जयशंकर ने बदल दी भारत की तकदीर

Ram Gopal Jat
वैसे तो भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश यात्राओं को लेकर पिछले कार्यकाल में खूब हंगामा हुआ था, लेकिन 2019 के बाद शुरू हुये मोदी 2.0 में मोदी की विदेश यात्राओं का कोई हल्ला नहीं है। असल बात तो यह है​ कि मई 2019 में मोदी का दूसरा कार्यकाल शुरू हुआ और फरवरी 2020 में भारत भी कोविड की चपेट में आ गया। पूरे विश्व का यातायात ठप्प हो गया। करीब दो साल बाद दुनिया में आवाजाही फिर से शुरू हो पाई। विरोधियों का कहना है कि मोदी को कोविड के कारण विदेश यात्रा करने का अवसर ही नहीं मिला, अन्यथा वह पहले कार्यकाल की तरह आधे समय बाहर ही रहते। वैसे नरेंद्र मोदी के पहले कार्यकाल में 2014 से लेकर 2019 तका मोदी की विदेश यात्राओं और खर्चे की बात करें तो 55 महीनों के दौरान 92 देशों से संबंध बनाने का कार्य किया गया है। इन यात्राओं पर देश का 2021 करोड़ रुपया खर्च हुआ।
आमतौर पर देखा जाता है कि विदेश मंत्री ही दो देशों के बीच संबंधों को परवान चढ़ाने का काम करता है। सामान्यत: छोटे मोटे संबंध विदेश मंत्री द्वारा ही स्थापित किये जाते हैं। मोदी की पहली सरकार में सुषमा स्वराज विदेश मंत्री थीं, हालांकि अधिसंख्या देशों के साथ उस दौर में मोदी ही विदेशी संबंधों को सुधाराने, बनाने या फिर से मित्रता कायम करने के लिये काम करते हैं। मोदी ने पहले कार्यकाल में छोटे से छोटे और बड़े से बड़े देश का दौरा किया। यहां तक की जिन देशों में आजतक भारत का कोई प्रधानमंत्री तो क्या विदेश मंत्री तक नहीं गया था, वहां पर भी मोदी पहुंचे, जिसका भारत को आज लाभ हो रहा है और आगे भी होता रहेगा। जिन देशों में मोदी नहीं पहुंच पाये, वहां पर सुषमा स्वराज का भेजा गया। मतलब यह है कि मोदी की पहली सरकार में दुनिया के सभी देशों से भारत संबंध अपनी तरफ से स्थापित करने का काम किया।
दूसरे कार्यकाल मोदी सरकार में विदेश मंत्री बनाये गये डॉ. सुब्रम्ण्यम जयशंकर, जो कि पहले विदेश सेवा में थे। इसलिये ​उनके पास कई देशों का लंबा अनुभव और उनकी पूरी जानकारी भी थी। यह भी कहा जाता है कि मोदी की पहली सरकार के समय उनकी विदेश यात्राओं की पूरी जिम्मेदारी और मैनेजमेंट का काम जयशंकर ही किया करते थे। इस वजह से अपनी सफल विदेश नीति को आगे बढ़ाते हुये मोदी ने दूसरी सरकार में सुब्रम्ण्यम जयशंकर को ही विदेश मंत्रालय की जिम्मेदारी सौंप दी। जयशंकर ने मोदी को निराश भी नहीं किया। चाहे शुरुआत में कोविड के कारण​ विदेशों में फंसे भारतीयों को सकुशल भारत लाने का काम हो, या जो भारत नहीं लाये जा सके, उनको संबंधित देश के विदेश मंत्रालय के जरिये जरुरी संसाधन उपलब्ध करवाने का काम हो, हर समय विदेश मंत्री और उनका मंत्रालय जुटा रहा। कोरोना के दौरान मेडिसिन डिप्लोमेसी हो या फिर वैक्सीन डिप्लोमेसी, हर बार मोदी को इस बात की फिक्र नहीं करनी पड़ी कि किसी देश के साथ संबंधों पर क्या असर पड़ रहा है।
विदेश नीति के जानकार समीक्षा करते हैं कि भारत ने मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में विदेश नीति में फ्रेंडशिप डिप्लोमेसी को आगे रखा, तो दूसरे कार्यकाल में भारत की विदेश नीति पॉजिटिव अग्रेसिव हो गई है। मतलब किसी भी देश के साथ संबंध तो होंगे, लेकिन भारत इसके लिये झुकेगा नहीं, बल्कि बराबर का बर्ताव करना होगा। फिर चाहे अमेरिका हो या चीन, चाहे पाकिस्तान हो गया छोटा को देश कैन्या ही क्यों ना हो। जयशंकर के पास लंबा विदेशी अनुभव तो था ही, इसके साथ उनको मोदी द्वारा ​फ्री हैंड देने का परिणाम यह हुआ कि पहली बार ऐसा लगा कि भारत के पास कोई ऐसा विदेश मंत्री है, जो किसी भी मंच पर और किसी भी देश को उसी की भाषा में जवाब देना जानता है।
पहले पाकिस्तान जैसा छोटा सा देश भारत को ब्लेकमेल कर लेता था, लेकिन अब वह भारत के साथ संबंध स्थापित करने के लिये ना केवल छटपटा रहा है, बल्कि वहां के नेता कह रहे हैं कि विदेश नीति हो तो भारत जैसी, जो बिलकुल गुटनिरपेक्ष साबित हुई है। पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री कई बार कह चुके हैं कि भारत जैसी आजाद विदेश नीति के बिना पाकिस्तान का भला नहीं हो सकता है। मोदी की पहली सरकार ने पाकिस्तान पर सर्जिकल स्ट्राइक और एयर स्ट्राइक कर बता दिया था कि अब आतंकवाद को और अधिक बर्दास्त नहीं किया जायेगा, बल्कि जब तक पाकिस्तान आतंक फैलाने से बाज नहीं आयेगा, तब तक उसके साथ कोई संबंध नहीं रखे जायेंगे। नतीजा यह हुआ है कि पाकिस्तान और भारत का व्यापार बंद होने के कारण पड़ोसी को चीन से महंगा आयात करना पड़ रहा है। जिसके कारण उसकी हालत खराब हो चली है।
इसी तरह से जब 2020 में ड्रेगन ने लद्दाख की गलवान घाटी में घुसने का प्रयास किया तो ना केवल भारत के जवानों ने चीन को मुंहतोड़ जवाब दिया, बल्कि चीन से विदेशी संबंध समाप्त कर लिये। आज भले ही चीन के साथ भारत के कारोबारी संबंध होंगे, लेकिन इसके अलावा सभी डिप्लोमेटिक संबंध समाप्त हो चुके हैं। भारत ने जो तरीका पाकिस्तान के साथ अपनाया, उसी से चीन का इलाज किया जा रहा है। हालांकि, ताकत से हिसाब से देखा जाये तो चीन और भारत में बड़ा अंतर है, लेकिन फिर भी भारत ने चीन को दिखा दिया है​ कि जब तक वह सीमा विवाद जारी रखेगा, तब तक उसके सा​थ राजनेयिक रिश्ते स्थापित नहीं होंगे। कहा जाता है कि इस रणनीति के पीछे पूरा दिमाग जयशंकर और अजीत डोभाल का ही है। ये दोनों मंत्री मोदी के दो भुजायें बने हुये हैं। कोई भी विदेश यात्रा हो, हर बार इन दोनों को सायें की तरह साथ देखा जाता है। ऐसा लगता है कि इनके बिना मोदी की विदेश यात्रा ही संभव नहीं है।
एक दिन पहले सम्पन्न बाली में जी20 की बैठक हो या उससे पहले जापान में आयोजित हुआ क्वाड शिखर सम्मेलन, हर जगह इन दोनों को मोदी के बगल में देखा जा सकता है। अजीत डोभाल को लेकर जो काफी समय से सोशल मीडिया पर काफी कुछ लिखा जाता रहा है, लेकिन बीते तीन साल में जयशंकर ने सोशल मीडिया पर जो स्पेश बनाया है, वह अपने आप में काफी चौंकाने वाला है। इस दौर में अजीत डोभाल ही नहीं, बल्कि मोदी के दायें हाथ माने जाने वाले गृहमंत्री अमित शाह भी पीछे छूटते नजर आ रहे हैं। स्पेशली यदि आपने बीते 9 माह से देखा तो विदेश स्तर पर भारत की विदेश नीति का विश्व मुरीद हो गया है, जिसके पीछे सिर्फ जयशंकर की रणनीति ही एकमात्र कारण है।
इन 9 महीनों में रूस यूक्रेन युद्ध के दौरान भारतीय मंचों से लेकर यूरोपीयन मीडिया और नेताओं के हर मंच पर विदेश मंत्री जयशंकर ने भारत का पक्ष जिस पुरजोर तरीके से रखा है, वह अपने आप में इतिहास है। इससे पहले भारत के किसी भी विदेश मंत्री ने इस तरह से शालीन भाव से सीधा सपाट जवाब नहीं दिया होगा। बीते 70 साल से यही माना जाता था कि भारत कभी अमेरिका, यूरोप, चीन जैसे देशों को जवाब नहीं दे पाता है। खासतौर पर 2004 से 2014 तक मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते भारत की छवि एकदम दब्बू टाइप की बन गई थी, जिसमें कोई खुलकर बोलने वाला ही नहीं था। नतीजा यह हो रहा था कि पाकिस्तान से लेकर तुर्की और अमेरिका से लेकर चीन तक हर कोई भारत को आंख दिखाने की हिमाकत कर लेता था।
किंतु जब से विदेश मंत्री के पद पर जयशंकर की ताजपोशी हुई है, उसके बाद तो मानों भारत ने अपनी विदेश नीति में टॉप गियर लगा दिया है, जो हर मोर्चे पर सीधा और सटीक जवाब दिया जा रहा है। ऐसा नहीं है कि जयशंकर ने रूस यूक्रेन युद्ध के समय रूस से भारत के तेल आयात को लेकर ही अग्रेशन दिखाया हो, बल्कि चीन के विदेश मंत्री वांग जब भारत आकर मोदी से मिलना चाहते थे, तब भी जयशंकर ने उनको आयना दिखाया और रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव को मिला दिया, लेकिन वांग को बिना मिले जो निराश होकर लौटना पड़ा।
जी20 की अगली बैठक सितंबर 2023 में भारत होस्ट करने वाला है, उससे पहले यदि चीन और भारत के संबंध बहाल नहीं हुये तो यह तय है कि चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की भारत यात्रा मुश्किल में पड़ सकती है, लेकिन भारत ने बहुत साफ कर दिया है कि जब तक ​सीमा विवाद शांत नहीं होगा, तब तक किसी भी सूरत में चीन के साथ संबंध सामान्य नहीं हो सकते हैं। कुछ महीनों पहले जब श्रीलंका आर्थिक संकट से घिरा था और गृहयुद्ध जैसे हालात हो गये थे, तब भी जयशंकर ने ही मोर्चा संभाला था। तब भी चीन वहां पर आपदा में अवसर तलाश रहा था, लेकिन जयशंकर की सूझबूझ के चलते भारत ने समय रहते श्रीलंका को मदद करके चीन को सीमित कर दिया। हालांकि, उससे पहले ही चीन श्रीलंका का हंबनटोटा नामक एक द्वीप हथिया चुका है, लेकिन खराब आर्थिक हालात के दौरान भारत ने यदि श्रीलंका का साथ नहीं दिया होता हो चीन पूरी तरह से श्रीलंका पर हावी हो जाता, जो भविष्य में भारत के लिये घातक साबित हो सकता है।
रूस ने जब 24 फरवरी को यूक्रेन पर हमला किया, तो यूरोप पर अमेरिका ने उसपर कडे आर्थिक प्रतिबंध लगा दिये। ऐसे समय में रूस का सबसे बड़ा मददगार साबित हुआ भारत, जिसने रूस का कच्चा तेल बड़े पैमाने पर खरीदा, जिससे उसकी अर्थव्यवस्था धवस्त होने से बच गई। इन आठ माह के दौरान भारत पर अमेरिका व यूरोप ने रूस से संबंध तोड़ने के लिये क्या कुछ नहीं किया। अमेरिका ने भारत को आर्थिक मदद से लेकर सैन्य उपकरण तक का प्रलोभन दिया, यहां तक कि भारत को चीन से डर दिखाने का भी प्रयास किया गया, लेकिन भारत ने अमेरिका की एक नहीं सुनी और कच्चे तेल, उर्वरक, स्टील, कोयला समेत रूस से अनैक उत्पाद खरीदे, जिससे भारत को अरबों डॉलर का फायदा हुआ। हालांकि, भारत रूस के संबंध काफी पुराने हैं, लेकिन इस काल में ये संबंध एक नई उंचाई पर पहुंच गये हैं। यह युद्ध शुरू होने से पहले भारत के द्वारा रूस से केवल एक फीसदी तेल खरीदा जाता था, जबकि आज की तारीख में करीब 22 फीसदी की हिस्सेदारी के साथ रूस ही भारत का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता देश बन गया है। इससे पहले इराक से भारत को सर्वाधिक तेल आयात होता था, किंतु रूस से सस्ता तेल का प्रस्ताव देख भारत ने उसको तुरंत लपक लिया।
इसको लेकर अमेरिका व यूरोपीय यूनियन ने भारत को घेरने को प्रयास किया तो विदेश मंत्री जयशंकर ने मोर्चा संभाला और यूरोप के मंचों पर उसी को आइना दिखा दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि बीते दो तीन माह से अमेरिका व यूरोप ने भारत को लेकर अपना परसेप्शन चैंज कर लिया है। अब उनको भारत के साथ ठीक वैसे ही बर्ताव करना होता है, जैसे विश्व की टॉप पांच महाशक्तियों के साथ किया जाता है। भारत के अंदरुनी मुद्दे तो अलग चीज है, लेकिन विदेश स्तर पर भारत को पहली बार ऐसा प्रतिनिधि मिला है, जिसको हर बात का जवाब देना आता है, तो तथ्यात्मक रुप से बड़े देशों का अहंकार भी तोडा जा रहा है।
कुल मिलाकर देखा जाये तो ना तो इससे पहले भारत की विदेश नीति इतनी आक्रामक रही और ना ही विश्व का ध्यान अपनी ओर खींचने वाली रही है। मोदी सरकार के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने विदेशों में भारत की जो इमैज बनाई है, वह ना केवल दबंग है, बल्कि काफी सकारात्मक और विश्व के गरीब देशों की मदद करने वाली भी है। इसके साथ ही अपनी अर्थव्यवस्था और सैन्य ताकत के दम पर छोटे और कमजोर देशों को दबाव में रखने वाली शक्तियों को भी सोचने पर विवश कर दिया है। माना जा रहा है कि काफी समय से जो विश्वगुरू बनाने की बात कही जा रही थी, उसका शेश्वकाल शुरू हो चुका है। इसके बाद भारत की विदेश नीति ना केवल सटीक होगी, बल्कि बड़े और झूठा डर दिखाने वाले देशों के खिलाफ सख्त भी होगी।

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