राजस्थान में करीब डेढ़ साल पहले सरकार बदली तो लोगों को लगा कि 25 साल का अवैध सियासी गठबंधन टूटेगा और अब शायद अच्छे दिन आयेंगे। किंतु केवल डेढ़ साल में ही साफ हो गया कि जनता वोट देकर सरकार बदलती है केवल सियासी चेहरे बदलने के लिए, बाकी सरकार वही रहती है।
वो ही अधिकारी रहते हैं, जो पिछली सरकार में सरकार चला रहे थे, और आज भी वो ही अधिकारी हैं, तो फर्क क्या पड़ा? नाम के लिए कांग्रेस की जगह भाजपा के नेताओं की दुकान चल रही है। पहले कांग्रेस के नेताओं को ठेके मिलते थे, आज भाजपा के नेता ठेके चला रहे हैं। सड़कों की ठेकेदारी से लेकर शिक्षा के व्यापारीकरण तक और पंचायतों के पुनर्गठन से लेकर खनन माफिया तक दलों के दलाल बदले हैं, बाकी सब कुछ वही है।
भाजपा ने विपक्ष में रहते बड़े बड़े वादे किये थे, लेकिन सत्ता में आते ही सब भूल गई, बल्कि जानबूझकर भूलने का दिखावा कर रही है। आरपीएससी भंग करने से लेकर एसआई भर्ती परीक्षा रद्द करने और पेपर लीक के मगरमच्छों को पकड़ने से लेकर भ्रष्टाचार की जांच सीबीआई से कराने का वादा तक किया गया था। बल्कि हुआ क्या? पूर्व मंत्री रामलाल जाट के खनन मामले में सीबीआई जांच के खिलाफ राजस्थान की भाजपा सरकार सुप्रीम कोर्ट में लड़कर आई है।
इसी सरकार के शुरुआत में पूर्व मंत्री शांति धारीवाल के एकल पट्टा मामले में उनको बरी करने का काम इसलिए हुआ, क्योंकि सरकार वकील भेजे ही नहीं। ऐसे कई मामले हैं, जिनमें सरकार की तरफ से महाधिवक्ता अतिरिक्त महाधिवक्ता कोर्ट में जाते ही नहीं और अपराधियों के पक्ष में फैसले हो रहे हैं। तब सवाल यह उठता है कि क्या राज्य की जनता ने केवल पॉलिटिकल चेहरे बदलने के लिए वोट दिया था या फिर व्यवस्था को बदलने के लिए वोट दिया था?
आज भी पेपर हो रहे हैं और पेपर लीक भी हो रहे हैं। एसआई भर्ती परीक्षा में क्या नहीं हुआ, लेकिन सरकार उसको रद्द नहीं करके पिछली सरकार की गलती को जायज ठहराने का काम ही कर रही है। सरकार में बैठे अधिकारियों ने पिछली सरकार के समय भी जनता का खूब शोषण किया और आज भी हो रहा है।
कांग्रेस अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा ने कहा कि सीएमओ में बैठे 5—10 अधिकारी दलाली कर रहे हैं। यह कितनी बड़ी बात है कि प्रमुख विपक्षी दल का अध्यक्ष इतना बड़ा आरोप लगा रहा है। अलबत्ता सरकार को इसके उपर स्पष्टीकरण देना चाहिए, श्वेत पत्र जारी करना चाहिए, लेकिन हमेशा की तरह इस आरोप पर भी चुप्पी साध ली जाएगी।
लोकतंत्र के नाम पर जब अयोग्यताओं को योग्यताओं के ऊपर बिठा दिया जाता है, तब ऐसे ही होता है। एक दिन पहले मुख्यमंत्री कलेक्टरों की वीसी के जरिये मीटिंग ले रहे थे, लेकिन स्क्रीन पर दिखने वालों में 16 कलेक्टर अपनी सीटों पर ही नहीं थे।
यह बात खुद सीएम के द्वारा उनके सोशल मीडिया अकाउंट्स पर डाले गये वीडियो में साफ हो रही है। जब एक कलेक्टर ही सीएम के आदेशों की परवाह नहीं करता, तब स्पष्ट रूप से दिखाई दे ही रहा है कि राज्य में अधिकारियों का राज है, ना कि राजनीतिक दलों के विजेता नेताओं का है।
काफी दिनों से सोशल मीडिया और यहां तक कि विज्ञापनों के द्वारा खरीदे गये मीडिया संस्थानों के पत्रकार भी कहते हैं कि राजस्थान में अब से पहले ब्यूरोक्रेसी कभी इतनी हावी नहीं रही, आज हर मामले में फैसले ब्यूरोक्रेसी ही कर रही है। एक बार मंत्री किरोड़ी लाल मीणा ने कहा था कि राजनीति के शिखर पर बैठे अधिकारी ही निर्णय कर रहे हैं, तब स्थितियां साफ हो जाती हैं।
पिछले दिनों झोटवाड़ा विधानसभा क्षेत्र में जेडीए ने तोड़फोड़ की कार्रवाई की, तब सत्ताधारी पार्टी के विधायक गोपाल शर्मा ने कहा कि ये अधिकारियों के फैसले हैं, भाजपा सरकार के लिए ये निर्णय सही नहीं हैं, तब साफ होता है कि अधिकारी ही डिसीजन ले रहे हैं। एक आईएएस अधिकारी अखिल अरोड़ा पिछली सरकार में भी वित्त विभाग में थे, आज भी सीएमओ में हैं।
यानी सीएम का चेहरा बदल गया, लेकिन अधिकारी वही हैं। खुद गहलोत और डोटासरा कई बार बोल चुके हैं कि उनके लगाए अधिकारी ही सरकार चला रहे हैं, इनको तो अपने अधिकारी तक लगाना नहीं आता, तब इस बात पर मुहर लग जाती है कि अधिकारी ही सरकार के मुखिया बने हुए हैं।
पिछले दिनों झालावाड़ में पूर्व सीएम वसुंधरा राजे ने कहा कि अफसर सो रहे हैं और जनता रो रही है। पानी की समस्या को लेकर वसुंधरा ने ट्वीट किया तो केंद्र सरकार तक हिल गई। वसुंधरा राजे का ट्वीट एक तरह से राज्य सरकार पर निशाना था, लेकिन अधिकारी इस बात को सीएम के सामने दूसरी तरह से प्रजेंट करके अपनी खाल बचाने का काम करते हैं।
आप इन चार उदाहरणों से समझ सकते हैं कि राजस्थान में अफसरशाही हावी है, जो सरकार के काम अपने हिसाब से कर रही है। इसके कारण पहली बार मुख्यमंत्री बने विधायक की भी छवि को धूमिल करने का काम कर रहे हैं। यदि अधिकारियों के कृत्यों का सीएम या सीएम के सलाहकारों को पता नहीं है तो फिर वो दिन दूर नहीं, जब भाजपा राज्य सरकार का चेहरा बदलने पर मजबूर होगी।
पहले 27 लोगों की सूची दिल्ली पहुंची तो अपने खास लोगों को सीएमओ से दूर दिखाने का प्रयास किया गया, हालांकि सभी 27 अपने कामों को पूरी ताकत से अंजाम दे रहे हैं, लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या केंद्र को ये सब चीजें पता नहीं होंगी?
पूर्व सरकार के आखिरी छह महीनों में किये गये कार्यों की समीक्षा के नाम पर कैबिनेट सब कमेटी की बैठकें होती हैं, लेकिन उनमें होता क्या है? आज डेढ़ साल हो गया, लेकिन आज दिन तक यह नहीं बताया गया है कि कैबिनेट सब कमेटी के पास मुद्दे क्या हैं?
अब तक क्या काम किया गया है? किन विषयों को लेकर समीक्षा की जा रही है? पूर्व सरकार के कितने कामों को समीक्षा के दायरे में रखा गया है? ऐसे किसी भी विषय पर कमेटी के मेंबर बोलने को तैयार नहीं हैं। लेकिन यह पहली बार नहीं है, ऐसा बीते 25 साल से जारी है।
जब भी राज्य में सरकार बदलती है तो एक कैबिनेट सब कमेटी बनाई जाती है, जो पिछली सरकार के आखिरी छह महीनों के कामकाज की समीक्षा करती है, यह देखने के लिए कि पिछली सरकार ने चुनाव जीतने के लिए कौन कौन से फैसले चुनाव जीतने के लिए किय थे। मजेदार बात यह है कि आज तक एक भी कमेटी ने पिछली सरकार को दोषी नहीं माना।
जिन कार्यों का बंद करना था या उनका बजट रोकना था अथवा नाम बदलना था, वो सहज ही कर दिया गया, उसके लिए कैबिनेट सब कमेटी के फैसले का इंतजार नहीं किया गया। सवाल यह उठता है कि फिर यह कमेटी बनाई ही क्यों जाती है? असल में जब सरकार के अंतिम दिन होते हैं तो ताबड़तोड़ फैसले करती है, बड़े पैमाने पर घोषणाएं करती है और बड़े पैमाने पर बजट अलॉट करती है।
इसके कारण विपक्षी दल सरकार के ऊपर आरोप लगाता है कि इन कामों में भ्रष्टाचार हुआ है और उनकी सरकार आने पर इन कामों की जांच की जाएगी। जब सरकार बन जाती है, तब काम दिखाने का दबाव होता है। दुर्भाग्य से राजस्थान के विधानसभा चुनाव के करीब 5 महीनों बाद लोकसभा चुनाव होते हैं। इसलिए लोकसभा चुनाव में फायदा उठाने के लिए नई नई सरकार को काम करके दिखाना होता है।
इसी दिखावे के लिए कमेटी बनाई जाती है, जो समीक्षा के नाम पर बैठकें करती है और फिर मीडिया को ब्रीफ करके बताया जाता है। जो काम सीएम के स्तर या मंत्री के स्तर पर सहज ही हो जाते हैं, उनको कमेटी द्वारा किया बताया जाता है। फिर चुनाव प्रचार के दौरान उन कामों का ढिंढोरा पीटा जाता है।
दूसरा कारण यह है कि किसी भी सरकार में काम करने वाले अधिकारी ही होते हैं। यानी किसी कार्य की जांच होगी, उसकी समीक्षा होगी या उसको बंद किया जाएगा तो अधिकारियों का नाम उछलता है। इससे अधिकारी की इमेज खराब होती है। राज्य के अधिकारी कतई अपने साथी अधिकारी का चरित्र खराब नहीं करना चाहते, भले ही राजनेता अपनी विरोधी नेता पर कीचड़ उछाल रहे हों, लेकिन अधिकारी कभी भी अधिकारी को दोषी नहीं बनने देते।
यही वजह है कि पिछली सरकार के कामों में कोई दोष निकलता ही नहीं है। जब मुख्यमंत्री और मंत्रिमंडल मजबूत होता है, चीजों की जानकारी होती है, सीएम या किसी सरकार का विजन होता है तो ब्यूरोक्रेसी ठीक उसके अनुकूल ही काम करती है, लेकिन जब सीएम अनुभवहीन होता है, उसको सरकारी तंत्र की जानकारी नहीं होती है, अधिकारियों के कामकाज से अनजान होता है, तब अधिकारी अपने हिसाब से फैसले लेते हैं।
इसका परिणाम यह होता है कि अधिकारी ही सीएम को और सरकार को चलाते हैं। अधिकारियों के जाल में फंसा सीएम जब तक सारी चीजों को समझने का प्रयास करता है, तब तक सरकार का कार्यकाल खत्म हो जाता है।
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