मोदी के समर्थन में पु​तिन ने तोड़ दी जिनपिंग से दोस्ती

Ram Gopal Jat
इस समय पूरी दुनिया बहुत बड़े उलटफेर के दौर से गुजर रही है। एक तरफ रूस ने यूक्रेन पर हमला कर रखा है, तो दूसरी ओर चीन व अमेरिका के बीच ताइवान को लेकर तलवारें खिंच गई हैं। अमेरिका ने पहले युक्रेन का समर्थन करने का ऐलान किया तो रूस ने उसपर हमला कर दिया, अब अमेरिका ने ताइवान को हड़पने की फिराक में बैठे चीन पर आर्मी एक्शन का वादा कर दिया तो ड्रेगन ने भी रूस की तरह ताइवान पर हमला करने का ऐलान कर दिया है। पिछले पांच महिनों से आप देख रहे होंगे कि अमेरिका ने जहां बार बार भारत को यूक्रेन के पक्ष में बोलने को कहा, लेकिन भारत नहीं बोला। भारत ने अपनी गुट निरक्षेप नीति पर कायम रहते हुये दो देशों की लड़ाई में पड़ने से इनकार कर दिया, तो चीन ने खुलकर रूस का साथ दिया है, क्योंकि चीन—रूस बरसों पुराने दोस्त हैं। इन दोनों की दोस्ती वैसे ही है, जैसे अमेरिका व नाटो देशों की है। नाटो गठबंधन के तहत अमेरिका पर हमला पूरे नाटो पर हमला माना जाता है, तो यूरोप के इन देशों की सुरक्षा का अमेरिका ने वादा कर रखा है। किंतु चीन व रूस की दोस्ती नैसर्गिक है, जिन्हें अमेरिका जैसी महाशक्ति से बचने के लिये एक होना पड़ा है। यह माना जाता है कि यदि चीन किसी से युद्ध करेगा, तो रूस उसका साथ देगा और यदि रूस पर विपदा आयेगी, तो चीन स्वत: ही उसके साथ खड़ा होगा। यह बात यूक्रेन पर हमले के दौरान देखने को भी मिली है। अब चीन जहां ताइवान पर हमला करने की योजना बना रहा है, तो कहा जा रहा है कि रूस भी उसकी पूरी मदद करेगा। किंतु रूस ने उसी चीन को भारत के लिये आंख दिखा दी हैं, जो हमेशा की उसकी मदद को तैयार रहता है।
भारत के लिये रूस ने ऐसा ऐलान क्यों किया, इसकी बात करेंगे, लेकिन उससे पहले आपको यह जान लेना चाहिये कि आखिर क्यों चीन आज ताइवान को हड़पने पर आमादा है? चीन और ताइवान का इतिहास भारत की आजादी के इतिहास से दो साल छोटा है। भारत 1947 में आजाद हुआ था, जबकि चीन 1949 में ताइवान से अलग होकर कम्यूनिस्ट पार्टी के कब्जे में आ गया था। ताइवान में राष्ट्रवादी सरकार है। वास्तव में ताइवान आज भी चीन का हिस्सा नहीं है। ताइवान का अपना झंडा है, अपनी सरकार और अपनी सेना है। यहां लोग सीधे लोकतांत्रितक तरीके से अपने राष्ट्रपति चुनते हैं। ताइवान का आधिकारिक नाम रिपब्लिक ऑफ चाइना है। साल 1949 में चीन के गृह युद्ध में चीनी कम्युनिस्टों ने चीनी राष्ट्रवादियों को हरा दिया था, जो भागकर ताइवान चले गए थे, जहां उन्होंने अपनी सरकार तो बना ली, लेकिन खुद को एक अलग देश घोषित नहीं किया।
इसके बाद वर्ष 1971 तक ताइवान को संयुक्त राष्ट्र में एक देश की मान्यता मिली हुई थी, लेकिन 1971 के बाद इसे संयुक्त राष्ट्र के रूप में मान्यता नहीं मिली। यह भी दावा किया जाता रहा कि यह चीन का हिस्सा है, लेकिन 1990 में यहां लोकतांत्रिक प्रक्रिया शुरू होने से यह दावा कमजोर हो गया। लोकतंत्र की पैरवी करने वाले कई देश ताइवान को एक देश के रूप में मान्यता देने की बात करते रहे हैं। यह 2.39 करोड़ की आबादी वाले देश की अधिकांश जनसंख्या शहरों में रहती है और यह दुनिया के सबसे घनी जनसंख्या वाला इलाका माना जाता कहा जाता है। क्षेत्रफल के हिसाब से चीन ताइवान से 2656 गुणा अधिक बड़ा है और आबादी के हिसाब से भी 599 गुणा बढ़ा है। चीन व ताइवान के बीच वैसे तो लड़ाई स्वतंत्रता बनाम अधिकार की है, लेकिन इससे इतर बड़ी लडाई अमेरिका व चीन के हितों के टकराव की है। साथ ही ताइवान के 100 अरब डॉलर के चिप, यानी सेमीकंडक्टर कारोबार पर चीन की नजर है। वह इस कारोबार से ना केवल चिप उत्पादन पर कब्जा करना चाहता है, बल्कि इसके सहारे भारत व अमेरिका जैसे देशों को भी झुकाना चाहता है, जो ताइवान की चिप के सबसे बड़े खरीददार हैं। इसके अलावा ताइवान के पास स्थित उन दो द्वीपों की भी लड़ाई,​ जिनपर अमेरिका के सैन्य अड्ड्रे हैं।
भारत भी एक चीन नीति के सिद्धांत को मानता है और औपचारिक कूटनीतिक संबंध नही हैं, लेकिन ताइवान की राजधानी ताइपे में भारत ने कार्यालय जरूर खोल रखा है। साल 2020 में भारत ने मोदी सरकार ने गौरंगलाल दास को ताइवान में बतौर डिप्लोमैट तैनात किया है। इसी तरह नई दिल्ली में भी ताइपे का आर्थिक और सांस्कृतिक केंद्र है। गलवान घाटी में भारत—चीन संघर्ष के पहले भारत-ताइवान के संबंध व्यापार, वाणिज्य, संस्कृति और शिक्षा पर आधारित थे, लेकिन इसके बाद दोनों देशों के बीच संबंधों में बहुत बदलाव आए हैं। देश की सत्ता में काबिज बीजेपी के दो सांसद ताइवान के राष्ट्रपति के शपथ ग्रहण समारोह में वर्चुअल मोड के जरिये शामिल हुए थे, इसपर चीन ने भी प्रतिक्रिया दी थी। चीन के खिलाफ ताइवान कई सालों से तैयारी कर रहा है। उसके सैनिक गोरिल्ला युद्ध में माहिर हैं और उसने कई बार चीन के फाइटर प्लेनों को खदेड़ा है। सैन्य साजों सामान में भी ताइवान के पास कई तरह के अमेरिकी हथियार हैं। हाल ही में अमेरिका ने ताइवान को 10 करोड़ डॉलर के अत्याधुनिक हथियार देने का ऐलान किया है। ताइवान के पास युद्ध को लंबा खींचने के लिए यूक्रेन से कहीं ज्यादा क्षमता है। उसने अपने सैनिकों की सुरक्षा के लिये देश में 833 बंकर बना रखे हैं, जहां पर पूरी सेना को छिपाया जा सकता है। यह स्थिति किसी भी बड़े देश द्वारा छोटे देश पर आक्रमण के लिए आर्थिक और सामारिक हिसाब से ठीक नहीं होती है।
अब बात अगर रूस द्वारा चीन को सहायता देने की करें तो वह निश्चित तौर पर चीन का साथ देगा, किंतु रूस ने यह कहकर चौंका दिया है कि पाकिस्तान के पीओके पर भारत का अधिकार है, और भारत यदि उसको लेना चाहेगा, तो रूस इसका विरोध नहीं करेगा। राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन की प्रधानमंत्री मोदी से मित्रता दो देशों की दोस्ती को दिखाती है, जिसमें दूसरे देशों का कोई दखल नहीं है। यही कारण है कि रूस ने पीओके वापस लेने के भारत के ऐलान का समर्थन किया है। अब सवाल यह उठता है कि जब रूस ने पीओके वापस लेने का समर्थन किया है, तब उसकी चीन से दोस्ती का क्या होगा? क्योंकि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर से ही चीन की 65 बिलियन डॉलर वाली सबसे महात्वाकांक्षी सीपेक योजना गुजर रही है। यदि भारत ने इस हिस्से को वापस अपने कब्जे में ले लिया तो चीन का सपना धराशाही हो जायेगा। इसलिये यह माना जा रहा है कि चीन को रूस नाराज कर भारत का समर्थन क्यों करना चाहेगा। असल बात यह भी है कि चीन के द्वारा रूस से कच्चा तेल ही खरीदा जाता है, जबकि रूस भारत को ना केवल कच्चा तेल बेच रहा है, बल्कि हथियार भी सबसे अधिक बेचता है, जिसके कारण यदि उसको भारत या चीन में से किसी एक को चुनना पड़े तो वह संभवत: भारत को ही चुनेगा। इसी वजह से यह कहा जा रहा है कि रूस के राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन ने चीन योजना को नजरअंदाज कर भारत से दोस्ती को पुख्ता रखने के लिये पीओके का समर्थन किया है।

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