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गहलोत-डोटासरा को कब पकड़ेगी भजनलाल सरकार? 2 साल में जीरो उपलब्धि!

राजस्थान की पंडित भजनलाल शर्मा सरकार के 2 साल पूरे होना सिर्फ एक कार्यकाल की गणना नहीं है, यह उस भरोसे की सार्वजनिक समीक्षा है जो “भ्रष्टाचार मुक्त, पेपर ऋलीक मुक्त और भयमुक्त प्रशासन” के वादे के साथ जनता ने जनादेश दिया था। सत्ता परिवर्तन के समय भाजपा ने स्पष्ट कहा था कि पिछली सरकार ने जिस तरह पेपर लीक, अपराध, भ्रष्टाचार के मामले में सिस्टम को खोखला किया है, उसे जड़ से उखाड़ा जाएगा, लेकिन दो साल बाद सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या यह सरकार केवल अतीत के अपराधों की फेहरिस्त पढ़ने तक सीमित रह गई है या उसने उन अपराधियों को अंजाम तक पहुंचाने का राजनीतिक साहस भी दिखाया है? 

विधानसभा और लोकसभा चुनाव में भी वोट पाने के लिए पेपर लीक के मगरमच्छ बोलकर अशोक गहलोत और गोविंद डोटासरा पर आरोप लगाए, लेकिन आज दो साल होने के बाद भी इन नेताओं के खिलाफ एक मुकदमा तक नहीं करवाया जा सका है। पेपर लीक भले ही निचले स्तर के अधिकारियों और छुटभैये नेताओं ने किए हों, लेकिन अंतत जिम्मेदार तो सीएम रहे अशोक गहलोत और तत्कालीन शिक्षा मंत्री गोविंद डोटासरा को ही माना गया था। किंतु दुर्भाय की बात यह है कि पेपर लीक के मगरमच्छ बोल सत्ता में आने वाली भाजपा के नेता आज चुप बैठे हैं।

बीजेपी समर्थकों का तर्क यह है कि कांग्रेस सरकार के दौरान पेपर लीक, भर्ती घोटाले, भ्रष्टाचार और अपराध इतनी गहरी पैठ बना चुके थे कि उन्हें ठीक करने में समय लगेगा। यह तर्क सतही तौर पर सही लगता है, क्योंकि आरपीएससी से लेकर पुलिस विभाग, शिक्षक भर्ती और तकनीकी भर्तियों तक, परीक्षाओं की साख पहले ही टूट चुकी थी, लेकिन लोकतंत्र में समय की गिनती बहानों से नहीं, परिणामों से होती है। 

दो साल बाद भी यदि यही सवाल बना हुआ है कि “बड़े मगरमच्छ कौन हैं”, तो यह सरकार के लिए उपलब्धि नहीं, चेतावनी मानी जानी चाहिए। भाजपा वालों के पांच सा तक आरोप खूब लगे, लेकिन क्या आज दिन तक भी आरपीएससी भंग हुई? क्या पेपर लीक के असली जिम्मेदार मगरमच्छ पकड़े गए? क्या खतरनाक कहे गये अपराधों पर लगाम लगी? वास्तव में देखा जाए तो दो साल से मनमें एक भी काम नहीं हुआ। 

राइजिंग राजस्थान के नाम पर 35 लाख करोड़ के एमओयू का जमकर ढोल पीटा गया, और 7 लाख करोड़ के एमओयू जमीन पर उतारने का दावा भी किया गया, लेकिन सवाल यह उठता है कि प्रदेश की बेशकीमती जमीनें कंपनियों को बांटने के अलावा कौनसे एमओयू जमीन पर उतार युवाओं को रोजगार दे दिया? जिन 7 लाख करोड़ के एमओयू जमीन पर उताने का दावा किया जाता है, वो सभी सौर उर्जा के हैं, यानी जिनमें रोजगार के नाम पर हर प्लांट पर 2 लोगों को रोजगार मिलता है। 

इसका मतलब केवल दो दर्जन लोगों को रोजगार देने के लिए अरबों रुपयों की जमीनें कंपनियों को सौंप दी गईं! कहा तो यहां तक जाता है कि अधिकारियों के कालेधन से विदेशाों में बनी कंपनियों का पैसा भी दूसरे रास्ते से यहां निवेश किया गया है।

सरकार समर्थक यह कहते हैं कि पेपर लीक और भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए जांच एजेंसियों को खुली छूट दी गई, कई गिरफ्तारियां हुईं और मामले अदालतों में हैं, किंतु ज़मीनी हकीकत यह है कि जिन मामलों ने लाखों युवाओं का भविष्य चौपट किया, उनमें अबतक एक ऐसा उदाहरण सामने नहीं आया, जो यह संदेश दे कि सत्ता और सिस्टम से जुड़े प्रभावशाली लोग भी कानून से ऊपर नहीं हैं। 

एसआई भर्ती मामले में सरकार भर्ती रद्द करने का ढिंढोरा पीटकर पीछे हट गई और कोर्ट में भर्ती रद्द नहीं करने का निर्णय भी बता दिया। यदि पेपर लीक के दोषियों के नेटवर्क इतने बड़े थे, तो क्या वे दो साल में भी अभेद्य बने हुए हैं? यदि ऐसा है, तो ये पेपर लीक वालों के नेटवर्क की ताकत नहीं, सरकार की कमजोर इच्छाशक्ति को दर्शाता है। 

तत्कालीन सीएम अशोक गहलोत और पीसीसी चीफ गोविंद डोटासरा को पेपर लीक मामले में बड़ा मगरमच्छ कहा गया, डोटासरा ने दो साल में सरकार को बार-बार ललकारा भी, लेकिन मुंह फाड़कर आरोप लगाने के ​अलावा भाजपा सरकार ने डोटासरा या गहलोत के खिलाफ कुछ भी नहीं किया? इसलिए जनता पूछ रही है कि डोटासरा-भजनलाल में भी कहीं गहलोत-वसुंधरा की तरह मिलाजुली का खेल तो नहीं चल रहा है?

सरकार समर्थक दावा करते हैं कि पंडित भजनलाल शर्मा सरकार ने भ्रष्टाचार पर “जीरो टॉलरेंस” की नीति अपनाई है, लेकिन सवाल यह है कि इस नीति की परिभाषा क्या है? भ्रष्टाचारियों का निलंबन, उनका एपीओ और अधिक से अधिक तबादले ही जीरो टॉलरेंस के प्रमाण हैं? जिन अधिकारियों पर गंभीर आरोप लगे, जिनको एसीबी ने रंगेहाथों पकड़ा, उनमें से कितनों को दंड मिला? 

भ्रष्टों को एसीबी द्वारा पकड़ा जाता है, कुछ दिन जेल भेजा जाता है। उसके बाद निलंबन वापस और फिर वही अधिकारी पॉवरफुल बनकर सिस्टम के जरिए प्रदेश को खुलेआम लूटता है। सरकार की लापरवाही या संल्पितता का इससे बड़ा उदाहरण क्या होगा कि सीएम ने भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ जांच के लिए अभियोजन स्वीकृति ही नहीं दी। क्या सरकार की ओर से कभी सार्वजनिक रूप से ऐसी कोई सूची रखी गई कि किस अधिकारी को रंगेहाथ पकड़े जाने के बावजूद क्यों और किस आधार पर दंडित नहीं किया गया? 

पारदर्शिता का दावा तभी विश्वसनीय होता है, जब सरकार खुद अपने फैसलों को जनता के सामने रखने का साहस करे। सीएम लेवल पर अभियोजन स्वीकृति नहीं मिलने के कारण बरसों से भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ जांच नहीं हो पा रही है। जब किसी भ्रष्ट अधिकारी के खिलाफ जांच की अनुमति देनी ही नहीं है, तो फिर भ्रष्टाचारियों को पकड़ने के लिए एसीबी का गठन क्यों कर रखा है? 

क्या भ्रष्ट अधिकारियों को जेल भेजन के दबाव में उनसे मासिक बंधी वसूलने के लिए एसीबी बना रखी है? किसी अधिकारी को भ्रष्ट मानने का इससे बड़ा सबूत क्या चाहिए कि एसीबी रंगेहाथों पकड़ती है। 

शनिवार को ही आरएएस दिव्या मित्तल को तीन साल पुराने रिश्वत मामले में क्लिन चिट मिल गई, जिसपर करोड़ों रुपयों की रिश्वत का आरोप था। एसीबी ने दिव्या मित्तल को पकड़ा और उसी एसीबी ने कोर्ट में पर्याप्त साक्ष्य नहीं रखे। 

क्या इस प्रकरण में भी एसीबी के अधिकारी सेट हो गए या बड़े स्तर पर मामला निपट गया? सरकार ने दिव्या मित्तल के खिलाफ अभियोजन स्वीकृति क्यों नहीं दी? भाजपा के एक विधायक देवीसिंह शेखावत के भाई आरएस अधिकारी गोपाल सिंह शेखावत को भ्रष्टाचार में पकड़ा गया, लेकिन उसके खिलाफ अभियोजन स्वीकृति नहीं मिली, क्योंकि वो सत्ताधारी पार्टी के विधायक देवीसिंह शेखावत का भाई है!

युवाओं के मुद्दे पर सरकार का पक्ष यह है कि नई भर्तियों में पारदर्शिता लाई जा रही है और तकनीकी सुधार किए गए हैं, लेकिन यहां एक केस-स्टडी की तरह सवाल खड़ा होता है। क्या पिछली परीक्षाओं में प्रभावित हुए युवाओं के लिए कोई पुनर्भरण या विश्वास बहाली का मॉडल सामने आया? क्या सरकार ने कभी यह स्वीकार किया कि केवल नई परीक्षाएं कराना पर्याप्त नहीं, बल्कि पुराने घावों पर मरहम लगाना भी उसकी नैतिक जिम्मेदारी है? 

जबतक युवाओं को यह भरोसा नहीं मिलेगा कि उनकी मेहनत का फल सुरक्षित है, तब तक हर नई घोषणा संदेह के घेरे में ही रहेगी। बीजेपी समर्थक कानून व्यवस्था को लेकर भी सरकार का बचाव करते हैं और आंकड़ों का हवाला देते हैं, लेकिन आंकड़े हमेशा सच की पूरी तस्वीर नहीं होते। दो साल पहले तो हर तिमाही में एनसीआरबी के आंकड़े जारी करने वाली केंद्र सरकार दो साल से आंकड़े जारी करना ही भूल गई है। 

सवाल यह है कि क्या आम नागरिक खुद को पहले से ज्यादा सुरक्षित महसूस कर रहा है? महिलाओं के खिलाफ अपराध, दलित उत्पीड़न और सामाजिक तनाव की घटनाओं पर सरकार की प्रतिक्रिया क्या केवल प्रशासनिक औपचारिकता तक सीमित रही, या उसमें संवेदनशीलता और त्वरित न्याय की झलक भी दिखी? 

हर घटना के बाद “कानून अपना काम करेगा” कहना शासन नहीं, बल्कि जिम्मेदारी से बचने का सुरक्षित वाक्य बनता जा रहा है। किसानों के मामले बढ़ रहे हैं, लेकिन सत्ता की ओर से कोई चूं तक करने वाला नहीं है, विपक्ष की मौन स्वीकृति ने सरकार को प्राणवायु दे रखी है। किसान सम्मान निधि 6 हजार से 12 हजार रुपये करने का वादा केवल 8 हजार रुपये तक पहुंचा है। दो साल में दो हजार बढ़े हैं, 6 हजार तक सरकार कब पहुंच पाएगी?

सरकार के समर्थन में तर्क यह दिया जाता है कि पंडित भजनलाल सरकार ने तुष्टिकरण की राजनीति छोड़कर संतुलित शासन का रास्ता अपनाया है, लेकिन प्रश्न यह है कि क्या निष्पक्षता का यह दावा कठिन फैसलों में भी कायम रहा? क्या सरकार ने कभी अपने ही संगठन या सत्ता से जुड़े लोगों पर उसी सख्ती से कार्रवाई की, जिस सख्ती का दावा विपक्ष पर करते समय किया जाता है? 

अगर जवाब अस्पष्ट है, तो निष्पक्षता का दावा भी अधूरा माना जाएगा। यह कहना भी ज़रूरी है कि केंद्र सरकार की योजनाओं के क्रियान्वयन में राज्य सरकार ने प्रशासनिक अनुशासन दिखाने की कोशिश की है और कुछ क्षेत्रों में स्थिरता आई है। क्या यह स्थिरता उस बदलाव के बराबर है, जिसका वादा किया गया था? जनता ने भाजपा को केवल “मैनेजमेंट” के लिए वोट दिया था, या “ट्रांसफॉर्मेशन” के लिए जनाधार दिया था?सबसे बड़ा सवाल राजनीतिक इच्छाशक्ति का है। 

सत्ता में आने से पहले जिन मुद्दों पर बीजेपी सड़क पर थी। पेपर लीक, भ्रष्टाचार, अफसरशाही की मनमानी, महिला अपराध, दलितों पर अत्याचार, बेरोजगारी, क्या सत्ता में आने के बाद उन्हीं मुद्दों पर वही आक्रामकता दिखाई दी? या फिर सत्ता का भार और व्यावहारिक राजनीति आदर्शों को धीरे-धीरे नरम करती चली गई? 

अगर सरकार खुद यह मानती है कि पिछली व्यवस्था बेहद खराब थी, तो फिर उसे सुधारने में आधे-अधूरे कदम क्यों बढ़ाए गए? क्या भजनलाल सरकार अपने दो साल पूरे होने पर यह दावा कर सकती है कि उसने डर का माहौल तोड़ा या सिर्फ बयानबाज़ी को व्यवस्थित किया? क्या उसने सिस्टम को चुनौती दी या सिस्टम के साथ समझौता किया? क्या उसने भविष्य की गारंटी दी या केवल अतीत की असफलताओं का लेखा-जोखा पेश किया?

समर्थक दो साल को सफल कार्यकाल बोलकर ढोल पीट रहे हैं, लेकिन इन तमाम विफलताओं के बावजूद भी क्या पंडित भजनलाल शर्मा सरकार को सफल कहा जा सकता है? सबसे चिंताजनक तथ्य यह है कि सरकार अपने बचाव में जितना पिछली सरकार का हवाला देती है, उतना अपने निर्णायक कार्यों का उदाहरण नहीं दे पाती। 

लोकतंत्र में चुनाव अतीत को दंड देने के लिए नहीं, भविष्य को सुरक्षित करने के लिए जीते जाते हैं। यदि आने वाले समय में भी सरकार बड़े मामलों में निर्णायक कार्रवाई से बचती रही, तो “पिछली सरकार के पापों” का तर्क धीरे-धीरे अपनी धार खो देगा। 

क्योंकि 3 साल बाद जनता यह नहीं पूछेगी कि कांग्रेस ने क्या बिगाड़ा था, बल्कि यह पूछेगी कि भजनलाल सरकार ने क्या सुधारा और यही सवाल किसी भी सरकार का अंतिम मूल्यांकन होता है। मोटे तौर पर देखा जाए तो राइजिंग राजस्थान और ईआरसीपी के एमओयू का ढिंढोरा पीटने के अलावा पंडित भजनलाल शर्मा सरकार उपलब्धि के नाम पर आज दो साल बाद भी पूरी तरह से खाली हाथ है।

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