भाजपा की इस हार का कौन है जिम्मेदार?



नरेंद्र मोदी अब उस तरह के दमदार फैसले नहीं कर पाएंगे, जैसे दस साल तक किए हैं। पूर्ण बहुमत की सरकार के बिना दुनिया में भारत की धमक कम हो जाएगी, पाकिस्तान जैसा कंगाल देश फिर से भारत को आंख दिखाने लगेगा, चीन की दबी पूंछ फिर से बाहर आने से सीमा विवाद बढ़ेगा। देशहित में मोदी को अब हर निर्णय से पहले चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार से पूछना होगा। इनसे नहीं पूछेंगे तो देश में मोदी की सरकार नहीं रह पाएगी। देश में तीसरी बार मोदी सरकार तो बन गई है, लेकिन देश ने 500 साल बाद राम मंदिर बनाने, देश माथे पर लगे धारा 370 के दाग को मिटाने, मुस्लिम महिलाओं में तीन तलाक जैसी बीमारी खत्म करने, तीन देशों में हिंदुओं पर हो रहे अत्याचारों को खत्म करने वाले मोदी को ही देश की जनता ने सजा दे दी है। इन फैसलों के दम पर कहां तो मोदी 400 पार का नारा लगा रहे थे, और कहां 300 पार भी नहीं जीत पाए। सरकार भले ही मोदी की बन गई, लेकिन जिस जीत और सरकार के लिए मोदी जाने जाते हैं, वो नहीं हो पाई। इसके कारण अपने ही दल से लेकर विपक्षी दलों के नेता भी मोदी को आंख दिखाने की हिम्मत कर पाएंगे। दमदार मोदी को विपक्ष इसी तरह से विकलांग करना चाहता था, जिसमें आरक्षण खत्म करने, संविधान बदलने जैसे झूठ के सहारे कामयाब हो गया।

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उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र ने मोदी को कमजोर कर दिया, इन राज्यों में मोदी के नाम पर भाजपा दो चुनाव प्रचंड बहुमत से जीत चुकी है। अब इन्हीं राज्यों ने मोदी को कमजोर कर दिया है। मध्य प्रदेश, उत्तराखंड छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली जैसे राज्यों ने यदि ऐसा ही किया होता तो भाजपा की सरकार ही नहीं बन पाती। देश की सरकार बनाने का रास्ता यूपी से होकर ही गुजरता है।

इसी यूपी में योगी जैसी कानून व्यवस्था को दुरुस्त करने वाली सरकार है। इसी यूपी में 500 साल बाद राम मंदिर बना है। इसी यूपी में काशी कॉरिडोर बन चुका है। इसी यूपी में मथुरा मंदिर की तैयारी चल रही है। इसी यूपी को देश की सुरक्षा उपकरण बनाने वाली राजधानी बना दिया गया। इसी यूपी में एशिया का सबसे बड़ा एयरपोर्ट बना दिया गया है। इसी यूपी में सबसे बड़े हाईवे, एयरवेज और यहीं पर सर्वाधिक विदेशी निवेश आया है। यही वो यूपी है, जहां से पीएम मोदी तीसरी बार चुनाव लड़े हैं, लेकिन भाजपा को इसी यूपी ने सबसे अधिक नुकसान किया है। जिस अयोध्या में 500 साल की लड़ाई के बाद राम मंदिर बनाया गया है, उस अयोध्या ने भी भाजपा को हरा दिया।

जिन उत्तरी—पश्चिमी राज्यों से भाजपा को सबसे अधिक उम्मीद थी, वहां भाजपा कमजोर हो गई है और जिस दक्षिण में भाजपा के द्वार बंद माने जाते थे, वहां पर भाजपा ने उम्मीद से बढ़िया जीत हासिल की है। पश्चिमी बंगला से लेकर तेलंगाना, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और यहां तक की केरल में भी भाजपा पहली बार जीत गई, लेकिन जिस उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, महाराष्ट्र को भाजपा का गढ़ माना जाता था, उन्हीं राज्यों में भाजपा कमजोर हो गई है।

यूपी की बात की जाए तो दस साल बाद फिर से एमवाई समीकरण काम कर गया है। यानी मुलायम सिंह यादव के समय जो मुस्लिम—यादव एकता देखने को मिलती थी, वही एक बार फिर से लौट आई है। प्रचार के दौरान विपक्ष द्वारा लोकसभा चुनाव के बाद योगी को हटाने की अफवाह फैलाने का नतीजा यह रहा है कि भाजपा का कोर वोट माना जाने वाला राजपूत समाज वोट देने घर से निकला ही नहीं। पश्चिमी यूपी में किसान आंदोलन, महिला पहलवान आंदोलन ने भाजपा की कमर तोड़ दी। बची—खुची कसर बृजभूषण सिंह को कोर्ट द्वारा दोषी माने जाने के बाद भी भाजपा द्वारा सजा नहीं देने की नाराजगी ने पूरी कर दी।

मुसलमानों और यादवों ने समाजवादी पार्टी को एकमुश्त वोट दे दिया। मुस्लिम समाज ने तो भाजपा को एक प्रतिशत भी वोट नहीं दिया, जबकि सरकारी योजनाओं का सबसे अधिक लाभ मुसलमानों को ही मिलता है। यह बात अब बिलकुल साफ हो गई है कि भाजपा 'सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास' के लाख काम कर दे, लेकिन मुस्लिम समुदाय कभी भी भाजपा को कभी वोट नहीं देता।

हरियाणा में किसान आंदोलन, महिला पहलवान आंदोलन, अग्निवीर योजना और 10 साल से गैर जाट सीएम होना सबसे बड़ा नुकसान रहा है। सबसे बड़ी जाट आबादी वाले इस राज्य में 9 साल तक मनोहर लाल खट्टर को थोपे रखा, उसके बाद लोकसभा चुनाव से ठीक पहले उनको हटाया तो नायब सैनी को सीएम बना दिया, जिस समाज का राजकुमार सैनी जाट समाज को खुलकर गालियां दे चुक का है। दीपेंद्र हुड्डा बाप—बेटा भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन गये हैं। अक्टूबर में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले यदि भाजपा ने जाट समाज को खुश करने का काम नहीं किया तो विधानसभा चुनाव भी हारना तय है। पंजाब में किसान आंदोलन सबसे बड़ा फैक्टर रहा है। साथ ही खालिस्तानी नेताओं का सिर नहीं कुचलना भाजपा के लिए बड़ी कमजोरी बन चुका है। जेल में बंद खालिस्तानी आतंकवादी अमृतपाल सिंह का चुनाव जीतना इस बात का पक्का सबूत है कि यहां पर खालिस्तानी आंदोलन अंदर ही अंदर चल रहा है, जो कभी भी विकराल रूप धारण कर सकता है।

विदेश से हो रही फंडिंग रोके बिना इस मूवमेंट को तोड़ना नामुमकिन है। ऊपर से आम आदमी पार्टी द्वारा झूठे वादे करके सत्ता प्राप्त करना और उसका दुरुपयोग करना किसी आंतकी चुनौती से कम नहीं है। भाजपा ने अपने पुराने अकाली दल को खोकर भी गलती की है। महाराष्ट्र की बात की जाए तो यहां पर भाजपा द्वारा शिवसेना और राकंपा को तोड़ना, विपक्षी दलों का एक होकर चुनाव लड़ना और मराठा आरक्षण आंदोलन ने भाजपा को सबसे बड़ा नुकसान किया है। इसके अलावा यहां पर भाजपा के कमजोर होने का कोई कारण नहीं है।

वसुंधरा राजे को भले ही सीएम नहीं बनाया हो, लेकिन उससे भी आगे बढ़कर उनको जिस तरह से राजनीतिक तौर पर बेइज्जत किया गया, उसके कारण भाजपा का वसुंधरा समर्थक कार्यकर्ता खासा नाराज हो गया। विपरीत होती परिस्थितियों में जिन वसुंधरा को पूरे प्रदेश में प्रचार का जिम्मा देना था, उनको बेटे दुष्यंत सिंह की झालावाड़ सीट पर समेटकर खुश होना भाजपा को भारी पड़ गया। हमेशा कांग्रेस का माने जाने वाले जाट समाज को वसुंधरा ने ही भाजपा से जोड़ा था। उनके ही दम पर भाजपा ने पहली बार 2003 में पूर्ण बहुमत मिला था। उनके ही कारण गुर्जर समाज भाजपा के साथ आया था और फिर भी चुनाव में वसुंधरा को एक सीट पर समेट दिया गया। चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस की खुशी इसी में थी कि वसुंधरा राजे प्रचार का हिस्सा नहीं हैं।

इसी तरह से जिन सतीश पूनियां ने बिखरे हुए संगठन को तीन साल की कड़ी मेहनत से एक किया, भाजपा पर लगा जातिवाद का ठप्पा हटाने का काम किया, जमीनी कार्यकर्ताओं को सम्मान दिया और पार्टी को जीत की दहलीज पर पहुंचा दिया, उनको राज्य में एक सीट की भी जिम्मेदारी नहीं दी। सतीश पूनिया को हरियाणा भेज दिया और जब राज्य में हालत खराब हो गई तो आधी रात को सीएम भजनलाल ने फोन करके उनसे कम से कम 10 सीटों पर प्रचार करने की अपील की। राज्य की सर्वाधिक आबादी वाले सतीश पूनियां को विधानसभा चुनाव से ठीक पहले अध्यक्ष पद से हटा दिया, फिर उनको भाजपा के ही कई नेताओं ने मिलकर चुनाव हरा दिया। लोकसभा चुनाव में टिकट की उम्मीद थी, लेकिन बिगड़ चुके राज्य हरियाणा में चमत्कार करने को भेज दिया, जहां उन्होंने भाजपा को जीरो से 5 सीटों पर पहुंचा दिया।

राजस्थान में भाजपा की 11 सीटों पर हार का विश्लेषण किया जाए तो सीधे तौर पर विपक्ष को हल्के में लेना और मोदी पर जरूरत से अधिक निर्भर होना सबसे बड़ा कारण रहा है। भाजपा के सभी 25 सांसदों में से चार सांसद ऐसे थे, जो 2014 से पहले भी जीत चुके थे, अन्यथा बाकी सांसद मोदी की लहर में ही जीते हैं। दुष्यंत सिंह, निहालचंद मेघवाल, अर्जुन राम मेघवाल और देवजी पटेल मोदी के आगमन से पहले भी जीत चुके थे, बाकी सभी सांसद मोदी लहर के ही जन्मे हुए हैं। बीते 10 साल में यह हाल हो गया है कि ये चार सीट भी भाजपा मोदी पर निर्भर हो गई। श्रीगंगानगर से भाजपा ने निहालचंद और देवजी पटेल को घर बिठा दिया। नतीजा यह हुआ कि श्रीगंगानगर सीट भाजपा लंबे समय बाद हार गई। यदि लुंबाराम चौधरी जैसा जमीनी प्रत्याशी नहीं होता तो जालोर भी हार सकती थी।

इस बात का सबको पता है कि दुष्यंत सिंह अपनी मां वसुंधरा राजे के नाम के सहारे जीतते हैं, लेकिन दुष्यंत आज की तारीख में भाजपा के सबसे सीनियर सांसद बन चुके हैं। इसी तरह से अर्जुन राम मेघवाल बीकानेर से चौथी बार सांसद बने हैं, लेकिन वो भी मोदी के सहारे पर सवार हो गए हैं। बाकी सीटों पर कहने की जरूरत ही नहीं कि भाजपा के 21 सांसद मोदी के ही नाम पर चुनाव लड़ रहे थे। 25 सांसदों का मोदी लहर के सहारे रहना और अपने क्षेत्र में काम नहीं करना जनता को अधिक दिनों तक भाता नहीं है। उपर से भाजपा द्वारा किसी भी व्यक्ति को उम्मीदवार बना देना भी लोगों को नहीं पचा। जनाधार या जातिगत समीकरण वाला नेता होना चुनाव जीतने की पहली गारंटी होती है। यही वजह रही है कि राजस्थान की 11 सीटों पर मोदी की गारंटी भी फैल हो गई।

श्रीगंगानगर सीट पंजाब के खाते में गिनी जा सकती है, जहां पर निहालचंद मेघवाल के अलावा पार्टी के पास एससी समाज से दूसरा दमदार चेहरा ही नहीं है। किसान आंदोलन के कारण यह सीट कांग्रेस के खाते में गई। दूसरी सीट झुंझुनूं है, जहां भाजपा 14,19 में लगातार दो बार जीत चुकी है। कांग्रेस के सचिन पायलट खेमे से बृजेंद्र ओला जैसे चार बार के अनुभवी विधायक को टिकट मिलना और बीजेपी द्वारा दो बार विधायक का चुनाव हारने वाले शुभकरण चौधरी जैसे कमजोर उम्मीदवार को टिकट देना भाजपा की सबसे कमजोर रणनीति का हिस्सा था। भाजपा के पास कांग्रेस उम्मीदवार के टक्कर का चेहरा ही नहीं था। निवर्तमान सांसद नरेंद्र खीचड़ को टिकट देते तो भी टक्कर हो सकती थी।

सीकर में गोविंद डोटासरा ने होल्ड कर लिया है। सुमेधानंद सरस्वती दो बार जीतकर भी प्रभाव नहीं छोड़ पाए। भाजपा के ही कार्यकर्ताओं ने उनका साथ नहीं दिया। कॉमरेड उम्मीदवार और कांग्रेस अध्यक्ष डोटासरा का आक्रामक प्रचार भाजपा पर भारी पड़ा। जाट बहुल क्षेत्र में भाजपा के पास डोटासरा का तोड़ ही नहीं था। चूरू सीट भाजपा तभी हार गई थी, जब राहुल कस्वां का राजेंद्र राठौड़ ने टिकट कटवाया था। राजेंद्र राठौड़ खुद हारे और चूरू की सीट भी पार्टी को हरा बैठे। डोटासरा के साथ राठौड़ की लड़ाई के कारण कई सीटों पर भाजपा को सीधा नुकसान हुआ। राहुल कस्वां बगावत करने को तैयार थे और कांग्रेस ने मौके को लपक लिया। उन्होंने चूरू में सामंतवाद बनाम किसान की लड़ाई करा दी। भाजपा चाहती तो सतीश पूनियां जैसे दमदार चेहरे को उतारकर किसान वर्ग की नाराजगी को डैमेज कंट्रोल कर चूरू सीट जीत सकती थी, लेकिन प्रदेश के नौसखिए नेताओं की राय को महत्व दिया गया। उपर से कई बार स्थानीय नेताओं की मनाही के उपरांत भी राजेंद्र राठौड़ को प्रचार के लिए उतार दिया गया। जब—जब राठौड़ प्रचार में गए, तब—तब भाजपा को नुकसान ही हुआ। राहुल कस्वां प्रत्याशी होते तो यह सीट भाजपा का अभेद गढ़ थी।

नागौर में जो काम पिछली बार भाजपा ने किया था और वो इस बार कांग्रेस ने किया। हनुमान बेनीवाल ने भाजपा को बार—बार अलाइंस करने की अपील की, लेकिन अहंकार में डूबा प्रदेश संगठन बेनीवाल की अपील को भाव ही नहीं दे रहा था, अंतत: उन्होंने कांग्रेस से गठबंधन कर लिया। भाजपा ने अपने मूल कार्यकर्ता को साइडलाइन कर कांग्रेस से आयातित ज्योति मिर्धा को टिकट दिया, जो दो बार कांग्रेस में हार चुकी थीं और तीन महीने पहले ही भाजपा के टिकट पर विधानसभा का चुनाव हार चुकी थी। ज्योति मिर्धा का जमीनी जुड़ाव नहीं होने के बाद भी भाजपा ने उनको क्या इतना मौका दिया, यह समझ से बहुत परे है। हनुमान भले ही विधानसभा चुनाव बड़ी मुश्किल से जीते हों, लेकिन वो अभी खत्म नहीं हुए हैं, अपने दम पर कई सीटों पर जीत हार तय करते ही हैं। उनसे गठबंधन का पिछली बार जो फायदा भाजपा को मिला था, वो इस बार कांग्रेस को मिला। नागौर के अलावा, बाड़मेर, सीकर, चूरू, झुंझुनूं जैसी सीटों पर कांग्रेस के उम्मीदवार जीतने में बेनीवाल का बड़ा हाथ रहा।

बाड़मेर सीट भाजपा को राजपूत, राजपुरोहित, ब्राह्मण, बिश्नोई जैसी जातियों ने हराई, जो निर्दलीय रविंद्र भाटी के साथ चली गईं। दूसरी तरफ क्षेत्र में जातिवाद का जहर घुलने के कारण जाट वोट एकमुश्त कांग्रेस के खाते में चला गया। कैलाश चौधरी के पास भाजपा का कोर वोट ही रह गया, जो थोड़ा—थोड़ा सभी जातियों से था। भाजपा संगठन एक नए नवेले विधायक को मनाकर अपने साथ नहीं ले पाई। प्रदेश संगठन की इससे बड़ी नाकामी क्या होगी कि निर्दलीय विधायक को भी नहीं मना पाया। जयपुर ग्रामीण सीट भाजपा हारते—हारते बची, जहां पार्टी ने तमाम कार्यकर्ताओं को नकार एक बुझे हुए चेहरे को टिकट दे दिया। यदि झोटवाड़ा में भाजपा को एकमुश्त वोट नहीं मिलता तो भाजपा उम्मीदवार का सूपड़ा साफ हो जाता। कांग्रेस के सचिन पायलट और अनिल चौपड़ा की जोड़ी ने भाजपा को नाकों चने चबा दिए।

पूर्वी राजस्थान की दौसा, भरतपुर, धौलपुर, टोंक सवाईमाधोपुर सीटों पर सचिन पायलट, विश्वेंद्र सिंह का डंका बजा। दौसा में भाजपा ने कन्हैयालाल जैसा कमजोर प्रत्याशी उतारा, जहां पार्टी मीणा—गुर्जर समाज को अपनी ओर खींचने में बिलकुल नाकाम रही। देशव्यापी आरक्षण विरोधी लहर में यहां घी का काम किया सचिन पायलट के गुर्जर—मीणा कॉम्बिनेशन ने। यही हाल टोंक सवाई माधोपुर का रहा, जहां इस बार भाजपा को टिकट बदलना चाहिए था, लेकिन जिस पुराने चेहरे से स्थानीय जनता में भारी नाराजगी थी, उसी को तीसरी बार मैदान में उतार दिया। यहां भी पायलट के सहारे कांग्रेस ने गुर्जर—मीणा समीकरण को साध लिया। भरतपुर—धौलपुर सीटें जाट आरक्षण के नाम पर चली गईं। भरतपुर में विश्वेंद्र सिंह का जादू चला, जहां एक 26 साल की महिला को जितवा लाए तो धौलपुर में भी यही हाल रहा। दोनों सीटें रिजर्व हैं, लेकिन जीत—हार जाट समाज ही तय करता है।

पूर्वी राजस्थान की पांच सीट सचिन पायलट के नाम रहीं, तो शेखावाटी और मारवाड़ की पांच सीट गोविंद डोटासरा के खाते में गिनी जाएंगी। एक सीट बांसवाड़ा थी, जहां पर भारत आदिवासी पार्टी ने उम्मीदवार उतारा था। दो बार के विधायक राजकुमार रोत ने कांग्रेस से आयातित महेंद्रजीत सिंह मालवीय को करारी शिकस्त दी। मालवीय विधायक पद से इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल हुए थे, उनको जीतने पर केंद्र में मंत्री बनने का लालच था, लेकिन सांसद बन नहीं पाए और विधायकी से भी हाथ धो बैठे। भाजपा ने अपने निवर्तमान सांसद को भी अवसर दिया होता तो स्थानीय कार्यकर्ता काम करता और जीत की संभावना बन सकती थी। अशोक गहलोत के लाख मना करने के बाद भी डोटासरा ने बांसवाड़ा में भारत आदिवासी पार्टी के साथ गठबंधन किया, नतीजा यह हुआ कि भाजपा ने अपना गढ़ ही खो दिया।

इस चुनाव में भाजपा को वसुंधरा राजे, सतीश पूनियां और किरोड़ी लाल मीणा का उपयोग करना चाहिए था, लेकिन वसुंधरा को घर बिठा दिया, सतीश पूनियां को हरियाणा भेज दिया और किरोड़ी को आधा अधूरा विभाग देकर इतना कमजोर कर दिया कि उनके लोग भी उनपर विश्वास नहीं कर पाए। वसुंधरा को भले सीएम नहीं बनाया था, लेकिन उनको कम से कम चुनाव समिति का अध्यक्ष बनाकर आगे करना चाहिए था। परिस्थितियां चाहे कितनी भी बदल गई हों, लेकिन आज भी राजस्थान भाजपा के पास वसुंधरा के कद का दूसरा नेता नहीं है। सतीश पूनियां ने तीन साल कड़ी मेहनत करके संगठन में नई जान फूंकी, सरकार से लड़कर गांव—ढाणी तक गए, काम के दम पर खुद का कद बढ़ाया और पार्टी को फिर से खड़ा किया, लेकिन लोकसभा चुनाव में न उनको टिकट दिया गया और न ही उनसे प्रचार करवाया गया। सबसे बड़ी आबादी के चेहरे को पीछे करके भाजपा ने शेखावाटी, मारवाड़ में मुंह की खाई। किरोड़ी यदि सीएम या डिप्टी सीएम भी होते तो पूर्वी राजस्थान की हवा अलग ही होती। मीणा समाज उनके साथ खड़ा होता तो दौसा, टोंक—सवाईमाधोपुर सीट भाजपा के खाते में होतीं। वसुंधरा या सतीश पूनियां जैसे नेता ने भरतपुर—धौलपुर के जाटों को आरक्षण का वादा किया होता तो भी भाजपा यहां जीत सकती थी, लेकिन दोनों को ही यहां से काफी दूर रखा गया।

अंतत: पार्टी अध्यक्ष सीपी जोशी का बेहद छोटा कद, अपनी सीट तक समिति प्रत्याशी और निष्प्रभावी अध्यक्षीय चेहरा राज्य में पार्टी के किसी काम नहीं आया। सीपी जोशी न तो संगठन चला सकते, न उनके पास ऐसा जादू जो एक भी सीट जिता सकते। ऐसे में भाजपा को संगठन के लिहाज से बड़े फैसले करने होंगे। संगठन को मजबूत करने के लिए फिर से सतीश पूनियां जैसा अध्यक्ष लाना होगा तो चुनाव से ठीक पहले लालच में शामिल हुए कांग्रेस के तमाम नेताओं को बाहर का रास्ता दिखाना होगा। भाजपा के मूल कार्यकर्ताओं को आगे करके उनको ही नेता बनाना होगा, तभी भाजपा आगे फिर से खड़ी हो पाएगी, अन्यथा कब तक मोदी के नाम पर जीतते रहेंगे।

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