारण रहा कि जब सुप्रीम कोर्ट की कमेटी की रिपोर्ट आई, तब 86 प्रतिशत असली किसान संगठनों ने तीनों कानूनों को किसानों के पक्ष में करार दिया था।

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