सतीश पूनियां ही वसुंधरा युग की समाप्ति का सबसे बड़ा सबूत हैं

Ram Gopal Jat
भाजपा के राजस्थान प्रदेश अध्यक्ष डॉ. सतीश पूनियां के निर्वाचन को तीन साल का कार्यकाल 27 दिसंबर को पूरा हो गया, लेकिन आगे के कार्यकाल को लेकर अभी तक नियुक्ति पत्र जारी नहीं किये जाने के कारण असंमजस बना हुआ है। नई नियुक्ति नहीं होने के कारण स्वत: ही आज दूसरा कार्यकाल शुरू हो गया है, किंतु राष्ट्रीय इकाई से अभी तक पूनियां को कोई आदेश या संदेश नहीं मिला है, जो कहे कि आगे वही अध्यक्ष पद पर रहेंगे या किसी अन्य को नियुक्त किया जायेगा। इसलिए डॉ. सतीश पूनियां अपने नियमित रुटीन की तरह बुधवार को चूरू, सीकर एवं झुंझुनूं के दौर पर हैं। चार दशक पहले 1980 में भाजपा की स्थापना से लेकर अब तक 42 साल में 14 अध्यक्ष बनाये गये हैं,​ जिनमें से वर्तमान अध्यक्ष सतीश पूनियां समेत 6 ही अध्यक्ष ऐसे रहे हैं, जिन्होंने कार्यकाल पूरा किया है। बाकी 8 अध्यक्षों को या तो इस्तीफा देना पड़ा है, या इस्तीफा दिलाया गया है और मदनलाल सैनी अध्यक्ष रहते हुये दुनिया छोड़ गये हैं। पूर्व सीएम वसुंधरा राजे दो बार अध्यक्ष बनी हैं, लेकिन कार्यकाल कभी पूरा नहीं कर पाई हैं।
अध्यक्ष के रुप में भंवरलाल शर्मा अकेले ऐसे नेता रहे हैं, जो तीन बार प्रदेशाध्यक्ष बने। पूर्व सीएम वसुंधरा राजे और ललित किशाेर चतुर्वेदी दाे-दाे बार प्रदेशाध्यक्ष रह चुके हैं। वसुंधरा राजे दाे बार 1-1 साल के लिए प्रदेशाध्यक्ष रही, लेकिन दोनों बार ही उनको मुख्यमंत्री बनाये जाने के कारण इस्तीफा देना पड़ा। भाजपा अध्यक्ष के रुप में सबसे लंबा कार्यकाल रामदास अग्रवाल का रहा है, जो सात साल तक इस पद पर रहे। इसके अलावा हरिशंकर भाभड़ा काे 5 साल का कार्यकाल मिला। अरुण चतुर्वेदी व अशाेक परनामी भी तीन साल तक अध्यक्ष रहे। केंद्रीय संगठन ने बीजेपी प्रदेशाध्यक्ष पद पर डॉ. पूनियां का ऐलान 2019 में 11 सितंबर काे किया जबकि, निर्वाचन 27 दिसंबर काे हुआ था। अध्यक्ष के रुप में सतीश पूनियां ने अपना पहला कार्यकाल पूरा कर लिया है, और इस दौरान अध्यक्ष बदलने की चर्चा तो खूब हो रही है। अब राज्य में चुनाव को लेकर केवल 11 महीनों का समय बचा है, जिसके चलते यह भी चर्चा चल रही है कि सामान्य तौर पर चुनावी साल में प्रदेश अध्यक्ष में बदलाव नहीं किया जाता है।
इस बारे में खुद अध्यक्ष सतीश पूनियां का कहना है कि भाजपा का केंद्रीय संगठन तय करेगा, मुझे क्या करना है? इस 3 साल के कार्यकाल में हमने सवा-डेढ़ साल कोरोना के कारण सेवा कार्य बड़े स्तर पर किए हैं। अभी चल रही जन आक्राेश यात्रा से दाे कराेड़ लाेगाें तक पहुंचने का काम किया है। संगठन को मजबूती दी है और बूथ लेवल पर पार्टी को पुनर्गठित करके पन्ना प्रमुख तक की नियुक्ति के साथ चुनाव की पूरी तैयारी कर ली है। भाजपा के राजस्थान में पहले अध्यक्ष जगदीश प्रसाद माथुर से हरिशंकर भाभड़ा, भंवरलाल शर्मा, रामदास अग्रवाल, वसुंधरा राजे, ओमप्रकाश माथुर जैसे नामों के बाद सतीश पूनियां ने भी अध्यक्ष के रुप में सफलतम एक कार्यकाल पूरा कर लिया है। पार्टी की ओर से कोई लिखित पत्र जारी नहीं किया गया है, लेकिन बीते कुछ समय से प्रभारी अरुण सिंह द्वारा दो तीन बार बयान दिया गया है कि चुनाव तक सतीश पूनियां ही अध्यक्ष रहेंगे, इससे साफ हो जाता है कि फिलहाल कम से कम एक साल तक पार्टी अध्यक्ष के तौर पर सतीश पूनियां बने रहेंगे।
गौर करने वाली बात यह है कि सतीश पूनियां के अध्यक्ष बनने के बाद जिस नेता को सबसे अधिक तकलीफ से गुजरना पड़ा है, वह है पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे। इससे पहले साल 2008—9 के दौरान भी वसुंधरा राजे और तत्कालीन अध्यक्ष ओम प्रकाश माथुर के बीच खींचतान देखने को मिली थी, लेकिन अंतत: एक साल में ही वसुंधरा राजे की जीत हुई और ओम माथुर को हटना पड़ा था। जबकि बीते तीन साल से वसुंधरा राजे और सतीश पूनियां के दो गुट बने हुये हैं, फिर भी वसुंधरा की नाराजगी से पार्टी आलाकमान को कोई फर्क पड़ता दिखाई नहीं दे रहा है। वसुंधरा खेमा तीसरी बार सीएम बनने का दावा तो कर रहा है, लेकिन खुद को पूरी तरह से साइड लाइन भी देख रहा है। वसुंधरा राजे के समर्थक नेता पार्टी कार्यालय से दूरी बनाकर बैठे हुये हैं।
साल 2002 में वसुंधरा राजे को पार्टी ने अध्यक्ष बनाकर राजस्थान भेजा था, जिसके बाद से लेकर सतीश पूनियां के अध्यक्ष बनने तक वसुंधरा ने सत्ता और संगठन के माध्यम से पार्टी पर एकछत्र राज किया है। उनको किसी भी अध्यक्ष की ओर से चुनौती नहीं मिली है, लेकिन पहली बार ऐसा हो रहा है कि वसुंधरा राजे को अपनी जगह तलाशने के लिये संघर्ष करना पड़ रहा है। इसका सबसे बड़ा कारण तो खुद केंद्रीय आलाकमान है। गृहमंत्री अमित शाह और पार्टी प्रभारी अरुण सिंह जैसे नेताओं के द्वारा बार बार राजस्थान में कहा जाता है कि अगला चुनाव मोदी और कमल के निशान पर लड़ा जायेगा। उपर से सतीश पूनियां द्वारा संगठन को अपने हिसाब से डिजाइन किया गया है, जिसमें वसुंधरा राजे की पूरी तरह से छाया गायब कर दी गई है। भले ही वसुंधरा राजे आज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष हों, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि वसुधंरा के पास पार्टी स्तर पर करने को कुछ भी काम नहीं है। अमित शाह ने जब जयपुर में कहा कि अगला चुनाव मोदी के चेहरे पर लड़ा जायेगा, तभी यह बात साफ हो गई थी कि वसुंधरा राजे को युग अब इतिहास बन चुका है।
हालांकि, पार्टी की परीपाटी के अनुसार उनको बिलकुल जवाब नहीं दिया गया है, लेकिन फिर भी यह बात साफ हो गई है कि वह आगे ना तो पार्टी की अध्यक्ष बनने वाली हैं, और ना ही मुख्यमंत्री का चेहरा बनाया जायेगा। राजनीति के जानकारों का मानना है कि साल 2013 के समय राजस्थान की जन सभाओं में जब 'मोदी तुझसे बेर नहीं, वसुंधरा तेरी खैर नहीं' के नारे लगने लगे थे, तभी यदि पार्टी आलाकमान ने वसुंधरा को सीएम फेस से हटा दिया होता तो शायद 2018 के चुनाव बाद कांग्रेस सत्ता तक नहीं पहुंच पाती, लेकिन भाजपा ने बड़ा जोखिम उठाना उचित नहीं समझा और इसका खामियाजा पार्टी को सत्ता से बाहर बैठकर उठना पड़ा। राजस्थान में कड़ाके की ठंड पड़ रही है और ठीक अगले साल इसी ठंड के बीच प्रदेश में विधानसभा चुनाव होंगे। उस समय यदि भाजपा ने वसुंधरा राजे को प्रमुखता नहीं दी, तो यह पक्का हो जायेगा कि राजस्थान 25 साल बाद गहलोत—वसुंधरा के सियासी गठजोड़ से मुक्ति पाने जा रहा है। जनवरी या फरवरी में राज्य का बजट आयेगा, जिसमें गहलोत सरकार चुनावी घोषणाओं का पिटारा खोल देगी। उन घोषणाओं के दम पर कांग्रेस सत्ता रिपीट होने का दावा करेगी, लेकिन भाजपा ने अभी से सत्ता विरोधी लहर का दावा ठोक दिया है। ऐसे में आने वाले 11 महीनों का समय अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री के पद से हटाने, सचिन पायलट को आखिरी साल में सीएम बनाने और चुनाव के बाद वसुंधरा राजे की राजनीतिक पारी का अंत होने जैसे घटनाओं की कहानी सुनी, देखी और पढ़ी जायेगी।
वसुंधरा राजे वैसे तो अभी केवल 70 साल की हुई हैं, लेकिन इस दौरान उन्होंने 1984 से 5 बार लोकसभा सांसद और पांच बार विधायक का चुनाव जीती हैं। एक समय ऐसा था जब वसुंधरा राजे का पार्टी में एकछत्र राज चलता था। वह दौर भी लोगों को याद है जब 2009 में उनको नेता प्रतिपक्ष के पद से हटा दिया गया था, तब कैसे भाजपा के विधायक उनके पक्ष में इस्तीफा देने के लिये दिल्ली चले गये थे। बाद में पार्टी ने उनको फिर से नेता प्रतिपक्ष बनाकर मामला शांत किया था।
साल 2013 में भले ही देश में मोदी लहर चल पड़ी हो, और उसपर सवार होकर वसुंधरा राजे की लीडरशिप में भाजपा ने इतिहासिक 163 सीटों पर प्रचंड़ जीत दर्ज की हो, लेकिन वसुंधरा राजे को राजनीतिक जीवन का वही दौर सबसे पॉवरफुल माना जाता है। उसी दौर में वसुंधरा ने अमित शाह जैसे कठोर माने जाने वाले पार्टी के अध्यक्ष को राजस्थान में अपनी मर्जी का अध्यक्ष नहीं बनाने दिया। बाद में अमित शाह को भी वसुंधरा राजे की माननी पड़ी और उनके बेहद करीबी अशोक परनामी को अध्यक्ष बनाया गया। अब समय बदल गया है और बीते दिनों जब चढ़ती सर्दी के साथ हुये विधानसभा चुनाव में कई चढ़ती उम्र के नेताओं के टिकट काटकर भाजपा गुजरात में प्रचंड जीत हासिल कर चुकी है, उसके बाद अब गुजरात मॉडल के सियासी रुप ने जोर पकड़ लिया है। गुजरात में 70 क्या 65 साल वालों के भी टिकट काटे गये हैं, उससे राजस्थान में भी नेताओं की धड़कनें तेज हो गई हैं। माना जा रहा है कि इस तर्ज पर वसुंधरा राजे समेत उनके 40 करीबी लोगों को टिकट नहीं दिया जायेगा।
हालांकि, वसुंधरा राजे को सम्मान के तौर पर केंद्र में मंत्री बनाया जा सकता है या किसी राज्य का राज्यपाल बनाया जा सकता है। क्योंकि यदि राजस्थान में किसी अन्य को मुख्यमंत्री का बनाया जायेगा, तो फिर ऐसा तो है नहीं कि वसुंधरा राजे को उसके अंडर में मंत्री बनाया जाये। हालांकि, भाजपा ऐसा कारनामा महाराष्ट्र में कर चुकी है, जहां पर पूर्व मुख्यमंत्री देंवेंद्र फडनवीस एकनाथ शिंदे के उप मुख्यमंत्री बना दिये गये हैं। फिर भी लोगों का मानना है कि बड़े कद वाली नेता होने के कारण वसुंधरा राजे को सम्मानजनक पद दिया जायेगा। जिसमें पार्टी विजय रुपाणी सरीखी पोस्ट देकर संगठन के काम में भी लगाया जा सकता है। दरअसल, पार्टी के पास बहुत सारे काम होते हैं, जिनमें अनुभवी नेताओं को लगाया जाता है, ताकि उनके लंबे अनुभव से पार्टी की नई लीडरशिप को ट्रेंड किया जाता है।
चर्चा के वसुंधरा राजे काफी समय से सतीश पूनियां को अध्यक्ष पद से हटाने के प्रयास कर रही थीं,​ लेकिन अब उनका पहला कार्यकाल पूरा होने और दूसरा कार्यकाल शुरू होने के बाद भी जब पार्टी ने कोई कदम नहीं उठाया है, तब यह तय हो गया है कि राजस्थान की सक्रिय राजनीति से वसुंधरा राजे का युग बीत चुका है और इस दावे पर से 2023 के विधानसभा चुनाव में पर्दा उठ जायेगा।

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