राजस्थान समेत चार राज्यों में इस साल के आखिरी महीने में होंगे। आचार संहिता की घोषणा होने में अभी करीब 15 दिन बाकी हैं। इस बीच राजनीतिक दलों के बड़े नेताओं ने राजस्थान की तरफ रुख कर लिया है। शनिवार को कांग्रेस अध्यक्ष खडगे और राहुल गांधी ने जयपुर में आम सभा की है। इसके बाद सोमवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भी जयपुर में ही सभा है। खड़गे और राहुल की सभा में ओबीसी, दलित, महिला आरक्षण का मुद्दा छाया रहा, तो पीएम मोदी की सभा में हाल ही में दिया गया 33 प्रतिशत महिला आरक्षण का मुद्दा प्रमुख रहने वाला है। एक दिन पहले वसुंधरा राजे ने अपने आवास पर महिलाओं को एकत्रित कर महिलाओं की ताकत दिखाने का प्रयास किया है। खास बात यह है कि इसकी टाइमिंग बहुत महत्वपूर्ण रही है। तीन दिन पहले ही संसद ने महिला आरक्षण का बिल पास किया तो उसके तुरंत बाद सोमवार को होने वाली मोदी की सभा से दो दिन पहले वसुंधरा ने महिलाओं को बुलाकर अपनी ताकत दिखाने का प्रयास किया।
वसुंधरा ने ना केवल महिलाओं की ताकत को अपनी ताकत बताया, बल्कि यह भी एलान कर दिया कि वह राजस्थान छोड़कर कहीं भी नहीं जाने वाली हैं, यहीं रहकर जनता की सेवा करती रहेंगी। वसुंधरा की इस घोषणा के कई मायने हैं। एक तरफ जहां भाजपा आलाकमान वसुंधरा को नजरअंदाज कर रहा है तो उन्होंने राजस्थान में रहने की घोषणा करके एक तरह से सीधी मोदी—शाह को चुनौती दी डाली है।
अब समझने वाली बात यह है कि वसुंधरा की इस चुनौती के क्या मायने हैं? क्या वसुंधरा ने यह तय कर लिया है कि यदि आलाकमान ने उनको केंद्र में ले जाने या किसी राज्य का राज्यपाल बनाने का आदेश दिया तो भी वह नहीं मानेंगी? या फिर अपनी आखिरी लड़ाई को वो मजबूती से लड़ना चाहती हैं? संभवत: अपना यह संदेश वसुंधरा मोदी शाह तक पहुंचाना चाहती हैं कि वह राजस्थान से बाहर नहीं जाएंगी, चाहे उनको कोई भी जिम्मेदारी दी जाए।
ऐसे में समझने वाली बात यह भी है कि क्या भाजपा इतनी मजबूर हो जाएगी कि वसुंधरा के सामने अपने हथियार डाल देगी? क्या भाजपा को वही करना होगा जो वसुंधरा चाहती हैं? यह बात सही है कि उन्होंने अपने इरादे स्पष्ट कर दिए हैं, लेकिन इसके बाद भी भाजपा नहीं मानी तो वसुंधरा का क्या कदम होगा? असल में होता यह है कि जब भी कोई नेता को दूसरी जिम्मेदारी देने का संकेत मिलता है, तो वह इसी तरह से दम दिखाने का प्रयास करता है। वह खुद यह स्पष्ट रूप से आलाकमान को यह बताने का प्रयास करता है कि उसको कहीं नहीं जाना है। यह बात में तय होगा कि वसुंधरा का क्या होगा, लेकिन फिलहाल वो अपनी ताकत लगाए बैठी हैं।
दूसरी ओर कांग्रेस के नेता सचिन पायलट का भविष्य भी लोगों की समझ से परे है। पायलट पिछले साढ़े तीन साल से बिना पद के हैं, लेकिन उनको जनता चाहती है और वह खुद भी जहां जाते हैं तो अपनी सियासी ताकत दिखाने का प्रयास करते हैं। पार्टी भी उनको अपने सियासी मंचों पर तो आगे बिठाती है, पर इतने के बाद भी उनको कुछ नहीं मिला है। चुनाव की महत्वपूर्ण कमेटियों में भी पायलट को खास जिम्मेदारी नहीं मिली हुई है। इससे एक बात तय हो चुकी है कि जब केंद्रीय नेता राजस्थान दौरों पर होंगे, तभी सचिन पायलट भी चुनाव प्रचार करने उतरेंगे, लेकिन जब राज्य के नेताओं का मंच होगा तो वह नहीं जाएंगे। ऐसा ही पैटर्न वसुंधरा राजे ने अपना रखा है। जब भी भाजपा के बड़े नेता राजस्थान में होते हैं तो वसुंधरा उनके कार्यक्रमों में शामिल हो जाती हैं, लेकिन जब राज्य के नेताओं के कार्यक्रम होते हैं तो वह शामिल नहीं होतीं।
अशोक गहलोत भी अब सचिन पायलट के खिलाफ कुछ बोल नहीं रहे हैं, लेकिन अब भी कांग्रेस पार्टी ने सचिन पायलट की सियासी ताकत को नहीं पहचाना है? हालात यह हैं कि अशोक गहलोत ने ईआरसीपी को लेकर पूर्वी राजस्थान में जन आर्शीवाद यात्रा निकालने का प्रयास किया था, लेकिन पार्टी को रिपोर्ट मिली कि बड़े पैमाने पर विरोध होगा, जिसके चलते यात्रा को कैंसिल कर दिया गया है। गहलोत सरकार ईआरसीपी के मुद्दे को उछालने के लिए यात्रा शुरू करने वाली थी, लेकिन जब पता चला कि इस क्षेत्र में पायलट का बहुत बड़ा जनाधार है, और बड़े स्तर पर विरोध का सामना करना होगा, तब इसका पूरे प्रदेश में विपरीत असर होगा, तब इस यात्रा को ही निरस्त किया गया।
सचिन पायलट का केवल पूर्वी राजस्थान ही नहीं, बल्कि हर जिले में खास प्रभाव है। आपको याद होगा जब 2013 में कांग्रेस पार्टी इतिहास की सबसे कम 21 सीटों पर सिमट गई थी, तब सचिन पायलट को ही पीसीसी चीफ बनाकर कांग्रेस को फिर से जिंदा करने का लक्ष्य दिया गया था, उसको पायलट ने पूरा भी किया। जनता ने कांग्रेस को वोट ही इसी आधार पर दिया था कि जब सरकार बनेगी तो सचिन पायलट को सीएम बनाया जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं किया गया, बल्कि उनको बगावत करने को मजबूर किया गया और फिर उसके बाद गद्दार बनाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी गई।
ऐसे में अब पायलट जब अशोक गहलोत वाली कांग्रेस के साथ नहीं हैं, तब क्या पायलट के बिना कांग्रेस जीत सकती है? आप यदि गौर करेंगे तो पायेंगे कि गहलोत के होते हुए कांग्रेस कभी नहीं जीत पाई है। गहलोत का अपनी सीट बचाने से ज्यादा प्रभाव दिखाई नहीं देता है, यहां तक कि जोधपुर में भी वो करिश्मा करके बेटे को नहीं जिता पाए।
गहलोत गुट का दावा कि सत्ता रिपीट हो रही है, जबकि धरातल पर मामला बिकुल उलट है। यदि ईमानदारी से धरातल का सर्वे करवाया जाए तो पता चलेगा कि जिस पूर्वी राजस्थान के बल पर सरकार बनी थी, वहीं से कांग्रेस के खिलाफ आंधी चल रही है। निष्पक्षता के साथ आकलन किया जाए तो सरकार रिपीट होती नहीं दिख रही है। यदि सरकार भाजपा की बनती है तो सवाल यह उठता है कि सचिन पायलट का आगे क्या रुख रहने वाला है? क्या पायलट एक बार फिर से 5 साल तक संघर्ष की राह चुनने वाले हैं? क्योंकि जब पार्टी सत्ता से बाहर हो जाएगी, तब भाजपा से मुकाबला करने के लिए गहलोत तो सड़क पर उतरेंगे नहीं और ना ही डोटासरा के दम पर लड़ाई लड़ी जा सकती। ऐसे में कांग्रेस को फिर एक दमदार नेता की जरूरत होगी। राजस्थान में कांग्रेस के पास पूरे राजस्थान में जनाधार रखने वाला पायलट से बड़ा नेता कोई है नहीं।
उससे भी पहले अभी लोगों की नजरें इस बात पर टिकी हैं कि कांग्रेस जब उम्मीदवारों की सूची जारी करेगी, तब पायलट कैंप के दावेदारों को कितना महत्व दिया जाता है?
यह बात भी साफ है कि यदि पायलट कैंप को कमतर आंका गया तो चुनाव से पहले ही कांग्रेस के बगावत का तीसरा दौर शुरू हो सकता है। यह माना जा रहा है कि पायलट कैंप के कम से कम 50 दावेदार यदि टिकट के दायरे में नहीं आएंगे तो फिर उनकी तरफ से कांग्रेस को अपनी ताकत दिखाने का समय शुरू हो जाएगा। पायलट कैंप को नजदीक से जानने वाले सियासी जानकारों का मानना है कि यदि पायलट के साथ पिछले पांच साल से न्याय नहीं कर पाई कांग्रेस ने यदि टिकट वितरण में भी अन्याय किया तो कांग्रेस के लिए प्रदेश में चुनाव प्रचार करना ही मुश्किल हो जाएगा। हालांकि, यह सब भविष्य के गर्भ में है कि युवाओं के छालों की कसम खाने के बाद कांग्रेस से गुप्त समझौता करने वाले सचिन पायलट का आगे क्या रुख रहेगा, लेकिन इतना तय है कि पार्टी एक बड़े बगावत के दौर से गुजरने की तरफ बढ़ रही है।
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