मोदी—योगी विरोधी जमात के होली—दिवाली एक साथ आ गई

Ram Gopal Jat
हिंडनबर्ग रिसर्च रिपोर्ट की द्वेषतापूर्ण रिपोर्ट के बाद कुछ दिन पहले तक भारत के सबसे अमीर घराने अडाणी ग्रुप के शेयरों में गिरावट का दौरा लगातार जारी है। बुधवार तक अडानी ग्रुप के शेयरों में करीब 30 फीसदी की गिरावट के बाद कंपनी ने अपना एफपीओ वापस ले लिया है। अडाणी ग्रुप के एफपीओ में सबसे अधिक निवेश कॉरपोरेट और विदेशी निवेशकों ने किया था, जो इस ग्रुप की सफलता से प्रभावित हैं। इस रिपोर्ट से पहले और बाद में भी एफपीओ में निवेश के लिए खासा उत्साह भी देखने को मिला है। अडाणी एंटरप्राइजेस लिमिटेड के एफपीओ में अपने इश्यू प्राइज से 1.12 फीसदी तेजी देखी गई। जिसका मतलब यह होता है कि अडानी ग्रुप पर निवेशकों को पूरा विश्वास है। अडाणी एंटरप्राइजेस लिमिटेड द्वारा जनता से अधिक पैसा लेकर विकास के प्रोजेक्ट्स में लगाने के लिये पिछले दिनों यह एफपीओ लाया गया था, जिससे कंपनी ने 20 हजार करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य रखा था। शेयर बाजार में उतार-चढ़ाव के बीच मंगलवार को कॉरपोरेट्स और विदेशी निवेशकों ने अडानी एंटरप्राइजेज लिमिटेड के एफपीओ को बेलआउट कर दिया था, यानी जितने भी शेयर थे, वो सब बिक चुके थे और उससे कहीं अधिक में बिके, जितने की प्राइस रखी गई थी।
हालांकि, अडाणी ग्रुप के शेयरों में बुधवार को भी गिरावट देखने को मिली। इनमें अडाणी ग्रुप के दो शेयरों ने निवेशकों को सबसे ज्यादा निराश किया। अडाणी एंटरप्राइजेस के शेयरों में अब तक करीब 28 फीसदी और अडाणी पोर्ट के शयरों में लगभग 19 फीसदी की गिरावट देखने को मिली है। एफपीओ को वापस लेने के फैसले पर अडानी ग्रुप के अध्यक्ष गौतम अडाणी ने कहा कि ” पूरी तरह से सब्सक्राइब किए गए FPO के बाद इसे वापस लेने के फैसले ने कई लोगों को चौंका दिया होगा, लेकिन बाजार में आज के उतार-चढ़ाव को देखते हुए, बोर्ड ने दृढ़ता से महसूस किया कि FPO के साथ आगे बढ़ना नैतिक रूप से सही नहीं होगा। उन्होंने कहा कि कंपनी के लिए निवेशकों का हित सर्वोपरि है। इसलिए निवेशकों को संभावित नुकसान से बचाने के लिए कंपनी ने FPO वापस ले लिया है। इस निर्णय का कंपनी मौजूदा परियोजनाओं और भविष्य की योजनाओं पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
शेयर बाजार में कंपनियां दो प्रकार से धन जुटाती हैं। एक आईपीओ लाती है, तो दूसरा तरीका एफपीओ का होता है। एफपीओ का मतलब फॉलो ऑन पब्लिक ऑफर होता है, जबकि आईपीओ का अर्थ इनिशियल पब्लिक ऑफर होता है। एफपीओ के जरिए शेयर बाजार में पहले से लिस्टेड कंपनियां फंड जुटाने के लिए निवेशकों को ऑफर करती हैं। जब भी कंपनी बाजार में एफपीओ लेकर आती है तो उसका एक बेस प्राइस तय करती है। इसमें जिन लोगों के पास कंपनी के पहले से शेयर मौजूद हैं, उनके अलावा नए निवेशक भी निवेश कर सकते हैं। इसी तरह से जब कोई कंपनी पहली बार अपने शेयर बाजार में लाती है तो उसे आईपीओ कहा जाता है। आईपीओ आने के बाद कंपनी शेयर बाजार में लिस्टेड हो जाती है। हालांकि, जब लिस्टेड कंपनी इसके बाद निवेशकों को ऑफर करती है, तो उसे एफपीओ कहा जाता है।
पिछले महीने की 26 तारीख को हिंडनबर्ग रिसर्च की रिपोर्ट आने के बाद से अडाणी ग्रुप के शेयरों में गिरावट देखने को मिल रही है। इस रिपोर्ट के आने से पहले गौतम अडाणी की कुल संपत्ति करीब 120 अरब थी। अब इसमें 45 अरब रुपये, यानी 4.5 लाख करोड़ रुपये की गिरावट आ चुकी है। सितंबर में गौतम अडाणी 155 अरब रुपये की संपत्ति के साथ दुनिया के दूसरे सबसे अमीर व्यक्ति बन गए थे। इस बड़ी गिरावट के बाद गौतम अडाणी अब दुनिया के सबसे अमीर लोगों की लिस्ट में 15वें नंबर पर पहुंच गए हैं, तो रिलायंस इंडस्ट्रीज के चेयरमैन मुकेश अंबानी इस लिस्ट में 9वें नंबर पर आ गए हैं। इस रिपोर्ट और अडानी ग्रुप के शेयरों में गिरावट और आईपीओ—एफपीओ बताना मेरा मकसद नहीं है। आज मैं इस बात से पर्दा उठाउंगा कि भारत में जब संघ, मोदी, भाजपा, योगी से किसी भी तरह से नाम के ​साथ जुड़ी कोई कंपनी, व्यक्ति या समूह को लेकर कोई नकारात्मक समाचार सामने आता है तो एक विशेष प्रकार की जमात उसको कैसे खुशियों के साथ प्रचारित करने का काम करती है। इस जमात में किसी एक धर्म, जाति, समाज या क्षेत्र से मतलब नहीं है। इस अजीब सी भयानक कुंठित जमात में अलग अलग जगह से आने वाले मानव की शक्ल वाले दानवकर्मी होते हैं, जो भारत में आरएसएस, भाजपा, मोदी, योगी की बर्बादी के सपनों वाली खबर का इंतजार उन गिद्धों की भांति करते हैं, जो जानवर के मरने या मरने जैसी हालत में पहुंच जाता है और फिर उस निरीह कमजोर शरीर को नौंच डालते हैं।
आपको वास्तव में ये दानवकर्मी मानव की शक्ल में दिखाई दे रहे होंगे, लेकिन वास्तव में ये मानव हैं नहीं। इनको अपनी कुंठा मिटाने, अपने विदेशी आकाओं को खुश करने, धूर्तता की प्राकाष्ठा को शांत करने के साथ पैसा कमाने और संघ, बीजेपी, मोदी, योगी की बर्बादी के सपने देखने में ही मजा आता है। आपको ऐसे कुछ जीवों के बारे में विस्तार से बताता हूं कि इनका असल रुप क्या है और वास्तव में दिखाने का प्रयास क्या करते हैं? कहने को तो ये पत्रकार हैं, लेकिन पत्रकारिता इनके लिये एक जरिया है अपने आप को बचाने का और लोगों को सहज भाव से गुमराह करने का। यह विशेष प्रकार की जमात पिछले 8—9 साल में सामने आई है। ऐसा नहीं है कि मोदी सरकार के कारण ही सामने आई है। असल में इस युग में सोशल मीडिया ने इनके दोहरे चेहरे पर से पर्दा हटा दिया है। पहले ये लोग टीवी में बोलकर या अखबारों में लिखकर तय करते थे कि किस व्यक्ति को उठाना है और किस उठे हुये इंसान को गिराना है। ये लोग एक विशेष प्रकार के एजेंडे के साथ काम करते थे। इनको सरकारों में कोई पूछने वाला नहीं था, और जो समझदार दर्शक थे, उनके पास इनको पूछ पाना का साधन नहीं था। जिसके कारण ये लोग अपने एक तरफा ऐजेंडे को सेट करते रहते थे।
पत्रकारिता का मजबूत हथियार इनके पास था, जिसके कारण आम नागरिक सहज ही इनपर भरोसा भी कर लेते थे। इनका मैन स्ट्रीम मीडिया में दौर आजादी के बाद करीब 3 दशक बाद शुरू हुआ और लगभग एक दशक पूर्व तक बिना रोक टोक के चलता रहा। इन बीच के चार दशक में इस जमात के लोगों ने देश के अच्छे लोगों को दबाने का काम किया, उनको चींटी की तरह पैरों में रौंदने का काम किया और जो योग्य लोग थे, उनको जमींदोज करने का ही काम किया। आज आप देखते होंगे कि कैसे—कैसे गरीब, बिना चप्पल—जूतों वाले गांवों के लोगों को पद्म पुरस्कार दिये जा रहे हैं। हकिकत में देश और समाज के लिये काम करने वाले ऐसे हजारों—लाखों लोगों के काम को इस कुंठित जमात के लोगों ने समाचारों के माध्यम से दिखाने का ही काम नहीं किया। आज प्रतिवष दिये जाने वाले पद्म पुरस्कारों के समारोह में ऐसे—ऐसे लोग दिखाई देते हैं, जिनको खुद प्रधानमंत्री भी प्रणाम करते हैं। अन्यथा पहले ओब्लाइज लोग पुरस्कार प्राप्त करते थे और प्रधानमंत्री के प्रणाम करते हुये निकल जाते थे। हालांकि, समय बदलता है और भारत में भी समय बदला। आज गांव के गरीब से गरीब और झौंपडी में रहकर समाज को एक नई दिशा देने वाले देशभक्तों को जब पद्म पुरस्कार दिये जाते हैं, तो आम आदमी के मन में एक ही सवाल उठता है कि क्या भारत में यह लोग पहले काम नहीं करते थे? क्या इन लोगों ने बीते एक दशक में ही समाज के हित में काम शुरू किया है? या फिर इनके काम को किसी ने पहचाना ही नहीं? असल बात यह है कि जिस विशेष जमात की बात मैं कर रहा हूं, वही इसमें सबसे बड़ी बाधक थी।
यह जमात लुटियंस जोन में महंगी शराब की पार्टियों के साथ तय करती थी कि किसे पद्म पुरस्कार देना है और किसे समाज की मुख्यधारा से दूर करना है। इन्होंने खुद भी खूब पुरस्कार पाये हैं, लेकिन सबसे बड़े पुरस्कार इनको पैसे का मिला है, विदेशों में घूमने का मिला है, प्रधानमंत्री की हर विदेश यात्रा में उनके प्लेन में साथ जाने और उन होटलों में ठहरने का मिला है, जहां प्रधानमंत्री को ठहरना होता था। किंतु बीते आठ सालों में प्रधानमंत्री के साथ इनकी विदेश यात्राएं बंद हो गईं, महंगी होटलों में रुकने का सपना धूमिल हो गया और सबसे बड़ी बात यह है कि ​कई टीवी चैनल और अखबार ​मालिक भी इनसे दूरी बना चुके हैं। इस जमात में वैसे तो दो दर्जन से अधिक लोग हैं, लेकिन मैं उन भयानक कुंठित लोगों की बात करूंगा, जो सत्ता के सुखों से दूर होकर वैसे ही तड़प रहे हैं, जैसे जल के बिना मछली तड़पती है। कुछ दिनों पहले दिनों पहले तक एनडीटीवी में दिखने वाले रवीश कुमार का नाम तो आपने सुना ही होगा। यह रवीश कुमार इस जमात का मानसिक सरगना है। एनडीटीवी में अधिकांश हिस्सेदारी अडानी ग्रुप के पास जाने के बाद इसको लात मारकर बाहर निकाल दिया गया है। आजकल ये उसी यू ट्यूब पर अपनी कुंठा निकालता रहता है, जिस यू ट्यूब जैसे सर्वसुलभ प्लेटफॉर्म पर काम करने वालों को कल तक पत्रकार ही नहीं मानता था। आज यहीं यू ट्यूब पर रवीश कुमार अपनी भड़ास निकाल रहा है। यह बीते ढाई दशक से एक ही टीवी में काम करते हुये एजेंडा सेट करने में लगा हुआ था। वैसे तो इसके नैरेटिव सेट करने की शुरुआत 2002 में ही हो गई थी, जब गोधरा में 59 हिंदुओं को ट्रेन में आग लगाकर जला दिया गया था और उसके बाद गुजरात में साम्प्रदायिक दंगे हुये थे।
उन दंगों के बाद सीबीआई और सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित एसआईटी की लंबी जांच चली और अंतत: सुप्रीम कोर्ट ने तब गुजरात के मुख्यमंत्री और वर्तमान में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पूरी तरह से बरी कर दिया जो इस विशेष जमात के पेट में जोरदार दुख हुआ। उस घटना के बाद 20 साल बाद चाइन फंडेड ब्रिटेन के सरकारी चैनल बीबीसी ने एक डॉक्यूमेंट्री बनाई है, जिसका ना कोई आधार है, ना घटना से सीध कोई मेल है और ना ही उसमें ऐसे सबूत हैं, जो मोदी को जिम्मेदार साबित करते हों। इस डॉक्यूमेंट्री में झूठे गवाह बना दिये गये हैं, जो उस वक्त मौके पर मौजूद ही नहीं थे। ऐसे लोगों को पत्रकार और बुद्धिजीवी बताकर प्रस्तुत किया गया है, जिनका ना तो पत्रकारिता से कोई रिश्ता है और ना ही इनकी बुद्धि में बुद्धिजीवी जैसा कोई अणु पाया जाता है। इन दिनों इस फर्जी डॉक्यूमेंट्री को लेकर रवीश कुमार नैरेटिव बनाने में लगे हुये हैं। पहले एनडीटीवी के स्टूडियो में बड़े कैमरों के साथ रिकॉर्ड करते थे, आजकल मोबाइल में अपने बेडरुम में विडियो रिकॉर्ड कर रहे हैं, काम वही कर रहे हैं आज भी, काम या कंटेंट में कोई बदलाव नहीं आया है। आज भी उसी तरह से संघ, बीजेपी, मोदी, योगी के खिलाफ खबरें बनाने का काम करते हैं। बिहार से निकलकर दिल्ली के आईएमसी में ए​डमिशन लेकर भी पत्रकारिता की पढ़ाई पूरी नहीं करने वाले रवीश कुमार का इतिहास अपने ही समकक्षों को नौकरी बाहर करके आगे बढ़ने का रहा है, आज भी उनके द्वारा बाहर भगाये गये पीड़ित सोशल मीडिया पर दिखाई दे जाते हैं।
दस साल तक कांग्रेस की सत्ता वाली सरकार के समय इनके लिये अमृतकाल था। तब ये विदेशों में पीएम के साथ फ्री हवाई यात्राएं करते थे, पीएम मनमोहन सिंह के साथ महंगी होटलों में रहते थे और सरकार से महंगे गिफ्ट पाते थे। किंतु केंद्र में मोदी सरकार आने के बाद इसके सितारे गर्दिश में जाने शुरू हो गये थे। हालांकि, उसके बाद भी इनके पास विदेशी आकाओं से नैरेटिव सेट करने का मोटा माल आता रहा है, किंतु भारत की सरकार ने इनको भाव नहीं दिया, तभी से ये संघ, भाजपा, मोदी, योगी के घोर विरोधी बनकर सामने आये हैं। आजकल टीवी को बहुत मिस करते हैं, अनचाहे में टीवी में नहीं होने का दर्द मुंह से निकल ही जाता है। दर्द इतना गहरा है कि केवल रोते नहीं, बाकी सबकुछ कर लेते हैं। रवीश के जैसा ही एक और चेहरा है पुण्य प्रसून वाजपेयी। यह भी टीवी में कभी बड़े चेहरे के तौर पर जाने जाते थे। टीवी में अपनी हाथ मसलते हुये की अलग शैली के कारण विशेष जमात के दर्शक इनको बहुत पसंद करते थे, बाद में टीवी चैनल ने लात मार दी और फिर यह भी यू ट्यूब पर आ गये। हालांकि, इनके पास रवीश जितने कट्टर समर्थक नहीं हैं, लेकिन जो हैं, उनसे अपना काम चला लेते हैं। गोलगप्पे जैसा गोल और घास फूस जैसी दाढ़ी लिये रोज यू ट्यूब पर दिखाई देने वाले पूण्य प्रसून भी संघ, भाजपा, मोदी, योगी के खिलाफ गीत गाने का ही काम करते हैं। इनका भोजन तब तक नहीं पचता है, जबतक अपने आजीवन पार्टी मालिकों के लिये मोदी के खिलाफ एक दो ट्वीट या पोस्ट नहीं कर देते हैं।
टेढ़ा मेढ़ा चेहरा लिये पूण्य प्रसून जैसी घास फूस वाली दाढ़ी बढ़ाकर खुद को मोदी के बराबर बताने का प्रयास करने वाला अजीत अंजूम तब जाना जाने लगा, जब ​किसान आंदोलन के दौरान किसानों के भोजन को चट करते हुये वीडियो बनाने लगा। कभी यह भी टीवी पर संपादक मंडल का मुख्य चेहरा हुआ करता था, लेकिन नैरेटिव बनाने के आरोप में टीवी ने इसको भी बाहर कर दिया। बाद में बिहार चुनाव से होते हुये किसान आंदोलन में इसकी दुकान सजी और खूब पैसे कमाये। कहते तो यहां तक हैं कि जिन आंदोलनजीवी लोगों के पास विदेश से पैसा आता है, उसमें से ही कुछ हिस्सा इसको भी मिलता था। बाद में इसने उत्तर प्रदेश और गुजरात में भी भाजपा की सरकारों के खिलाफ जमकर प्रचार किया, जितना कांग्रेस नहीं कर पाई, उससे भी कहीं अधिक, लेकिन इसकी पार नहीं पड़ी और दोनों राज्यों में काम के दम पर भाजपा की सरकारें वापस रिपीट हो गईं। आजकल यह इस साल के अंत में होने वाले चुनाव में भाजपा के खिलाफ प्रचार करने की तैयारी में लगा हुआ है, जो मुख्यत: मध्य प्रदेश पर फॉकस करेगा, क्योंकि राजस्थान और छत्तीसगढ में कांग्रेस की सरकारें हैं।
इसी प्रकार की एक महिला है साक्षी जोशी, जो भी कभी टीवी की एंकर थी, लेकिन अपने बैकार सोच के कारण बाहर निकाल दी गई। आजकल यह भी अजीत अंजुम जैसे ही गली—गली घूमकर संघ, भाजपा, मोदी, योगी के खिलाफ प्रचार करती रहती है। देखने में चेहरे मोहरे से अच्छी दिखाई देती है, लेकिन जब बोलती है, इसकी दबी हुई सभी कुंठाएं सामने आ जाती हैं। यह खुद को लेडी रवीश कुमार और लेडी अजीत अंजुम समझती है, जो कर्मों से दिखाई भी देती है। इसके जैसी ही आरफा खानम शेरवानी नामक एक मुस्लिम पत्रकार है, मुस्लिम पत्रकार इसलिये, क्योंकि यह खुद को मुस्लिम पत्रकार कहना ही पसंद करती है। यह कभी सरकारी उपक्रम संसद टीवी में हुआ करती थी, क्योंकि तब के उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी इसके गॉडफादर थे। अंसारी चाहते थे कि उनके आसपास केवल मुस्लिम ही रहें, उनको हिंदूओं से नफरत है। आजकल यह भी यू ट्यूब के सहारे अपनी दुकान चला रही है और दिनभर ट्वीटर पर अपना मानसिक मल त्याग करती रहती है। यह संघ, भाजपा, मोदी, योगी के अलावा किसी अन्य विषय पर बात करना पसंद नहीं करती। इसको मुस्लिम समाज में पढ़ी लिखी और समझदार औरत के तौर पर प्रोजेक्ट किया गया था, लेकिन केंद्र में मोदी सरकार आने के बाद जब जिहादी पत्रकारों की छंटनी हुई तो इसको भी बाहर कर दिया गया था।
इनके अलावा कम से रवीश कुमार की तरह कॉपी करने वाले एक दर्जन नई पीढ़ी के कुंठित भी सामने आ गये हैं, जो यू ट्यूब के जरिये संघ, भाजपा, मोदी, योगी के खिलाफ बोलकर अपनी कुंठा शांत करते रहते हैं। इन्होंंने रवीश कुमार, अजीत अंजुम जैसों की राह पकड़ ली है। कारण यह है कि सरकार के विरोध के जितने भी लोग हैं, वो उनको देखना और सुनना पसंद करते हैं, क्योंकि ऐसे लोगों का मोदी सरकार की बुराई और आलोचना देखकर ही दिन गुजर पाता है।
रवीश कुमान, पुण्य प्रसून वाजपेयी, अजीत अंजुम, साक्षी जोशी, आरफा खानम शेरवानी जैसों के पास एक वर्ग विशेष दर्शक के तौर पर मौजूद है। यह वर्ग सभी धर्मों, जातियों और क्षेत्रों में पाया जाता है, इस विशेष जमात का कोई धर्म नहीं होता है। इनका एक ही धर्म है संघ की बुराई, इनकी एक ही जाति है दिनरात नरेंद्र मोदी की आलोचना, इनका एक ही एजेंडा है भाजपा का सत्यानाश और इनका एक ही क्षेत्रवाद है योगी आदित्यनाथ को जेल में जाते हुये देखना, चाहे इसके लिये इनको पागल होकर नैरेटिव बनाने वाला कंटेट तैयार करना पड़ जाये। बाकी इनके जीवन का इस ​संसार में कोई मकसद नहीं बचा है। इनके अलावा वैश्विक स्तर पर भारत के खिलाफ दुष्प्रचार करने के लिये बीबीसी, अल जजीरा, वॉशिघटन पोस्ट, न्यूयॉर्क टाइम्स, वॉल स्ट्रीट जर्नल, द गार्जियन और ग्लोबल टाइम्स भी काम करते रहते हैं। ये सभी मीडिया समूह भारत के इन कथित पत्रकारों को सबसे अधिक पसंद हैं, क्योंकि यहीं से इनको विदेशी फंडेड कंटेंट मिल जाता है।

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