राजस्थान का सबसे बड़ा नेता कौन?

Ram Gopal Jat
राजस्थान में विधानसभा चुनाव इस साल के अंत तक होना प्रस्तावित हैं। कांग्रेस की अशोक गहलोत सरकार अपना आखिरी बजट 10 फरवरी को पेश करने जा रही है। इसके बाद राजस्थान में एक अलग तरह की सियासी जंग ​शुरू होने वाली है। राज्य की सत्ताधारी पार्टी अपने ही नेताओं के प्रहारों से सामना करती हुई पाई जायेगी तो विपक्षी दल भाजपा भी सरकार के खिलाफ मुद्दे तैयार करके बैठी हुई है। बीजेपी इस बात का इंतजार कर ही है कि चुनाव का माहोल बने और उसके बाद अपने पत्ते खोलें, क्योंकि राजस्थान कई मायनों में नंबर बना हुआ है। चाहे बेरोजगारो की बात करें, महिला अत्याचार की बात करें, दलित उत्पीड़न में यह सरकार सारे रिकॉर्ड तोड़ चुकी है। प्रदेश में पांच बड़े शहरों में साम्प्रदायिक दंगे हो चुके हैं। चार साल में 16 भर्ती परिक्षाओं के पेपर लीक हुये हैं, जिसके चलते बरसों से तैयारी करने वाले बेरोजागारों में भयंकर निराशा छाई हुई है। इन 10 महीनों में वो माहोल बनेगा, जो आने वाली सरकार की तस्वीर साफ कर देगा।
किंतु उससे भी अधिक रोचक बात यह है कि क्या वर्तमान सरकार अपना कार्यकाल पूरा कर पायेगी? क्योंकि जिस तरह से अशोक गहलोत बनाम सचिन पायलट की जंग ने कांग्रेस की किरकिरी करवाई है, उससे लग नहीं रहा है कि आने वाले 10 महीने आसानी से निकल पायेंगे। पिछले दिनों छह जगह पर बड़ी रैलियां करके अपने तेवर दिखाने वाले सचिन पायलट एक बार फिर से शांत मुद्रा में आ गये हैं। माना जा रहा है कि बजट पेश होने का इंतजार कर रहे हैं, और उससे भी बड़ी बात यह है कि कांग्रेस आलाकमान ने पायलट को लेकर कोई फैसला लेने की तैयारी कर ली है, तो ऐसे में दिल्ली के आदेश का इंतजार भी कर रहे हैं। यात्रा से ​फ्री होने के बाद राहुल गांधी ने पूर्व प्रभारी अजय माकन और वर्तमान प्रभारी रंधावा से बात की है और राज्य के राजनीतिक हालात पर चर्चा की है। कांग्रेस के नेताओं का कहना है कि अशोक गहलोत बजट पेश करने के बाद विदा हो सकते हैं। आगे चुनाव की तैयारी के लिये और सत्ता रिपीट कराने के लिये सचिन पायलट को सीएम पद पर बिठाया जा सकता है। इसको लेकर कांग्रेस का एक धड़ा जयपुर से दिल्ली तक काम कर रहा है, जिसका परिणाम इस महीने के अंत तक आने की उम्मीद है। हालांकि, यह भी कहा जा रहा है कि जब तक बजट भाषण पर रिप्लाई नहीं होगा, तब तक सीएम को बदलना कठिन है। जिस तरह से अशोक गहलोत आत्मविश्वास से लबरेज दिखाई दे रहे हैं, उससे भी सीएम बदलने की बातों पर यकीन करना कठिन है। इस वजह से कांग्रेस में दोनों ओर से चुप्पी चल रही है।
हालांकि, एक दिन पहले ही पूर्व स्पीकर दीपेंद्र सिंह शेखावत ने 25 सितंबर को हुये जबरन इस्तीफों पर सवाल उठाये हैं। इस्तीफा देने वाले 81 विधायकों ने अपने इस्तीफे तो वापस ले लिये, लेकिन मामला कोर्ट में लंबित है। कोर्ट में पेश हलफनामे में सरकार ने कहा है कि विधायकों ने मर्जी से इस्तीफे नहीं दिये थे, बल्कि उनसे दबाव डालकर दिलवाये गये थे। जिसको लेकर भाजपा नेता राजेंद्र राठौड़ की अगुवाई में पार्टी विधायकों ने पांच मंत्रियों के खिलाफ विधानसभा में विशेषाधिकार हनन का नोटिस दिया है। अब यह प्रकरण विधानसभा और कोर्ट के बीच अधिकारों और फैसलों के कारण काफी रोचक हो सकता है। इधर, सियासी गलियारों में पायलट—गहलोत की सियासी जंग के बीच यह भी चर्चा चल पड़ी है कि अगले चुनाव में कौनसी पार्टी किस पर भारी पड़ने वाली है। ऐसा नहीं है कि वर्चस्व की जंग केवल कांग्रेस में ही है, बल्कि भाजपा भी इससे अछूती नहीं है, जहां पर वसुंधरा राजे और संगठन मुखिया डॉ. सतीश पूनियां के गुट आमने सामने हैं। दोनों में तभी शीतयुद्ध शुरू हो गया था, जब सतीश पूनियां को अध्यक्ष बनाया गया था। माना जाता है कि वसुंधरा राजे अध्यक्ष पद पर सतीश पूनियां को ना तो तब पसंद करती थीं, और ना ही आज उनको देखना चाहती हैं। चर्चा तो यहां तक चल पड़ी है कि वसुंधरा राजे चुनाव से पहले सतीश पूनियां को हटाकर खुद या अपने किसी खास को अध्यक्ष बनाना चाहती हैं, ताकि टिकट वितरण में अपना दबदबा बनाकर जीत के बाद सीएम की कुर्सी हासिल की जा सके। किंतु तीन साल का पहला कार्यकाल पूरा होने के बाद भी सतीश पूनियां को नहीं हटाया जाना इस बात का पुख्ता प्रमाण माना जा रहा है कि चुनाव तक अध्यक्ष नहीं बदला जायेगा। वैसे भी पार्टी के शीर्ष पर बैठे समझदार नेता ऐसे समय में अध्यक्ष बदलकर पार्टी में खेमेबाजी नहीं करना चाहेंगे। इस वजह से वसुंधरा बनाम सतीश पूनियां चलता रहेगा। साथ ही दूसरे नेता जो सीएम बनने का सपना देख रहे हैं, वो भी अपने अपने हिसाब से दिल्ली में लॉबिंग कर रहे हैं, जिनमें गजेंद्र सिंह शेखावत, ओम बिडला और रेलमंत्री अश्विनी वैष्णव का नाम प्रमुखता से लिया जा रहा है।
तीसरे मोर्चे के रुप में हनुमान बेनीवाल की राष्ट्रीय लोकतांत्रित पार्टी प्रदेश की 150 सीटों पर फॉकस कर रही है, जो किंग मैकर बनना चाहती है। पिछली बार के चुनाव और इस बार की इलेक्शन में वैसे तो काफी अंतर है, क्योंकि पिछली बार सत्तापक्ष कई जगह बिखरा हुआ नहीं था, इस​ वजह से रालोपा को अंत समय में खड़े करने के बाद भी तीन विधायक मिल गये, लेकिन इस बार सत्तापक्ष ही दो जगह बंटा हुआ है। इसके कारण विपक्षी वोटों में सेंधमारी करना असंभव है। यह भी हो सकता है कि चुनाव से पहले रालोपा का भाजपा या कांग्रेस के साथ गठबंधन हो जाये, या बसपा, आम आदमी पार्टी जैसे दलों के साथ अलाइंस कर लिया जाये। सत्ता किसके पास जायेगी और विपक्ष में कौन बैठेगा, इसका जवाब अगले 10 महीने में तैयार हो जायेगा और चुनाव परिणाम के बाद वह सामने भी आ जायेगा। किंतु सवाल यह उठता है​ कि वोटर्स को प्रभावित कौन करेगा? क्योंकि दो—दो मुख्यमंत्री और कई विपक्षी नेताओं के बीच जनता के द्वारा एक चेहरा चुन पाना कठिन हो जायेगा। मोटे चेहरों में इस वक्त अशोक गहलोत, वसुंधरा राजे, सचिन पायलट, सतीश पूनियां, हनुमान बेनीवाल, किरोडीलाल मीणा और गोविंद सिंह डोटासरा हैं। इसलिये खूबियों और कमियों के साथ आज हम इन्हीं चेहरों पर बात कर संभावना तलाशने का प्रयास करेंगे कि कौन चेहरा आज पॉवरफुल है और चुनाव में निर्णायक हो सकता है।
मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की बात की जाये तो उनको पांच बार सांसद, पांच बार विधायक, दो बार केंद्रीय मंत्री, दो बार पार्टी अध्यक्ष और तीन बार मुख्ममंत्री रहने के कारण सभी बड़े नेताओं में सर्वाधिक अनुभव है। वह अपनी सीट से लगातार जीत भी रहे हैं, लेकिन पिछले आम चुनाव में जोधपुर से उनके बेटे वैभव गहलोत की हार के बाद यह तय हो गया कि उनका अपने जिले में भी जनाधार नहीं है। यह बात सही है कि वह तीन बार सीएम बन चुके हैं, लेकिन तीनों ही बार उनको सीएम दूसरों की मेहनत पर बनाया गया था। अशोक गहलोत के जनाधार का अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि लोकसभा चुनाव में उनके बेटे को खुद अशोक गहलोत के बूथ से भी हार झेलनी पड़ी थी, जबकि खुद गहलोत मौजूदा सीएम थे। राज्य का बच्चा बच्चा जानता है कि गहलोत किस वजह से राजनीति में यहां तक पहुंचे हैं। और उससे भी बड़ी बात यह है कि खुद गहलोत बिडला सभागार में बोल चुके हैं कि सोनिया गांधी के आर्शीवाद से वह तीन बार मुख्यमंत्री बन चुके हैं। इसी से अंदाजा लगा सकते हैं कि उनको जनता ने वोट देकर सीएम नहीं बनाया, बल्कि सोनिया गांधी ने हाथ रखकर इस कुर्सी पर बिठाया है।
दूसरा नाम है उनके सबसे बड़े सियासी दुश्मन सचिन पायलट का, जो बीते चार साल से सीएम पद के लिये गहलोत के साथ जंग लड़ रहे हैं। दो बार सांसद, एक बार केंद्रीय मंत्री, एक बार विधायक, डेढ साल तक उपमुख्यमंत्री और छह साल तक पीसीसी चीफ जैसे पदों पर राजनीति में करीब दो दशक का अनुभव के साथ जनता को सहज ही आकर्षित करने की क्षमता रखने वाले नेता सचिन पालयट का पूरा राजस्थान में लगभग समान जनाधार है। वह मेवाड से लेकर पूर्वी राजस्थान में खासे प्रसिद्ध हैं, खासकर युवा वर्ग में उनके प्रति दीवानगी देखते ही बनती है। पायलट देखने में तो युवाओं के आकर्षण हैं ही, साथ ही बोलने में धारा प्रवाह हिंदी और अंग्रेजी पर समान कमांड उनको दूसरे नेताओं से अलग बनाती है। हालांकि, ये दोनों भाषाएं वसुंधरा राजे को भी आती हैं, लेकिन वह इतनी धारा प्रवाह नहीं बोल पाती हैं, जितने पायलट बोल सकते हैं। राजनीतिक पंडित तो आज भी इस बात पर अडिग हैं कि पिछली जीत कांग्रेस को सचिन पायलट के चेहरे पर ही मिली थी। अशोक गहलोत द्वारा 21 सीटों पर ले जाना और पायलट द्वारा मेहनत करके वापस 100 सीटों पर ले आना उनके बड़े जनाधार का सबसे बड़ा प्रमाण है। इसलिये आज की तारीख में सचिन पायलट अशोक गहलोत से कई गुणा बडे जनाधार वाले नेता माने जाते हैं।
राजस्थान की राजनीति में वसुंधरा राजे का नाम लिये ​बिना वर्तमान सियासत का विशलेषण अधूरा ही रह जाता है। पांच बार सांसद, दो बार केंद्र में मंत्री, दो बार भाजपा की अध्यक्ष, पांच बार विधायक और दो बार मुख्यमंत्री रहने वालीं भाजपा की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष वसुंधरा राजे का जादू जब 2003 में जनता के सिर चढ़कर बोल रहा था, तब उनका सियासी सफर चरम पर था। हालांकि, उनके होते हुये भाजपा ने 2013 में ऐतिहासित 163 सीटों पर जीत हासिल की थी, लेकिन उसको नरेंद्र मोदी का चमत्कार माना जाता है। इसके बावजूद यदि गहलोत वसुंधरा में तुलना की जाये तो जनाधार के मामले में वसुधंरा राजे बहुत भारी पड़ती हैं, जिनका पूरे राज्य में एक विशेष जनाधार है। फिर भी पार्टी उनके नाम पर रिश्क नहीं ले सकती, क्योंकि 2008 और 2018 में राज्य की जनता उनको नकार चुकी है। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो संगठन में रहते हुये जनता के लाड़ले बन जाते हैं। दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी और देश के सबसे बड़े राज्य के भाजपा अध्यक्ष डॉ. सतीश पूनियां लंबे समय तक अनेक कारणों से विधानसभा नहीं पहुंच पाये। किंतु संगठन में काम करने का उनको 40 साल का अनुभव हो चुका है। पहली बार विधायक हैं और पार्टी अध्यक्ष के तौर पर उन्होंने अपने एक अलग इमैज बनाई है। प्रदेश में उनका जनाधार भी अब बनने लगा है। विधायक बनने के बाद चार साल से अति सक्रिय रहने के कारण आमेर विधानसभा सीट पर लोग उनको आसान जीत वाला उम्मीदवार मान रहे हैं। संगठन मुखिया के कारण प्रदेशभर के भाजपा कार्यकर्ता और पार्टी के समर्थक भी अब उनको एक उम्मीद की नजर से देखने लगे हैं।
सहज स्वभाव होने के कारण कोई भी कार्यकर्ता और नेता उनको अपने करीब पाता है। जनता में वह एक आम कार्यकर्ता की तरह रहते हैं, इसलिये लोग अब उनसे जुड़कर खुश भी होते हैं। सचिन पायलट और सतीश पूनियां में फर्क यह है कि पायलट जहां मंच से जनता को रोमांचित कर देते हैं और सतीश पूनियां जनता के बीच में जाकर उनको मन मोहने का काम करते हैं। भाजपा की पहुंच और अपने सरल स्वभाव के कारण अब सतीश पूनियां भी काफी हद तक एक बड़े जनाधार वाले नेता बनते जा रहे हैं। वर्तमान के हिसाब से देखें तो उनके पास भले ही बड़ा जनाधार नहीं हो, किंतु चुनाव बाद यदि पार्टी उनको सीएम पद पर बिठाती है, तो फिर उनका कद बहुत तेजी से बढ़ेगा। आंदोलन से निकलकर कैबिनेट मंत्री बने और फिर आरक्षण के मामले में अपने ही मुख्यमंत्री से अनबन के चलते पार्टी छोड़ने वाले किरोड़ीलाल मीणा की 9 साल बाद भाजपा में वापसी हुई और फिर उनको राज्यसभा सांसद बनाया गया। आज प्रदेश में युवाओं के मामले में सबसे ​अधिक आंदोलन करने वाले किरोडीलाल मीणा पूर्व राजस्थान में बड़ा जनाधर रखते हैं। पूर्वी राजस्थान के आधा दर्जन से अधिक जिलों में किरोडीलाल मीणा के समर्थक बड़े पैमाने पर मिल जायेंगे। विधायक, सांसद, कैबिनेट मंत्री जैसे पदों पर रहने और राजनीति में करीब 40 साल के अनुभव के बल पर किरोडीलाल आज भाजपा के तुरुप का पत्ता हैं, जो करीब आधे राज्य में जनता को सीधा प्रभावित करने की ताकत रखते हैं।
इसी तरह से राजस्थान विवि​ में छात्रसंघ चुनाव जीतकर राजनीति में प्रवेश करने और चार साल पहले खुद की पार्टी को राज्य की पहली क्षेत्रीय पार्टी बनाने वाले हनुमान बेनीवाल आज तीसरी सबसे बड़ी ताकत हैं। बेनीवाल 2008 में भाजपा के विधायक थे, फिर वसुंधरा से अनबन के कारण उनको बाहर कर दिया गया। 2013 का चुनाव निर्दलीय जीते और फिर पांच साल तक बड़ी रैलियां कर इतिहास बनाने वाले बेनीवाल 2018 में तीसरी बार विधायक बने। उसके पांच महीने बाद ही भाजपा से गठबंधन कर नागौर से सांसद का चुुनाव जीते। आज उनके तीन विधायक और एक सांसद हैं। जैसे पूर्वी राजस्थान में किरोडीलाल मीणा सबसे बड़े नेता हैं, ठीक वैसे ही पश्चिमी राजस्थान में हनुमान बेनीवाल सबसे बड़े जनाधार वाले नेता हैं। आंदोलन और धरने, प्रदर्शन हनुमान बेनीवाल के राजनीति में प्रमुख हथियार हैं। वर्तमान में अशोक गहलोत से काफी बड़ा जनाधार हनुमान बेनीवाल का है, जो भाजपा के उम्मीदवार गजेंद्र सिंह शेखावत का प्रचार कर जोधपुर में गहलोत के बेटे को लोकसभा चुनाव पौने तीन लाख वोटों से हरवा चुके हैं। शेखावाटी से लेकर मेवाड़ और मारवाड़ से लेकर ढूंढाड तक बेनीवाल के समर्थकों का मेला जुटा जाता है।
पायलट—गहलोत की जंग के बाद सचिन पायलट को पीसीसी चीफ के पद से हटा दिया गया था। उसके दो दिन पहले गहलोत के आर्शीवाद से उनके करीबी गोविंद सिंह डोटासरा को पीसीसी चीफ बनाया गया। आज दो साल से अधिक समय हो चुका है, लेकिन वो ना तो जिलाध्यक्ष बना पाये हैं और ना ही अपनी पूरी कार्यकारिणी का गठन कर पाये हैं। सीकर जिले की लक्ष्मणगढ़ सीट से तीसरी बार जीतने वाले डोटासरा के जनाधार की बात करें तो सीकर जिले में भी नहीं है। यदि पद नहीं हो तो उनका भी हाल गहलोत की तरह ही है। उनके सामने भाजपा के पास मजबूत उम्मीदवार नहीं होने के कारण वह विधायक का तीन बार चुनाव जीत चुके हैं, लेकिन राज्य के हिसाब से उनके पास कोई जनाधार नहीं है।
इन नेताओं की रैंकिंग को निर्धारित किया जाये तो पहले नंबर पर सचिन पायलट आते हैं। यदि पूरी ताकत से पार्टी के बैनर तले उतरे तो दूसरे स्थान पर वसुंधरा राजे को रखा जा सकता है। इसी तरह से जनाधार के मामले में हनुमान बेनीवाल को तीसरे पायदान पर रखा जा सकता है। अपने अलग अंदाज के कारण आज पूर्वी राजस्थान में किरोडीलाल मीणा और सचिन पायलट के बीच जनाधार की प्रतियोगिता हो सकती है। इसलिये चौथे पायदान पर किरोड़ीलाल मीणा को रखना उचित होगा। सबसे बड़े संगठन मुखिया सतीश पूनियां तीन साल से प्रदेशभर में दौरे कर रहे हैं, इसलिये उनका भी संगठनात्मक जनाधार तैयार हो रहा है। ऐसे में सतीश पूनियां को पांचवे नंबर पर और लंबे राजनीति अनुभव के साथ तीन बार सीएम रहने के बाद भी अपने जिले तक सीमित जनाधार वाले अशोक गहलोत को छठे स्थान रखना उचित रहेगा। वह राजनीति मे जादूगर हैं, क्योंकि वह गांधी परिवार में जादू कर देते हैं और तीन बार सीएम बन जाते हैं, लेकिन जनता में गहलोत का कोई जादू नहीं है। इस सूची में सबसे आखिर में पीसीसी चीफ के कारण छठे नंबर पर गोविंद सिंह डोटासरा को रखना अनुचित नहीं होगा।

Post a Comment

Previous Post Next Post