मोदी का कमाल, भारत को मिलेगी यूएन में स्थाई सीट

Ram Gopal Jat
जिन लोगों को मोदी पर भरोसा है, उनको लगता है कि मोदी हैं तो सबकुछ मुमकिन है, और केवल विरोध करना है, वो आलोचना का मौका ढूंढ़ते हैं। वैसे मोदी खुद कोई मौका नहीं छोड़ते, और ना ही वह दुश्मन को मौका देते। लिहाजा, जब मोदी के कार्यों की विश्वभर में प्रसंशा होती है, तो भारत का एक वर्ग मुंह बंद करके बैठ जाता है, तो उनके समर्थक जश्न मनाने लगते हैं। अब मोदी अपने समर्थकों को जश्न मनाने का मौका देने की तरफ बढ़ रहे हैं। भले ही आलोचक इस बात पर विश्वास नहीं करें, लेकिन विश्व के कई शक्तिशाली देश अब मोदी के हर कदम को ठोस और स्थाई मान रहे हैं, तो मोदी भी भारत को स्थाई करने के लिये लग गये हैं। भारत की विश्व समुदाय में बढ़ती ताकत का लोहा अब अमेरिका से लेकर चीन भी मानने लगे हैं। इसी का परिणाम है कि भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद, यूएनएससी में स्थाई सीट मिलने जा रही है। यह इतना आसान नहीं है, जबकि भारत को आजाद हुये पूरे 75 साल हो चुके हैं, लेकिन आजतक भारत स्थाई सीट के लिये संघर्ष ही कर रहा है। यह संघर्ष अब कुछ समय का और है। खबर आई है कि अबतक भारत की स्थाई सीट के लिये वीटो करने वाला चीन भी अब भारत के लिये यूएन में वोट करने वाला है। आखिर यह चमत्कार क्यों हो रहा है? इस चमत्कार का शिल्पकार कौन है और चीन क्यों भारत के लिये तैयार हुआ है? पूर मामले को समझेंगे, लेकिन उससे पहले आप यह जान लीजिये कि हाल ही में भारत के लिये ​चीन को मनाने का काम किसने किया है?
लिहाजा, भारत में रूस के राजदूत डेनिस अलीपोव ने भारत का पक्ष लेते हुये चीन को कहा कि बहुपक्षीय मंचों पर उनके देश को अलग-थलग करने के प्रयासों का समर्थन नहीं करने के लिए रूस, भारत की सराहना करता है और दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार बढ़ रहा है। अलीपोव ने यह भी कहा कि ब्रिक्स के विस्तार के विचार को डीजिटल माध्यम से समूह के हालिया शिखर सम्मेलन में 'सैद्धांतिक समर्थन' मिला है, लेकिन उन्होंने कहा कि मामले में कोई भी जल्दबाजी प्रतिकूल हो सकती है। अलीपोव ने रूसी प्रकाशन ‘स्पूतनिक’ से बातचीत में कहा कि ऐसी प्रक्रिया के सिद्धांतों, मानकों और प्रक्रियाओं के बारे में विस्तार से सोचना आवश्यक है, जिसे चर्चा और आम सहमति से विकसित किया जाना चाहिए।
भारत और रूस के संबंध में बारे में अलीपोव ने कहा कि यह साझेदारी एक गहरी रणनीतिक नींव पर टिकी है, जो न केवल मजबूत ऐतिहासिक जड़ों पर आधारित है, बल्कि भविष्य की वैश्विक व्यवस्था के समान दृष्टिकोण पर भी आधारित है। रूस ने कहा है कि हम यूक्रेन की घटनाओं के वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन के लिए भारत के आभारी हैं। स्पष्ट रूप से वे मौजूदा भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक स्थिति की पृष्ठभूमि को समझते हैं ... वे वर्तमान वैश्विक खाद्य और ऊर्जा संकट की उत्पत्ति में गैर कानूनी प्रतिबंधों की विनाशकारी भूमिका देखते हैं। रूस ने नाम लिये बिना कहा है कि अमेरिका ने बहुपक्षीय मंचों पर रूस को अलग-थलग करने के प्रयास किये, लेकिन भारत उनका समर्थन नहीं किया और अन्य प्रमुख वैश्विक तथा क्षेत्रीय समस्याओं की अनदेखी कर अंतरराष्ट्रीय एजेंडे को संघर्ष तक सीमित करने की पश्चिम के रूख की आलोचना की है।
अलीपोव की टिप्पणी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन द्वारा यूक्रेन संकट की पृष्ठभूमि में वैश्विक ऊर्जा और खाद्य बाजारों की स्थिति पर चर्चा करने के कुछ दिनों बाद आई है। इससे साफ हो गया है कि रूस इस बात को समझता है कि भारत का उसके लिये क्या महत्व है, जबकि भारत के इस दंबग कदम से पश्चिम की शक्तियां बहुत छटपटा रही हैं। जून महीने की रिपोर्ट बताती है कि भारत ने इराक के बाद रूस से सर्वाधिक कच्चा तेल आयात किया है। जबकि रूस के हमले से पहले भारत का करीब 1.5 फीसदी तेल आयात होता था, वह भी युद्ध शुरू होने के बाद शून्य हो गया था। बाद में भारत सरकार ने रूस से तेल आयात बढ़ाया और आज चीन के बाद भारत ही रूस का सबसे अधिक तेल खरीद रहा है। रूस भी भारत को करीब 30 डॉलर सस्ता तेल बेच रहा है। भारत को हर महीने 2.5 अरब डॉलर का फायदा हो रहा है।
अमेरिका व यूरोप ने इसको रोकने के खूब प्रयास किये, लेकिन भारत ने तेल खरीद बंद करने के बजाये उसको हर महीने बढ़ाया है, जिसके कारण एक ओर पश्चिमी देश दुखी हैं, तो रूस से भारत की मित्रता और प्रगाढ़ हुई है। जबकि चीन और रूस की मित्रता के कारण भारत और चीन भी पहले के मुकाबले अधिक करीब आने लगे हैं। यही कारण है रूस अब यूएन में भारत को स्थाई सीट दिलाने के लिये चीन को मना रहा है। चीन को भी पता है कि यदि भारत गलती से अमेरिका के पाले में चला गया तो वह काफी कमजोर हो जायेगा, जिसका खामियाजा उसको उठाना होगा। इसलिये चीन भी रूस के कहने पर यूएन में भारत को स्थाई सीट दिलाने में रोडा नहीं अटकायेगा। असल बात तो यह है कि चीन को रूस ने अमेरिका व ब्रिटेन का डर भी दिखाया है। यूएनएससी में इस वक्त अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस व चीन के रूप में पांच देश हैं, जिनमें से चीन ही भारत के खिलाफ वोटिंग करता है, चीन के वीटो के कारण कई बरसों से भारत का प्रस्ताव खारिज किया जा रहा है। हालांकि, चीन इतनी आसानी से भारत को यूएन में स्थाई सदस्य नहीं बनने देगा, लेकिन रूस—यूक्रेन युद्ध के बाद वैश्चिक स्थितियों में काफी बदलाव आया है।
इस युद्ध के कारण जहां अमेरिका व यूरोप एक बार फिर से प्रगाढ़ रिश्ते बना रहे हैं, तो रूस व चीन की मित्रता भी मजबूत हुई है, जबकि भारत ने रूस के खिलाफ नहीं जाकर उसको मजबूत मित्रता का संदेश दिया है। इस वक्त मोटे तौर पर​ देखा जाये तो एक तरफ अमेरिका व यूरोपीयन देश हैं, तो दूसरी तरफ रूस, चीन व भारत जैसे देश हैं, जो अमेरिकी गठजोड़ पर भारी पड़ते दिखाई दे रहे हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति की अदूरदर्शी सोच का ही परिणाम है कि भारत को वह रूस के खिलाफ वोटिंग करने को तैयार नहीं कर पाया। अब सवाल यह उठता है कि आखिर चीन इतनी आसानी से भारत को यूएन का सदस्य क्यों बनने देगा? यदि भारत यूएन का सदस्य बना तो चीन की पाकिस्तान में घुपपेठ पर ब्रेक लग जायेगा, जबकि वहां पर चीन की सीपेक जैसी अति महात्वाकांक्षी योजना मूर्त रूप ले रही है। साथ ही जिस गिलगिट—बाल्टिस्तान के अकूत प्राकृतिक भंडार के लिये वह इस प्रांत को पाकिस्तान से 99 साल की लीज पर ले रहा है, वह भी संभव नहीं होगा, तो फिर चीन कैसे तैयार होगा? यह दोनों ही सपने भारत की आकांक्षाओं में रुकावट हैं।
वर्तमान वैश्विक दृश्य को देखेंगे तो पायेंगे कि चीन को रोकने के लिये अमेरिका किसी भी स्तर तक जाने को तैयार है। यहां तक कि चीन की विस्तारवादी नीति को थामने के लिये अमेरिका, ताइवान तक को सहायता दे रहा है, जिसको वह एक देश के रूप में मान्यता तक नहीं देता। जापान में अमेरिका का सबसे बड़ा सैनिक अड्डा है, जो चीन के सिर पर बैठा है। पाकिस्तान पर भले ही चीन की टेढी नजर हो, लेकिन यहां पर भी अमेरिका की मर्जी के बिना चीन नहींं घुस पायेगा। इधर, भारत एक ऐसा उभरता हुआ देश है, तो आने वाले दो—तीन साल में विश्व की तीसरी सबसे बड़ी आर्थिक ताकत बन जायेगा। अमेरिका और चीन के बाद भारत ही सबसे शक्तिशाली देश है। इसलिये भारत को अपने साथ दोनों रखना चाहेंगे।
यूएन में किसी भी विषय पर वीटो के लिये पांच में से कम से कम एक देश का वीटो होना जरुरी है। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस एक साथ आ जाते हैं, जबकि रूस व चीन एक तरफ होते हैं। मान लीजिये कल यदि चीन ने ताइवान पर हमला किया, तो यूएन में वोटिंग के समय रूस उसका साथ देगा, लेकिन बाकि सभी खिलाफ वोटिंग करेंगे और ऐसे समय में को तटस्थ देश नहीं होगा, जो वोटिंग में हिस्सा नहीं लेकर दोनों पक्षों को ही गलत ठहराने का काम कर सके। ऐसे समय में भारत ही ऐसा सदस्य होगा, जो अनुपस्थित रहकर महात्वाकांक्षी चीन के लिये परोक्ष रुप से काम आ सकता है। वैसे भी देखा जाये तो भारत व चीन के बीच सीमा विवाद के अलावा ऐसा कोई कारण नहीं है, जो टकराव किया जाये। यदि चीन सीमा पर यथास्थिति रखते हुये भारत को यूएन में स्थाई सीट के लिये तैयार हो जाता है, तो यह उसके लिये भी बहुत फायदे का सौदा होगा। भारत के साथ ही ब्राजील को भी सीट मिलेगी। ऐसे में सदस्यों की संख्या 7 हो जायेगी, जिनमें से 4 अमेरिका की तरफ होंगे, तो चार सदस्य चीन की ओर, जो उसको हर बार बचाने का काम करेंगे। हालांकि, जापान और जमर्नी को भी स्थाई सदस्य बनाने के लिये कहा जा रहा है। जिसके चलते भी चीन को भारत का साथ देने की मजबूरी होगी।
हालांकि, भारत को यदि यूएन में स्थाई सीट मिली, तो यह बात भी तय है कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर वापस लेने में भारत 100 दिन भी नहीं लगायेगा। यूएन के स्थाई देशों के पास सबसे बड़ी ताकत यह है कि वे खुद तो किसी भी देश के खिलाफ एक्शन ले लेते हैं, जबकि दूसरे किसी देश के हमले के बाद उसपर सेंक्शन लगाकर बर्बाद कर देते हैं। इसलिये भारत आजतक भी पीओके को वापस लेने की हिम्मत नहीं जुटा पाया है। चीन को पता है कि यदि भारत ने पीओके वापस लिया तो उसके सीपेक के सपने तो धराशाही होंगे ही, साथ ही अक्साई चीन को लेकर भारत भारत कोई एक्शन ले सकता है। इसलिये चीन इतनी आसानी से भारत को स्थाई सीट देना नहीं चाहेगा, किंतु समय और परिस्थितियां कुछ भी करवा सकती हैं। ताइवान का मामला चीन के सिर पर खड़ा है, जो भारत के सहयोग के बिना संभव ही नहीं है।

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