वसुंधरा की विदाई और परिवर्तन यात्रा से लीडर बदल गया



जैसे जैसे विधानसभा चुनाव नजदीक आ रहे हैं, वैसे वैसे यूं लग रहा है कि राजस्थान की राजनीति से पूर्व सीएम वसुंधरा राजे की विदाई का मार्ग प्रशस्त हो रहा है। माना जा रहा है कि भाजपा आलाकमान अब उनकी भूमिका को लेकर चुनाव से पहले किसी पसोपेश में नहीं है, जबकि वो खुद यह तय करना चाहती हैं कि चुनाव से पहले सबकुछ तय हो जाए। भाजपा ने वसुंधरा राजे को कोई आश्वासन नहीं देकर साफ कर दिया है कि आगे भी उनको वही भूमिका मिलने वाली है, जो अभी दिखाई दे रही है। इससे पहले कि हम आगे बात करें, उससे पहले इस बात पर चर्चा करना जरूरी है कि क्या वसुंधरा राजे की केंद्र में भूमिका हो सकती है? या उनको किसी राज्य के राज्यपाल की जिम्मेदारी दी जा सकती है? क्या यह चर्चा सच है कि कुछ महीनों पहले ही उनको राज्यपाल बनाने का प्रस्ताव दिया गया था या फिर केंद्र में मंत्री बनाने को कहा गया था?


बात यदि वसुंधरा राजे के करियर की करें तो उनका सियासी सफर लगभग वैसा ही रहा है, जैसा सीएम अशोक गहलोत का रहा है। वसुंधरा राजे पहली बार 1985 में चुनाव जीती थीं। उसके बाद से अब तक पांच बार विधायक और पांच बार सांसद का चुनाव जीत चुकी हैं। राजस्थान की दो बार सीएम रह चुकी हैं अभी तीसरी बार सीएम बनने की कोशिशों में जुटी हुई हैं। दूसरी तरफ अशोक गहलोत भी पांच बार सांसद और पांच बार ही विधायक भी रह चुके हैं। गहलोत को पहली बार 1980 में जोधपुर से लोकसभा सांसद के तौर पर जीत मिली थी। इस तरह देखें तो वसुंधरा राजे और अशोक गहलोत में केवल एक ही फर्क है कि गहलोत तीन बार सीएम बन चुके हैं और वसुंधरा दो बार बनी हैं। यदि वसुंधरा एक बार और बन जाएं तो दोनों बराबर हो जाएं। 


सुना है कि वसुंधरा राजे पिछले दिनों दिल्ली में इस असमंजश को दूर कराने के लिए लंबा प्रवास कर चुकी हैं, लेकिन अभी तक कोई आश्वासन नहीं दिया गया है। इस बीच शुक्रवार को जयपुर में विधानसभा के पास कॉन्सटीट्यशन क्लब के उद्घाटन में वसुंधरा शामिल हुई हैं। इसके बाद उनका 25 तारीख को पीएम नरेंद्र मोदी की जयपुर के दादिया में होने वाली सभा में शामिल होने का कार्यक्रम बताया जा रहा है। हालांकि, वसुंधरा राजे भाजपा द्वारा निकाली गई 'परिवर्तन संकल्प यात्रा' के शुरू होने के कार्यक्रमों में शामिल थीं, लेकिन उसके बाद उन्होंने यात्रा से दूरी बना ली थी, जबकि भाजपा की ओर से राज्य ईकाई अध्यक्ष सीपी जोशी, नेता प्रतिपक्ष राजेंद्र राठौड़, उपनेता प्रतिपक्ष डॉ. सतीश पूनियां, केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत, अर्जुनराम मेघवाल जैसे नेताओं ने यात्रा को अंजाम देने और सफल बनाने का प्रयास किया है। 


इस यात्रा की इसके अलावा भी कई खूबियां रहीं, लेकिन जिस बात की चर्चा सबसे अधिक रही, वो भीड़ को लेकर रही है। जेपी नड्डा की सभा, असम के सीएम हेमंत बिश्वा की सभा में अच्छी भीड़ रही, लेकिन बाकी केंद्रीय नेताओं से लेकर नेत प्रतिपक्ष और अध्यक्ष सीपी जोशी की सभाओं में भी लोगों का आकर्षण कम ही देखने को मिला। किंतु इस बार सबसे आश्चर्य करने वाली भीड़ पूर्व अध्यक्ष और उपनेता प्रतिपक्ष डॉ. सतीश पूनियां के साथ रही। सतीश पूनियां को वैसे तो गोगामेडी से शुरू हुई यात्रा का जिम्मा था, लेकिन जहां भी उनकी यात्रा निकली, वहां की भीड़ ने सभी को आश्रर्यचकित कर दिया। अध्यक्ष सीपी जोशी, नेता प्रतिपक्ष राजेंद्र राठौड़, केंद्रीय मंत्रियों और खुद वसुंधरा राजे जिन सभाओं में शामिल थीं, उनमें भी उतने लोग नहीं आए, जितने सतीश पूनियां के अकेले की सभाओं में शामिल हुए। इस भीड़ को देखकर तो ऐसा लगता है कि जनता ने सतीश पूनियां को राजस्थान भाजपा का सबसे बड़ा नेता मान लिया हो। आपको याद होगा, ऐसी ही भीड़ पहले वुसंधरा राजे की रैलियों में होती थी। 


2003 में जब वसुंधरा राजस्थान अध्यक्ष बनकर आई थीं, तब भी परिवर्तन यात्रा निकाली गई थी, तब वसुंधरा के लिए इसी तरह से भीड़ जुटती थी। तब बीजेपी के बड़े नेता भैरोंसिंह शेखावत थे और वसुंधरा को प्रोजेक्ट किया गया था, तब परिवर्तन के दौर से गुजर रही भाजपा को बहुत जबरदस्त रेस्पोंस मिला था। तब भी भाजपा भैरोंसिंह शेखावत से बड़े नेता से वसुंधरा राजे की तरफ शिफ्ट हो रही थी, तो आज भी वसुंधरा राजे से नई लीडरशिप की ओर जा रही है। हालांकि, कुछ महीनों पर सतीश पूनियां की जगह सीपी जोशी को अध्यक्ष बनाया गया था, लेकिन बावजूद इसके जनता को सीपी जोशी में अध्यक्ष जैसा कुछ दिखाई नहीं देता है। दूसरी ओर कुछ महीने पहले अध्यक्ष रहे सतीश पूनियां के साथ जो भीड़ आ रही है, वो बहुत कुछ कह रही है। भाजपा भले ही इस भीड़ का मतलब नहीं समझे, लेकिन राजनीति विशलेषक जरूर इससे आश्चर्यचकित हैं। इस तरह की भीड़ किसी एक नेता के पीछे आ रही है, वो भी पहली बार जीते विधायक के साथ जो कुछ बात है, जो जनता को उनकी तरफ आकर्षित कर रही है। 


बिलकुल इसी तरह से भीड़ कांग्रेस में सचिन पायलट के साथ है। पायलट बीते करीब साढ़े तीन साल से केवल विधायक हैं, लेकिन उनके साथ जुटने वाली भीड़ भी किसी चमत्कार से कम नहीं है। यह बात और है कि कांग्रेस अभी तक भी सचिन पायलट के आकर्षण को पहचान नहीं पाई है, उनकी ताकत का सही इस्तेमाल नहीं कर पा रही है। राजस्थान में इसी तरह के तीसरे नेता हनुमान बेनीवाल हैं, जो भी अपने दम पर भीड़ खींच रहे हैं। यदि आश्चर्य इस बात का है कि जिन नेताओं में भीड़ खींचने का दम है, उनको आगे नहीं किया जा रहा है। सचिन पायलट को कांग्रेस लगभग दरकिनार कर दिया है, जबकि अध्यक्ष पद से हटाने के कारण स​तीश पूनियां को लेकर भी भाजपा के कार्यकर्ता संगठन से नाराज हैं। 


समय के साथ परिवर्तन होता रहता है और होना भी चाहिए, अन्यथा जमे हुए पानी की तरफ राजनीति में भी बिमारियां उत्पन्न हो जाती हैं। कभी पंड़ित दीनदयाल उपाध्याय और श्यामा प्रसाद मुखर्जी मुखिया थे, फिर अटल आडवाणी का दौर आया। इसके बाद अध्यक्ष के रूप में राजनाथ सिंह जैसे नेताओं ने कुर्सी संभाली, 2014 के बाद अमित शाह अध्यक्ष बने। ऐसे ही कभी पार्टी के अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृ​ष्ण आडवाणी कर्ताधर्ता हुआ करते थे, लेकिन आज वाजपेयी जा चुके हैं, जबकि आडवाणी मार्गदर्शक मंडल के सिपाही बन चुके हैं। राजस्थान की बात की जाए तो भैरोंसिंह शेखावत लंबे समय तक भाजपा की धुरी रहे, वो तीन सीएम भी बने, लेकिन पार्टी ने जब 2002 में वसुंधरा को प्रोजेक्ट करने का निर्णय लिया तो वो खुशी खुशी पीछे हट गए। आज जब वसुंधरा राजे का दौर बीत चुका है, तब नये नेता सामने आ रहे हैं तो भी वसुंधरा पीछे हटने को तैयार नहीं हैं। 


करीब दो दशक तक वसुंधरा ने राजस्थान भाजपा पर एकछत्र राज किया है, लेकिन आज प्रदेश की सत्ता और संगठन, दोनों परिवर्तन के दौर से गुजर रहे हैं, जिसको स्वीकार करने वाला कभी पीछे नहीं रहता है। राजनीति की समझ रखने वालों को यह साफ साफ दिखाई दे रहा है कि वसुंधरा का दौर बीत चुका है और पार्टी नए बदलाव की तरफ देख रही है, यदि इस दौर को वसुंधरा स्वीकार कर लेंगी तो उनका बचा हुआ सियासी सफर आसान हो जाएगा, यदि वो इसको स्वीकार करने के बजाए पार्टी के खिलाफ जाएंगी तो उससे पार्टी को भी नुकसान होगा और वसुंधरा को सबसे बड़ा नुकसान उठाना होगा। 


वसुंधरा राजे के दौर से आगे बढ़ चुकी पार्टी किसको आगे करेगी, यह तो अभी तय नहीं है, लेकिन अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में हरियाणा, पश्चिमी यूपी, पंजाब, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश तक किसान वर्ग को साधने के लिए पार्टी बदलाव कर सकती है। यह बात और है कि अभी भी इन राज्यों किसान आंदोलन और पहलवान आंदोलन का असर साफ दिखाई दे जाता है, जिससे पार पाने के लिए भी पार्टी राज्य में बड़ा बदलाव करने की तरफ दिखाई दे रही है। इसलिए यह कहना कतई अनुचित नहीं होगा कि 2003 में परितर्वन यात्रा से राजस्थान में भाजपा को लीडर बदला था तो इस बार परिवर्तन संकल्प यात्रा से भी राजस्थान की सक्रिय राजनीति से वसुंधरा राजे का दौर जा रहा है और पार्टी को लीडरशिप लेने को नया लीडर आ रहा है। 

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