जयशंकर का मुंह ताकते रह गये चीन पाकिस्तान

Ram Gopal Jat
भारत अपने पड़ोसियों से मित्रता की चाहे जितनी भी कोशिश करें, लेकिन चीन अपनी आदत से बाज नहीं आता है। वह हर बार दोस्ती का हाथ बढ़ाने का नाटक तो करता है, लेकिन मौका मिलते ही भारत का हाथ मरोड़ने का मौका तलाशता रहता है। डोकलाम, गलवान और अब तवांग इस बात के उदाहरण हैं। यह और बात है कि भारत हर बार अपनी सामरिक शक्ति और कूटनीति से चीन को जवाब तो देता है, लेकिन उसे पूरी तरह मात देने में असफल रहता है। हालांकि, भारत चाहे तो ऐसा कर सकता है, लेकिन इसके लिए देश को कई अहम कदम उठाने होंगे, जो काफी कठिन हैं।
जानकारी में आया है कि अपनी हरकतों से चालबाजी करने वाला ड्रेगन एलएसी पर अरुणाचल प्रदेश के तवांग जैसी हरकत लद्दाख या डोकलाम में कर सकता है। इसको देखते हुये भारत सरकार अलर्ट है। सेना को सभी तरह के एक्शन लेने की छूट दी हुई है। सीमापार चीन द्वारा लड़ाकू विमानों की हरकतों को देखते हुये भारतीय वायुसेना ने गश्ती बढ़ा दी है। अगले सप्ताह भारतीय वायुसना पूर्वी मोर्चे दो अभ्यास करेगी। इस बीच भारत का पक्ष लेते हुये अमेरिका ने कहा है कि भारत के साथ चीन की गुस्ताखी बर्दाश्त नहीं की जायेगी। अमेरिका के वाइट हाउस प्रवक्ता ने कहा है कि अमेरिका अपने सहयोगियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये प्रतिबद्धता पर कायत रहेगा। तनाव कम करने के लिये अमेरिका ने भारत की प्रसंशा भी की है।
इस बीच विशेषज्ञों का मानना है कि चीन तीन मोर्चों पर सैन्य गतिविधियां लगातार बढ़ा रहा है। ताइवान और दक्षिण चीन सागर के अलावा उसकी नजर भारत से सटी एलएसी पर है। इसके चलते भारत पर दो तरफा दबाव बनाने के प्रयास में चीन इस वक्त पाकिस्तान को लगातार मदद कर रहा है। इधर, श्रीलंका के हंबनटोटा बंदरगाह को हड़पने के बाद वह हिंद महासागर में भी अपनी पेठ बना रहा है। विशेषज्ञों का मानना है कि चीन की हरकतें थमेंगी नहीं, संभावना है कि वह पहाड़ियों में बर्फबारी का फायदा उठाते हुये युद्ध से पहले लिटमस टेस्ट के तौर पर लद्दाख तो कभी एलएसी पर भारत के साथ उलझने की कोशिशें करता रहेगा। इस बीच एक बार फिर से भारत साफ्ट पावर नीति बनाने के लिये प्रयास कर रहा है। सॉफ्ट पॉवर की नीति के अंतर्गत विभिन्न देशों के बीच सहयोग को बढ़ावा दिया जाता है, जिससे यह संबंधों को मजबूत कर विकास में योगदान करती है, जबकि हार्डपॉवर नीति में एक तरफा कार्रवाई, सैन्य क्षमता को बढ़ाना जैसे कदमों के कारण यह अत्यधिक महँगी, कठिन एवं चुनौतिपूर्ण होती है। भारत की विदेश मामलों की समीति ने मोदी सरकार को सॉफ्ट पावर नीति बनाने की सलाह दी है।
भारत से लगी तकरीबन 4 हजार किमी लंबी सीमा पर चीन लगातार आधारभूत ढांचे को मजबूत करने की दिशा में काम कर रहा है। भारत को भी यही करना होगा। हालांकि, केंद्र सरकार इसके लिए प्रयासरत है, लेकिन इसमें और तेजी लानी होगी। यदि चीन की बात करें तो उसने पूरे सीमा क्षेत्र को सड़क और हवाई मार्ग से जोड़ दिया है, लेकिन भारत इस मामले में बेहद पीछे है। पिछले दिनों 2 माउंटेन डिवीजन के अफसर मेजर जनरल एमएस ने भरोसा दिया था कि भारत भी सड़क निर्माण के साथ हेलीपैड और दूसरे बुनियादी ढांचे को मजबूत कर रहा है। असल बात यह है कि शी जिनपिंग मोओत्से तुंग की नीति पर चल रहे हैं। विदेश मामलों के जानकार मानते हैं कि चीन की मौजूदा जिनपिंग सरकार चीन के तत्कालीन मोओत्से तुंग का अनुसरण कर रही है। मोओ ने साल 1949 से ही हथेली और पांच अंगुलियां कब्जे लेने की नीति पर काम शुरू कर दिया था। उसने 1951 में हथेली कहे जाने वाले तिब्बत केा हथिया लिया और उसके बाद से ही चीन की कोशिश पांच अंगुलियों के रुप में भूटान, नेपाल, लद्दाख, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश को हड़पने की फिराक में रहता है। चीन ने भारत पर 1962 में हमला किया था, जो उसी नीति का हिस्सा था। उस युद्ध में लद्दाख की 38 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन को हड़प चुका है।
चीन का सिर्फ भारत के साथ ही सीमा विवाद नहीं है। उसके वियतनाम, जापान, साउथ-उत्तर कोरिया, भूटान, तिब्बत, ताइवान जैसे 17 पड़ोसी देशों के साथ कोई न कोई क्षेत्र का विवाद चल रहा है। यानी पाकिस्तान को छोड़कर चीन का अपने सभी पड़ोसी देशों के साथ विवाद है, जो चीन के इशारे पर चलता है। इसके अलावा दक्षिण चीन सागर में भी कई ऐसे द्वीप हैं, जिन पर कब्जे को लेकर विवाद चल रहा है। तात्कालिक तौर पर चीन की शक्ति को संतुलित करने के लिए भारत को इन्हीं देशों के साथ सामरिक साझेदारी मजबूत करनी है, ताकि चीन पर दबाव बनाया जा सके। भारत जब-जब अमेरिका से दोस्ती का हाथ बढ़ाता है, तो सबसे ज्यादा पेट दर्द चीन का ही होता है। पहली बात तो यह है कि भारत के साथ अमेरिका के दोस्ताना संबंधों से सबसे ज्यादा नुकसान चीन को ही है। चीन के विदेश मंत्रालयों की ओर से जारी बयानों में इसकी झलक दिखती रही है। अमेरिका और चीन के बीच आपसी संबंध बहुत बेहतर नहीं हैं। ऐसे में चीन ये माना जाता है कि अमेरिका और भारत की दोस्ती एशिया में उसके बढ़ते दखल में बाधक हो सकती है। दूसरा कारण यह है कि अमेरिका भारत को एशिया में अपना वर्चस्व बढ़ाने की नजर से देखता है। ऐसे में भारत के लिए चीन अगर दुश्मन बनता है तो अमेरिका सुरक्षा कवच के तौर पर काम कर सकता है।
अर्थव्यवस्था के मामले में भारत को अगला चीन बननने की ओर अग्रसर है, यानी जिन उद्योगों के दम पर चीन तेजी से विकास करती अर्थव्यवस्था बनी है, उसी तरह से भारत आगे बढ़ रहा है। बीते आठ साल में भारत ने अपना स्थान आठवें से पांचवा कर लिया है और अगले पांच साल में वह तीसरा सबसे ताकतवर देश होगा। दरअसल, 1990 तक दोनों ही देशों की अर्थव्यवस्था तकरीबन समान थी, लेकिन उसके बाद से भारत की विकास दर पिछड़ती गई और चीन तेजी लेता गया। इन तीन दशकों में भारत की राजनीति ने लोगों को मुफ्तखोरी करना सिखाया, जबकि चीन में तानाशाही शासन होने के कारण लोगों को काम करना सिखाया, जिसका नतीजा यह हुआ कि आज भारत चीन का सबसे बड़ा आयातक देश बन गया है। इसको भारतीय राजनेताओं की अदूरदर्शिता कहें या स्वार्थ, लेकिन देश को पीछे धकेलने का काम किया गया है। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार 2021 में भारत की जीडीपी 3.1 ट्रिलियन थी, जबकि चीन 17.7 ट्रिलियन डॉलर पर था। यदि चीन की अर्थव्यवस्था न बढ़े और भारत की अर्थव्यवस्था 7.75 प्रतिशत की दर से बढ़े, तब कहीं अगले 25-30 साल में भारत चीन का मुकाबला कर पाएगा।
आयात के मामले में हम चीन पर ज्यादा निर्भर हैं, इसे कम करना ही एक मात्रा लक्ष्य होगा, तब ड्रेगन को भारत की ताकत का असहसा होगा। चीन के लक्ष्य को इससे समझ लीजिये कि वह भारत से कच्चा माल खरीदता है और उसे पक्का कर भारत को महंगे दाम पर बेचता है। मेक इन इंडिया और आत्मनिर्भर भारत को मजबूत कर भारत इसमें कमी ला रहा है। आंकड़ों के लिहाज से देखें तो वर्ष 2021 की पहली छमाही में भारत-चीन व्यापार में 62.7 फीसदी की बढ़ोतरी हुई थी, जबकि कोविड के पहले के दौर में वर्ष 2020 की पहली छमाही में हुए 44.72 अरब डॉलर ही थी। चीन के जनरल एडमिनिस्ट्रेशन ऑफ कस्टम्स, यानी GAC की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत साल 2020-21 में चीन को 1,57,201.56 करोड़ का निर्यात किया था, जबकि आयात इससे चार गुना ज्यादा किया। कोरोना काल में भी भारत ने सबसे ज्यादा जहां से माल आयात किया, उनमें नंबर 1 पर चीन ही था। इसके बाद अमेरिका, संयुक्त अरब अमीरात का नंबर आया है। चीन भले ही भारत से काफी बड़ी अर्थव्यवस्था और ताकतवर होगा, लेकिन उसको मनमानी नहीं करने दी जायेगी। इधर, भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में चीन और पाकिस्तान को जमकर लताड़ लगाई। दरअसल, पाकिस्तान की तरफ से बैठक में एक बार फिर कश्मीर मुद्दे को उठाया गया। इस पर जयशंकर ने पलटवार करते हुए कहा कि जो देश अल-कायदा के सरगना ओसामा बिन-लादेन का मेजबान हो सकता है और अपने पड़ोसी देश की संसद पर हमला करवा सकता है, उसे यूएन में 'उपदेश' देने की कोई जरूरत नहीं है। डॉ. सुब्रम्ण्यम जयशंकर ने साल 2001 में हुए संसद हमले को लेकर कहा कि 18 साल पहले 13 दिसंबर को पाकिस्तान आधारित आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद ने दिल्ली में संसद परिसर पर हमला किया था। आतंकियों ने यहां खुलेआम फायरिंग की थी, जिसमें 9 लोगों की मौत हुी थी। पिछले कुछ समय से अपनी छोटी हरकतों के कारण दुनिया में जलालत झेल रहे चीन पर निशाना साधते हुए दिवेश मंत्री जयशंकर ने चीन को आड़े हाथों लेते हुये कहा कि आतंकवाद की चुनौतियों का पूरी दुनिया साथ मिलकर मजबूती से मुकाबला कर रही है, लेकिन चीन द्वारा आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देने वालों और उनकी साजिश रचने वालों को बचाने और उन्हें उचित ठहराने के लिए अंतरराष्ट्रीय मंचों का दुरुपयोग कर रहा है। चीन ने संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान स्थित जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अजहर को अंतर्राष्ट्रीय आतंकी ठहराने की भारत और अमेरिका के प्रस्तावों को बार-बार रोकाने का काम है।
जयशंकर ने चीन को नियंत्रित करने के लिये संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में बदलाव की मांग उठाते हुए इस वैश्विक निकाय में सुधार समय की मांग बताई है। भारत को इस बात का पूरा विश्वास है कि दक्षिण एशिया के देश भी भारत की इस प्रतिबद्धता के साथ हैं। समान प्रतिनिधित्व का प्रश्न और सुरक्षा परिषद की सदस्यता में वृद्धि पिछले तीन दशकों से संयुक्त राष्ट्र महासभा के एजेंडे में रहा है। भारत के फायरब्रांड विदेश मंत्री बन चुके जयशंकर ने भारत का पक्ष जिस दृढता से रखा है, उससे ना केवल चीन, बल्कि अमेरिका भी समझ गया है कि भारत अब पहले की भांति किसी महाशक्ति के पीछे चलने वाला नहीं है, जो उनके बयानों के बाद अपने बयान दिया करता ​था। अब भारत ने अपना खुद का स्टेंड तय कर लिया है,​ जिसके लिये अमेरिका समेत किसी देश की राय आवश्यक नहीं होती है। जयशंकर जब यूएनएससी में बोले रहे थे, तब चीन और पाकिस्तान के विदेश मंत्री लाचारी की अवस्था में उनका मुंह ताक रहे थे। यही वजह है कि अमेरिका ने चीन की हरकत के बाद भारत के पक्ष में सुरक्षा का बयान दिया है।
यह बात अमेरिका से जापान तक पूरी दुनिया समझ रही है कि चीन के तेवर तीखे होते जा रहे हैं, लेकिन इन सभी देशों के बीच सिर्फ भारत ही है, जिससे चीन के सैनिक असली झड़प पर उतर आए हैं। सिर्फ भारत के खिलाफ ही चीन का इतने आक्रामक रुख की असली वजह कारोबार में छुपी है, जहां भारत के साथ वह अमेरिका से कमजोर पड़ता जा रहा है। साल 2013 में शी जिनपिंग के सत्ता में आने के बाद से चीन हर मोर्चे पर आक्रामक रुख ही दिखा रहा है। अमेरिका के बाद दुनिया की दूसरी सुपरपावर के तौर पर खुद को स्थापित करने के मिशन में चीन ने दो मोर्चों पर आक्रामक रवैया अपनाया है। एक तरफ तो वह पूरी दुनिया के कारोबार और हर देश की अर्थव्यवस्था में खुद को सबसे मजबूत करना चाहता है। साथ ही खासतौर पर एशिया के सामरिक और रणनीतिक मोर्चों पर वह अपनी ताकत साबित करना चाहता है। एशिया में मुख्यत: तीन सामरिक मोर्चे ऐसे हैं, जो चीन के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। पहला ताइवान, दूसरा जापान के निकट सेनकाकू द्वीप समूह और तीसरा भारत से जुड़ी हिमालयी सीमा है। ताइवान में अमेरिका के सीधे दखल की वजह से चीन ने कदम रोक रखे हैं। इसके बाद एशिया में अपनी सामरिक ताकत साबित करने के लिए उसके पास जापान या भारत से भिड़ने का विकल्प है। यहां चीन, भारत को ज्यादा आसान टारगेट मानता है।
इसकी सीधी वजह व्यापार में छुपी है। चीन और जापान के बीच का व्यापार, भारत-चीन व्यापार का करीब 4 गुना है। ऐसे में चीन को अपनी अर्थव्यवस्था को संभाले रखने के लिए जापान से संबंध सामान्य रखने की जरूरत ज्यादा है। एक और वजह यह भी है कि भारत के साथ चीन का व्यापार वॉल्यूम में भले ही बढ़ा हो, मगर भारत के कुल अंतरराष्ट्रीय ट्रेड में चीन की हिस्सेदारी तेजी से घटी है और अमेरिका की बढ़ी है। ऐसे में भारत के साथ सीमा पर झड़प चीन के लिए आर्थिक तौर पर इतनी भी नुकसानदेह नहीं है।
भारत के साथ बदलते व्यापारिक संबंधों ने चीन को ज्यादा आक्रामक बनाया है और क्यों जापान के साथ खुलकर दुश्मनी को चीन अपने लिए नुकसानदेह मानता है। भारत के कुल आयात में 15.42 फीसदी के साथ सबसे बड़ी हिस्सेदारी चीन की है। साल 2021-22 में चीन से कुल 7.05 लाख करोड़ रुपए का आयात भारत ने किया। खास बात यह है कि भारत ने इस दौरान कुल 221 देशों से आयात किया, लेकिन सिर्फ चीन का आयात ही दहाई के अंकों में है। साल 2022-23 में भी अप्रैल से अक्टूबर के बीच चीन से 4.76 लाख करोड़ का आयात हो चुका है, कुल आयात में यह 13.77% की हिस्सेदारी है, लेकिन चीन के लिए दिक्कत यही है कि आयात का वॉल्यूम ज्यादा होने के बावजूद उसकी हिस्सेदारी घटी है। दरअसल, साल 2020-21 में चीन आयात में हिस्सेदारी 16.54% थी, जो 2021-22 में 15.4% रह गई। भारत सरकार के वाणिज्य मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2012-13 में अंतरराष्ट्रीय ट्रेड में भारत का सबसे बड़ा ट्रेडिंग पार्टनर अमेरिका था। साल 2013-14 में चीन पहले नंबर पर आ गया। वर्ष 2013-14 से लेकर 2017-18 तक लगातार चीन ही भारत का सबसे बड़ा ट्रेडिंग पार्टनर रहा है। मगर साल 2018-19 में चीन दूसरे स्थान पर खिसका और तब से सिर्फ 2020-21 को छोड़ हर साल दूसरे स्थान पर ही है, अमेरिका पहले पायदान पर है।
वर्ष 2020-21 में कोविड के चलते अंतरराष्ट्रीय व्यापार की स्थिति काफी गड़बड़ाई थी। जिसके चलते अमेरिका से होने वाले ट्रेड पर असर पड़ा था। इसी वजह से चीन से ट्रेडिंग ज्यादा हुई थी। यानी साल 2018-19 के बाद से व्यापार के मामले में चीन से ज्यादा तवज्जो भारत ने अमेरिका को दी है। यह ही चीन के लिए चिंता और बेरुखी की वजह भी बन गया है। एक तरफ भारत से होने वाला फायदा कम हुआ है और दूसरी तरफ भारत ने अमेरिका से व्यापार बढ़ा दिया है, जिसे चीन अपना सीधा प्रतिद्वंद्वी मानता है। साल 2021-22 में भारत और चीन के बीच कुल 8.63 लाख करोड़ रुपए का व्यापार हुआ था। यह अमेरिका से हुए व्यापार 8.91 लाख करोड़ रुपए के बाद दूसरे स्थान पर था। इस लिहाज से चीन भारत लिए महत्वपूर्ण व्यापारिक साझेदार है, लेकिन चीन के लिए भारत से ज्यादा जरूरी व्यापारिक साझेदार जापान है। वर्ष 2021-22 में ही चीन और जापान के बीच कुल 32.30 लाख करोड़ रुपए का व्यापार हुआ था। यह दोनों देशों के बीच 10 साल में सबसे ज्यादा व्यापार था। इस लिहाज से चीन के लिए जापान से होने वाला व्यापार ज्यादा फायदेमंद और जरूरी है।
द इकोनॉमिस्ट में प्रकाशित एक लेख के मुताबिक 90% जापानी, चीन को अपने शत्रु के तौर पर देखते हैं, जबकि 60% चीनी भी जापान के बारे में ऐसी ही राय रखते हैं। चीन के राष्ट्राध्यक्ष शी जिनपिंग और जापानी राष्ट्राध्यक्ष किशीदा फुमियो के बीच सार्वजनिक मंचों पर बातचीत भी कम होती है। दोनों नेताओं की यह बेरुखी कई बार दिख चुकी है। इसके बावजूद सामरिक मोर्चों पर दोनों में से कोई भी बहुत ज्यादा आक्रामकता नहीं दिखाता। नैन्सी पलोसी की ताइवान यात्रा के दौरान चीन ने जो सैन्य अभ्यास किया था, उसमें 5 मिसाइल्स जापान के इकोनॉमिक जोन में गिरी थीं। इसी साल 17 नवंबर को शी जिनपिंग और किशीदा फुमियो की मुलाकात के कुछ ही दिन बाद सेनकाकू द्वीप समूह के पास जापान की समुद्री सीमा में चीन के कोस्टगार्ड के जहाज घुस गए थे। इन दोनों ही घटनाओं को चीन और जापान दोनों ने ही सामान्य दिखाने की कोशिश की है। हालांकि, जापान ने अपना रक्षा बजट बढ़ाने की घोषणा जरूर की है, मगर चीन के साथ सामरिक मोर्चों पर उसने कोई भी आक्रामकता सीधे तौर पर नहीं दिखाई है। चीनी मीडिया ने भी सेनकाकू और ताइवान की घटना को सामान्य दिखाते हुए यह जताने की कोशिश की है कि जापान को चुनौती देने की चीन की कोई मंशा नहीं है।

Post a Comment

Previous Post Next Post