राजस्थान के सियासी दलों में इन दिनों भारी तकलीफों का दौर चल रहा है। सत्ताधारी भाजपा में पदाधिकारी सूचियों का बार-बार फर्जीवाड़ा हो रहा है तो कांग्रेस में जिलाध्यक्षों के लिए सिर फुटव्वल चल रहा है। तीसरा मोर्चा हनुमान बेनीवाल तक सीमित रह गया है, जबकि दक्षिण की भारत आदिवासी पार्टी के चार विधायक हैं, और संख्या के लिहाज से तीसरा सबसे बड़ा दल है, लेकिन इस पार्टी के संगठन का कहीं कोई अता पता नहीं है। आरएलपी ने बीकानेर में बड़ी रैली करके पश्चिमी की राजस्थान में फिर अपनी पकड़ साबित कर दी, फिर भी हनुमान बेनीवाल बाकी राज्य को नहीं छू रहे हैं।
भाजपा अध्यक्ष मदन राठौड़ की टीम बनने का इंतजार किया जा रहा है। इस चक्कर में दो-तीन बार पदाधिकारियों की सूचियां भी जारी हुईं, लेकिन हर बार फर्जी सूची बोलकर खारिज कर दिया जाता है। जिलाध्यक्षों से लेकर प्रदेश टीम की सूचियां सोशल मीडिया पर तैर रही हैं। भाजपा सूत्रों का दावा है कि सूचियां से असली होती हैं, लेकिन जैसे ही विरोध होता है, तो फर्जी बोलकर वापस ले लिया जाता है। सवाल यह है कि मदन राठौड़ अपनी टीम बनाएंगे या फिर भजनलाल सरकार के प्रवक्ता बनकर ही काम करेंगे? असलियत यह है कि भाजपा में चार से छह गुट बन चुके हैं, जो अपने—अपने समर्थकों को पदाधिकारी बनाना चाहते हैं। इस वजह से जैसे ही अध्यक्ष की ओर से सूची जारी की जाती है, वैसे ही दबाव बनाया जाता है। नतीजा यह होता है कि सूचियों को फर्जी बताया जाता है। अन्यथा इससे पहले कभी ऐसा नहीं हुआ कि फर्जी सूची जारी हो गई हो! सत्ताधार दल के मुखिया के पास कोई काम नहीं बचा है, वो खुद को सुर्खियों में बनाए रखने के लिए बेवजह कांग्रेस पर बयानबाजी करते रहते हैं, जबकि सरकार उनकी है और जवाब उनको देना चाहिए।
बात विपक्ष की करें तो कांग्रेस में जिलाध्यक्षों की नियुक्ति को लेकर सिर फुटव्वल हो रहा है। ये पद अब शक्ति प्रदर्शन, वर्चस्व और भविष्य की कुर्सी की लड़ाई बन चुका है। सत्ता से उतरकर गहलोत और पायलट गुट संगठन में भी वही रस्साकशी दोहरा रहे हैं, जो साढे तीन साल तक करते रहे हैं। कांग्रेस में हर बड़ा नेता अपने जितने ज़्यादा जिलाध्यक्ष बनवा सकता, उसकी संगठन में उतनी ही मज़बूत पकड़ मानी जाती है। कांग्रेस के इस आंतरिक युद्ध ने पार्टी को ज़मीनी स्तर पर फिर से “चार भागों में बंटी हुई” स्थिति में पहुँचा दिया है।
कांग्रेस में जिलाध्यक्ष महज़ एक पद नहीं, बल्कि लोकल “पावर सेंटर” होते हैं। ये उम्मीदवार चयन से लेकर टिकट वितरण, रैलियों में भीड़ जुटाने और मीडिया नैरेटिव तक हर जगह असर रखते हैं। इसीलिए हर नेता चाहता है कि अधिक से अधिक जिलाध्यक्ष उसी के खेमे से हों, क्योंकि यही भविष्य के डेलीगेट होते हैं, यही अगले चुनावों में “गुट शक्ति” का प्रमाण बनते हैं।
अगर किसी नेता के मान लीजिए 20 जिलाध्यक्ष बन जाते हैं, तो वह प्रदेश कांग्रेस कमेटी में उतनी ही मज़बूत लॉबी तैयार कर लेता है। यही लॉबी बाद में राष्ट्रीय नेतृत्व के सामने “जनाधार” बनकर पेश की जाती है। यानी जिलाध्यक्ष बनाना सीधा सीधा “भविष्य की कुर्सी का निवेश” है।
अशोक गहलोत भले अब मुख्यमंत्री न हों, लेकिन संगठनात्मक पकड़ और कार्यकर्ताओं के नेटवर्क में अब भी भारी बताए जाते हैं। उन्होंने अपने कार्यकाल में एक ऐसा “वफादार कैडर” तैयार किया, जो सिर्फ आदेश पर चलता है। गहलोत खेमे के कई पूर्व विधायक और ब्लॉक अध्यक्ष आज भी उसी सिस्टम से जुड़े हैं। उनको अब दो तरफा सीधी टक्कर मिल रही है। सचिन पायलट अपने जिलाध्यक्ष बनाना चाहते हैं, तो 2020 में गहलोत द्वारा अध्यक्ष बनाए गए गोविंद सिंह डोटासरा भी अपना कैडर तैयार करने में जुटे हैं। हालांकि, राजनीतिक चालबाजियों में गहलोत का कोई मुकाबला नहीं कर पाएगा। इसी को ध्यान में रखकर गहलोत ने पिछले दिनों बयान जारी किया था कि कोई भी नेता नेशनल ओबर्वर्स को फोन करके अपने जिलाध्यक्ष बनाने का दबाव नहीं डाले। असल में गहलोत उपर से आदेश करते हैं, जबकि राज्य स्तरीय नेता अपने अपने जिलोंं में लॉबिंग करते हैं। इसके चलते ओबजर्वर्स पर दबाव बनाया जाता है।
सचिन पायलट की ताकत युवाओं और संगठन की ऊर्जावान परत में है, लेकिन उनकी मुश्किल यह है कि उनका समर्थन “भावनात्मक” ज़्यादा और “संगठनात्मक” अब भी काफी कम दिखाई पड़ता है। वे दिल्ली दरबार में भले लोकप्रिय हों, पर ज़मीनी नेटवर्क में गहलोत के मुकाबले कमजोर दिखाई दे रहे हैं। अगर जिलाध्यक्षों की नियुक्ति में गहलोत गुट 60–65% पद हासिल कर लेता है, तो पायलट का भविष्य फिर वैसा ही “संघर्ष मोड” में चला जाएगा, जैसा 2020 में था। लेकिन अगर आधे ज़िले भी पायलट के पक्ष में झुकते हैं, तो यह कांग्रेस के भीतर दो-मुखी नेतृत्व की आधिकारिक स्वीकृति होगी।
प्रदेश अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा इस खेल में सबसे कठिन स्थिति में हैं। एक ओर गहलोत के क़रीबी होने का ठप्पा है, दूसरी ओर संगठन को एकजुट रखने की ज़िम्मेदारी। माना जा रहा है कि डोटासरा अपने प्रभाव से 15 से 20 जिलाध्यक्ष अपनी पसंद के बना सकते हैं, खासकर शेखावाटी, जयपुर और नागौर बेल्ट में, लेकिन “डोटासरा के जिलाध्यक्षों” का भी असर अंततः गहलोत गुट को ही फायदा देगा, क्योंकि वे गहलोत की रणनीतिक लाइन पर चलते हैं। डोटासरा की असली चुनौती यह है कि वे खुद को गहलोत की “छाया” से अलग साबित करें, वरना उनका राजनीतिक भविष्य भी सिर्फ “गहलोत के आदमी” तक सीमित रह जाएगा। कांग्रेस के पुराने कार्यकर्ता अब खुलकर कहने लगे हैं, “संगठन नहीं, गुट बन रहे हैं।” स्थानीय स्तर पर विकास, मुद्दे, विचारधारा या जनता की चिंता कहीं नहीं दिखती, सब कुछ इस बात पर टिक गया है कि “कौन किसका आदमी है।”
गुटबाजी इतनी हावी है कि गहलोत के समर्थक पायलट समर्थकों को और पायलट समर्थक गहलोत समर्थकों को कांग्रेसी ही नहीं मानते हैं। पायलट की जुलाई 2020 और गहलोत की सितंबर 2022 की बगावत ने कांग्रेस को पूरी तरह से बांट दिया है। कांग्रेस की इस गुटबाज़ी का असर आने वाले निकाय, पंचायत और अगले विधानसभा चुनावों में साफ दिखाई देगा। जब जिलाध्यक्ष ही गुटों में बँट जाएंगे तो जनता के मुद्दे कौन उठाएगा? संगठन की असली ताकत तो वहीं खत्म हो जाएगी। इसलिए राजस्थान कांग्रेस आज उस मोड़ पर खड़ी है, जहाँ हर नेता “अगला मुख्यमंत्री” बनने का सपना देख रहा है, लेकिन किसी को “मजबूत संगठन” बनाने की फिक्र नहीं।
गहलोत और पायलट दोनों यह भूल रहे हैं कि जनता का भरोसा अब वफादारी नहीं, प्रदर्शन पर टिकता है। लेकिन कांग्रेस का आधार ही वफादारियों की बदोलत है, फिर नए नेता सीखें पर भी तो क्या सीखें? जिलाध्यक्षों की यह लड़ाई पार्टी के भविष्य की बुनियाद तय करेगी। अगर यह संघर्ष समझदारी से नहीं सुलझाया गया, तो राजस्थान में कांग्रेस का संगठन आने वाले चुनावों में फिर “गुटों का शिकार” बन जाएगा, जहाँ नेता जीतेंगे, पर पार्टी हारेगी। कांग्रेस की इस सिर फुटव्वल में सत्ताधारी भाजपा को शांति से शासन करने में मजा आ रहा है तो आरएलपी जैसे दल फिर से उठ खड़े होकर तीसरी शक्ति बन सकते हैं।
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