देश का किसान अन्नदाता है, लेकिन विडंबना यह है कि उसे खुद अपने सामर्थ्य और अधिकार का आभास नहीं कराया गया। वर्षों से वह उन नेताओं के लिए तालियां बजाता रहा, जो सत्ता के लिए उसका उपयोग करते हैं, उसके जीवन और श्रम की कीमत तय करने का अधिकार उससे छीन लेते हैं। भोलापन वीरों का श्रृंगार हो सकता है, लेकिन लगातार लुटते रहना कोई सद्गुण नहीं, बल्कि शोषण की विकृति है। अच्छे दिनों के नाम पर भी किसानों ने तालियां बजाईं, पर खेतों में आज भी अच्छे दिन नहीं उतरे। अब किसान समझ चुका है कि अगर बदलाव चाहिए तो तथाकथित नेताओं के लिए तालियां नहीं, अपने हक के लिए हुंकार भरनी होगी।
देश में गरीबों के नाम पर आरक्षण के कानून बने, जनप्रतिनिधियों के वेतन-भत्तों और सुविधाओं के लिए कानून बने, लेकिन जिनके पसीने से देश चलता है, उनकी उपज को लाभकारी मूल्य दिलाने का पुख्ता कानून किसी भी सरकार की प्राथमिकता नहीं बना। वर्ष 1968 से न्यूनतम समर्थन मूल्य को गारंटीड मूल्य कहने की परंपरा चली आ रही है, लेकिन हकीकत यह है कि किसानों को घोषित एमएसपी भी मुश्किल से नसीब होता है। तीन दशकों से संसद में लिखित आश्वासन दिए जाते रहे कि किसान को एमएसपी से कम दाम पर फसल बेचने को मजबूर नहीं किया जाएगा, फिर भी अधिकांश वर्षों में किसान औने-पौने दामों पर अपनी उपज बेचने को विवश रहा।
इस वर्ष अति वृष्टि से फसलें तबाह हुईं। जो उपज किसी तरह घर तक पहुंची, वह भी सरकारी बदइंतजामी के कारण न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम दामों पर बिक रही है। मूंग, उड़द, मूंगफली और सोयाबीन की खरीद 1 सितंबर से शुरू होनी थी, लेकिन 24 नवंबर से शुरू की गई। कुल उत्पादन का दो प्रतिशत भी नहीं खरीदा गया, 17 दिसंबर तक खरीद मात्र 1.73 प्रतिशत रही। प्रधानमंत्री अन्नदाता आय संरक्षण अभियान के तहत तीन दिन में भुगतान का प्रावधान होने के बावजूद 367 करोड़ रुपये से अधिक की राशि 23 दिन बाद भी किसानों तक नहीं पहुंची। कई मंडियों में व्यापारी भुगतान किए बिना फरार हो गए और किसान अपनी ही कमाई के लिए दर-दर भटकने को मजबूर है।
राज्य के 45,539 गांवों में से सिर्फ 15,268 गांवों को ही अभावग्रस्त घोषित किया गया, जिससे दो-तिहाई गांव आपदा राहत से वंचित रह गए। प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में किसानों से प्रीमियम तो वसूला गया, लेकिन क्लेम के भुगतान में कंपनियों की टालमटोल जारी रही। 2016 से अब तक इस योजना से बीमा कंपनियों ने हर साल हजारों करोड़ का लाभ कमाया, जबकि किसान फसल कटाई प्रयोग जैसे जाल में उलझा रहा। धन किसान का, तंत्र सरकार का और मुनाफा कंपनियों का- यही चर्चा आज गांव-गांव में है।
सिंचाई की हालत भी किसी से छिपी नहीं है। आज़ादी के 78 साल बाद भी देश की 60 प्रतिशत से अधिक खेती बारिश पर निर्भर है, राजस्थान में यह आंकड़ा लगभग 70 प्रतिशत है। चुनावों में खेत तक पानी पहुंचाने के वादे होते हैं, लेकिन नदियों का पानी आज भी खेतों तक नहीं पहुंचा। सिंचाई की जगह सड़कों को प्राथमिकता दी जा रही है, वह भी तेज रफ्तार वाहनों वालों के लिए, जबकि देश की आबादी का बड़ा हिस्सा गांवों में आज भी जर्जर सड़कों और महंगी खेती की मार झेल रहा है। विकास के नाम पर ग्रीनफील्ड एक्सप्रेस-वे बनाए जा रहे हैं, उपजाऊ कृषि भूमि का अधिग्रहण हो रहा है और किसान को न तो पूरा मुआवजा मिल रहा है, न ही सम्मानजनक पुनर्वास।
इसी शोषण के खिलाफ अब किसान ने खुद अपने अधिकार की लकीर खींच दी है। अन्नदाता हुंकार रैली के प्रस्ताव के तहत किसानों ने साफ कर दिया है कि सरसों 6500 रुपये प्रति क्विंटल से कम नहीं बेची जाएगी। पिछले वर्ष सरसों व्यापारियों के गोदाम तक पहुंचने के बाद 7500 रुपये प्रति क्विंटल बिकी थी, जबकि वर्ष 2026-27 के लिए सरकार ने एमएसपी मात्र 6200 रुपये घोषित किया है। यह बढ़ोतरी सिर्फ 4.2 प्रतिशत है, जबकि कर्मचारियों का महंगाई भत्ता पांच प्रतिशत तक बढ़ाया गया। किसानों द्वारा निकाली गई ए-2 प्लस एफएल लागत 3210 रुपये प्रति क्विंटल है, और सरकार की ही बजटीय घोषणा के अनुसार सी-2 संपूर्ण लागत 4558 रुपये के डेढ़ गुना के हिसाब से एमएसपी 6837 रुपये होना चाहिए। इसके बावजूद किसानों ने संयम दिखाते हुए सरसों का मूल्य 6500 रुपये प्रति क्विंटल तय किया है।
किसानों का साफ ऐलान है कि जब तक उत्पादक के अलावा कोई और कृषि उपज का मूल्य तय करता रहेगा, तब तक किसान शोषित ही रहेगा। इस बेचारेपन को खत्म करने के लिए पिछले वर्ष 6000 रुपये का मूल्य तय कर पहल की गई थी और इस वर्ष उसे आगे बढ़ाते हुए 6500 रुपये का संकल्प लिया गया है। अब कोई भी किसान इससे कम दाम पर सरसों नहीं बेचेगा। यही अपने श्रम का सम्मान पाने और किसानराज की दिशा में बढ़ने का एकमात्र रास्ता है। जाति, धर्म और दल से ऊपर उठकर समान आर्थिक हितों के आधार पर एकजुट होने की यह हुंकार ही आने वाले समय में किसान की ताकत और राजनीति की दिशा तय करेगी।

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