नरेंद्र मोदी का कथन बना विश्व शांति का संदेश

Ram Gopal Jat
सदियों से जिस भारत ने दुनिया को वसुधैव कुटुंबक, यानी पूरी पृथ्वी एक परिवार है कि राह दिखाते हुये शांति और सौहार्द से रहना सिखाया है, उसी भारत ने एक बार फिर से दुनिया पर छाये सबसे बड़े संकट को टालने का बीड़ा उठाया है। विश्व में ​करीब तीन दशक से निर्विवाद रूप से नंबर एक महाशक्ति रहने वाले अमेरिका और तेजी से महाशक्ति बनने की तरफ अग्रसर चीन के बीच ताइवान को लेकर जारी विवाद के बीच भारत ससबे बड़ा शांतिदूत बनकर सामने आया है। इंडोनेशिया की राजधानी बाली में जारी जी—20 शिखर सम्मेलन में जहां अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच 3 घंटे चली बैठक के बाद भी यह तय नहीं हो पाया कि ताइवान को लेकर आगे क्या किया जायेगा, तो दूसरी ओर बीते 9 माह से जारी रूस यूक्रेन युद्ध को लेकर भारत के रूख पर सभी सहमत हो गये हैं। कुछ महीने पहले ही भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और रूस के राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन के बीच हुई द्विपक्षीय वार्ता के समय मोदी ने पुतिन को युद्ध खत्म करने की सलाह देते हुये कहा था कि यह युग युद्ध का नहीं है, बल्कि डेमोक्रेसी, डिप्लोमेसी और डायलॉग का है, जिसके जरिये दुनिया की बड़ी से बड़ी समस्या का समाधान किया जा सकता है। अब मोदी की उसी बात को मानते हुये अमेरिका, चीन समेत सभी जी'—20 के देशों ने सहमति बनाई है।
जी—20 की बैठक में अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडन व चीन के प्रेसिडेंट जिनपिंग के बीच करीब तीन घंटे चली उच्च स्तरीय बैठक में ताइवान संकट, यूक्रेन युद्ध और विश्व में व्यापार को लेकर गहन चर्चा हुई, लेकिन अंतत: दोनों देश इसपर सहमत नहीं हुये कि ताइवान के मामले में क्या किया जायेगा। साथ ही रूस द्वारा यूक्रेन पर हमला किये जाने का हमेशा समर्थन करने वाले चीन ने रूस को लेकर भी कुछ नहीं कहा, मतलब यह है कि वह आगे भी रूस के इस हमले का समर्थन करता रहेगा, जैसा कि बीते 9 महीनों से खुलेआम कर रहा है। चीन के इस रूख से एक बात स्पष्ट हो गई है कि वह भी ताइवान पर सैन्य अभियान करने से चूकने वाला नहीं है। हालांकि, इस बैठक के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन जरुर बदले हुये नजर आये। मीटिंग के उपरांत पत्रकारों से बात करते हुये बाइडेन ने कहा कि चीन को ताइवान पर हमला नहीं करने की चर्चा हुई है, लेकिन बाइडेन पहले की तरह यह नहीं कहा कि यदि चीन ने ताइवान पर हमला किया तो अमेरिका भी चीन के उपर सैन्य कार्यवाही करेगा। इससे पहले क्वाड शिखर सम्मेलन के दौरान इस साल बाइडेन ने सख्त शब्दों में कहा था कि यदि चीन ने ताइवान की सम्प्रभुता पर हमला किया तो अमेरिका भी चीन के उपर हमला करेगा।
पिछने पांच माह के दौरान दोनों देशों के बीच ताइवान को लेकर कई बार टकराव देखते को मिला है। चीन ने अमेरिकी संसद की अध्यक्ष नैंसी पैलोसी की ताइवान यात्रा पर भी गहरी नाराजगी जताई थी, जिसमें यात्रा से पहले इसको टालने को लेकर चीन ने धमकी दी थी, लेकिन अमेरिका नहीं माना और पैलोसी की यात्रा भारी सुरक्षा व्यवस्था के बीच यथावत सम्पन्न हुई। तभी से चीन बुरी तरह से चिढ़ा हुआ है। पिछले दिनों तीसरी बार राष्ट्रपति बनने के बाद जिनपिंग ने सेना के शीर्ष कमांडर्स के साथ बैठक में सेना को युद्ध के लिये तैयार रहने को कहा है। बाली में चल रही जी—20 की बैठक के दौरान बाइडेन व जिनपिंग की मीटिंग के बाद अमेरिका ने चेतावनी दी है कि निकट भविष्य में ही चीन कभी भी ताइवान पर हमला कर सकता है। यह स्थिति बिलकुल वैसी ही है, जैसी यूक्रेन पर रूस के हमले से पहले की थी। तब भी अमेरिका समेत नाटो देशों ने रूस को चिढ़ाने के लिये यूक्रेन पर आक्रमण करने की स्थिति में उसका साथ देने का वचन दिया था, लेकिन जब रूस ने हमला कर दिया तो अमेरिका व नाटो देश पीछे हट गये। नाटो गठबंधन ने कहा कि वह रूस के खिलाफ सैन्य अभियान नहीं करेंगे, बल्कि उसके उपर प्रतिबंध लगाकर कमर तोड़ने का प्रयास किया जायेगा। उस युद्ध से पहले ना तो रूस ने सोचा था कि इतने लंबे समय बाद भी वह जीत नहीं पायेगा और ना ही नाटो गठबंधन ने सोचा था कि इतने लंबे समय तक रूस की सेनाएं यूक्रेन में ठहर पायेगी।
इस युद्ध के दौरान ही अमेरिका की तरफ से कई वैसे ही उकसाने वाले बयान चीन को लेकर दिये गये हैं। हालांकि, अमेरिका इस बात को जानता है कि चीन व रूस में बहुत बड़ा अंतर है। बीते तीन दशक में रूस जहां एक तरह से कमजोर ही हुआ है, तो चीन ने इस दौरान एक दर्जन देशों को पीछे छोड़ते हुये दुनिया का दूसरा सबसे शक्तिशाली देश बन गया है। आज हर मामले में चीन विश्व की दूसरी सबसे बड़ी ताकत है। हालांकि, आबादी के मामले में वह विश्व का नंबर एक देश है। समझने वाली बात यह है कि तमाम लोकतांत्रिक देशों को पीछे छोड़ते हुये चीन जैसा तानाशा देश कैसे दुनिया का नंबर दो शक्ति सम्पन्न देश बन गया है? असल बात है कि इसके पीछे भी अमेरिका जैसे देशों की नासमझी ही अधिक जिम्मेदार है। चीन 11 दिसंबर 2001 को विश्व व्यपार संगठन, यानी डब्ल्यूटीओ का सदस्य बना था।
बात अगर चीन द्वारा ताइवान पर आक्रमण करने की करें तो उसकी हमेशा विस्तारवादी नीति रही है। वह पहले भारत के अक्साई चिन, तिब्​बत से मंगोलिया जैसे क्षेत्रों पर कब्जा कर चुका है। साल 1949 में जब वर्तमान चीन का अस्तित्व में आया था, तब से वहां कम्यूनिस्ट पार्टी का शासन है। 1 अक्टूबर, 1949 को साम्यवादी पार्टी के नेताओं ने एक समाजवादी राज्य के रूप में "लोकतान्त्रिक तानाशाही" की स्थापना की, जिसमें केवल सीसीपी ही वैध राजनीतिक दल था। चिआंग कई-शेक के नेतृत्व वाली चीन की केंद्रीय सरकार को ताईवान में आश्रय लेने के लिए विवश किया गया। जिसपर उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध में अधिकार किया था और वे चीनी गणराज्य, यानी ताइवान की सरकार को वहीं ले गए। दोनों के बीच सैन्य संघर्ष तो 1950 में समाप्त हो गए, लेकिन किसी भी शान्ति संधि पर हस्ताक्षर नहीं किया गए। 1970 के अंतिम वर्षों के बाद से चीन गणराज्य, यानी ताइवान ने अपने नियंत्रण के क्षेत्रों में पूर्ण, बहुदलीय, प्रतिनिधियात्मक लोकतंत्र लागू किया। समाज के सभी क्षेत्रों द्वारा आज ताइवान में सक्रिय राजनीतिक भागीदारी है। ताइवान की राजनीति में मुख्य विवाद ताइवान की औपचारिक स्वतंत्रता बनाम चीन की मुख्य भूमि के साथ अंतिम राजनीतिक एकीकरण प्रमुख मुद्दा है।
बीते 40 साल में चीन इतना ताकतवर हो चुका है कि वह अब ताइवान को जीतना चाहता है। इसलिये वह ताइवान पर आक्रमण करने की धमकी देता है। क्योंकि अब वह दुनिया के टॉप दो देशों में से एक है, इसलिये छोटे देश उसका विरोध भी नहीं कर सकते। अमेरिका की यहां पर दोहरी नीति नहीं है। एक ओर तो वह वन चाइना पॉलिसी को मान्यता देता है, दूसरी तरफ ताइवान को अलग देश का दर्जा भी देता है। जबकि भारत ने बीते तीन साल से चीन की वन चाइना पॉलिसी को पूरी तरह से खारिज कर दिया है। भारत का मानना है कि ताइवान चीन का हिस्सा नहीं है, बल्कि एक स्वतंत्र देश है। अब सवाल यह उठता है कि क्या चीन को केवल ताइवान इसलिये चाहिये कि उसकी सीसीपी की दुश्मन सरकार वहां चली गई थी? असल बात यह है कि वर्तमान में 75 साल पुराना कोई मुद्दा नहीं है। पहली बात तो यह है कि चीन दुनिया को यह दिखाना चाहता है कि वह बहुत शाक्तिशाली देश है। दूसरी बात यह है​ कि ताइवान चिप उद्योग में दुनिया का नंबर एक देश है, जहां से अमेरिका, भारत समेत विश्व के तमाम देशों में बड़े पैमाने पर चिप का निर्यात किया जाता है, जिसपर चीन कब्जा करना चाहता है। चीन को भी ताइवान बड़े पैमाने पर​ चिप निर्यात करता है, लेकिन वह इसको पूरी तरह से ​कब्जाने के मूड में है।
विदेश नीति के जानकारों का मानना है कि अमेरिका भले ही आज भी यह कहे कि यदि चीन ने ताइवान पर हमला किया तो बर्दास्त नहीं किया जायेगा, जबकि चीन ने अगर सच में हमला कर दिया, तो वह यूक्रेन की तरह ताइवान को अकेला छोड़ देगा। ताइवान पर भी इस बात को अच्छे से जानता है कि अमेरिका के भरोसे उसकी सुरक्षा नहीं हो सकती। इसी वजह से ताइवान ने भारत के साथ कारोबार को नई उंचाइयां दी हैं, ताकि समय पड़ने पर भारत जैसे निष्पक्ष और सच्चे दोस्तों का साथ मिल सके।
जी—20 की बैठक के दौरान अमेरिका व चीन के बीच कोई समझौता नहीं हुआ है, लेकिन यह आशा जताई है कि निकट भविष्य में ताइवान को लेकर दोनों किसी नतीजे पर पहुंच जायेंगे। इधर, इस सम्मेलन में जो सभी देशों की तरफ से बयान जारी किया जायेगा, उसका मुख्य मुद्दा रूस का यूक्रेन पर आक्रमण रहेगा। भारत ने भले ही बीते 9 माह से रूस के साथ कारोबार को नई उंचाई दी हो, लेकिन भारत ने कभी युद्ध का समर्थन नहीं किया, जैसे चीन करता है। भारत कहता है कि युद्ध इस युग का हथियार नहीं है। बयान में यह नहीं कहा जायेगा कि रूस ने युद्ध कर गलत किया है, बल्कि यह कहा जायेगा कि युद्ध किसी विवाद का समाधान नहीं होता है। इसका मतलब यह है कि इस बैठक के साझा बयान में भारत की बात को मुख्य बात के रुप में रखा जायेगा, ताकि रूस और उसके मित्र देशों की नाराजगी भी नहीं झेलनी पड़े और पश्चिमी जगत की मंशा के अनुसार उसकी आलोचना भी हो जाये। यह बयान ना केवल रूस यूक्रेन युद्ध के मध्यनजर भारत का मजबूत पक्ष है, बल्कि चीन की ताइवान पर संभावित कार्यवाही से पहले उसको भी संदेश है। यानी अमेरिका व चीन के बीच विवाद के समाधान में भारत की सबसे अहम भूमिका रहने वाली है। विदेश नीति के जानकारों का मानना है कि रूस यूक्रेन युद्ध को समाप्त करवाने में भारत ही सक्षम है।

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