सतीश पूनिया ही बनेंगे दुबारा भाजपा के अध्यक्ष

राजस्थान में विधानसभा चुनाव में अभी भी लगभग 19 महीनों का समय बाकी है, किंतु जिस तरह से राजनीतिक पारा परवान चढ़ रहा है, उससे ऐसा लग रहा है कि इस वर्ष के अंत तक प्रस्तावित गुजरात, हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक चुनाव सम्पन्न होते होते राजस्थान, मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ का चुनावी रंग सातवें आसमान पर पहुंच चुका होगा। इन तीन राज्यों में से दो में कांग्रेस व एक की सत्ता में भाजपा है, जहां दिसंबर 2018 में एक साथ चुनाव हुए थे और तत्कालीन भाजपा सरकारों को उखाड़कर तीनों ही राज्यों में कांग्रेस की सरकारें बनी थींं। उस समय किसान कर्जमाफी सबसे बड़ा वादा था, तो नारी सम्मान, दलित अत्याचार और बेरोजगारों को गारंटीड सरकारी नौकरी के वादे ने तीनों ही राज्यों में सरकारें बदल दी थीं। हालांकि, करीब एक साल बाद ही मध्य प्रदेश में सियासी समीकरण बदले और कांग्रेस के 21 विधायकों के इस्तीफे के साथ ही कांग्रेस की कमलनाथ सरकार गिर गई। उसके बाद राजस्थान में भी 11 जुलाई 2020 को ऐसे ही स्वर सुनाई दिए। सरकार खुद को 34 दिनों तक होटलों में कैद रखने को मजबूर हो गई और बगावत करने वाला सचिन पायलट गुट हरियाणा के मानेसर में चला गया। बाद में कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा द्वारा बीच बचाव करने व पायलट कैम्प को आश्वासन देन के कारण सरकार पर छाये संकट के बादल हटे। कांग्रेस में आज भी पॉवर के दो कैम्प हैं। एक मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का और दूसरा सचिन पायलट का। दोनों में कॉल्ड वॉर चल रहा है। फिर भी पायलट बार बार ऐसा दावा कर रहे हैं कि अब भी वक्त है, यदि कांग्रेस ने समय रहते सही फैसला किया, तो 2023 में कांग्रेस सत्ता में रिपीट हो सकती है, जो बीते 30 साल से नहीं हो पा रही है। इधर, भाजपा को पूरा भरोसा है कि 2023 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी ना केवल सत्ता से बेदखल होगी, बल्कि हमेशा के लिए कांग्रेस मुक्त राजस्थान कर दिया जाएगा, जैसे गुजरात, उत्तर प्रदेश जैसे कई राज्यों में तीन दशकों से चल रहा है। किंतु सवाल यह उठता है कि आखिर सत्ता प्राप्त होने पर भाजपा किसको मुख्यमंत्री बनाएगी? कांग्रेस वालों का कहना है कि भाजपा में 6 नेता मुख्यमंत्री के कपड़े सिलाकर बैठे हैं। भाजपा कहती है कि हमारा पार्लियामेंट्री बोर्ड ही सीएम का नाम तय करेगा। भाजपा का संसदीय बोर्ड तो चुनाव परिणाम के बाद तय करेगा, जब भाजपा को बहुमत मिलेगा, लेकिन आज सवाल यह है कि दिसंबर में पार्टी के मुखिया डॉ. सतीश पूनिया का पहला कार्यकाल पूरा हो रहा है, ऐसे में पार्टी अध्यक्ष कौन तय करेगा और किसका नाम तय करेगा, यह प्रश्न धीरे—धीरे राजनीत में चर्चा का विषय बन गया है। राजस्थान में दो गुट स्पष्ट दिखाई देते हैं। पहला पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का है, जो उनके दो चमत्कार देख चुका है। दूसरा कैम्प आरएसएस की छत्रछाया में सतीश पूनियां के संगठन का गुट है। पहला गुट 2023 के अंत में एक बार फिर से वसुंधरा राजे द्वारा चमत्कार करने की उम्मीद में है। मगर उससे करीब एक साल पहले वसुंधरा राजे को एक चमत्कार और करना होगा, जिसकी उस चमत्कार के होने से पहले सख्त जरुरत है। वसुंधरा राजे गुट बीते करीब पौने तीन साल से संगठन से नजरअंदाज है या दरकिनार है, यही सबसे बड़ी चुनौती है, जिसको चुनाव से एक वर्ष पहले पार पाना है। सतीश पूनियां का मौजूदा कार्यकाल 27 दिसंबर 2022 में समाप्त हो रहा है। भाजपा के संविधान के अनुसार एक व्यक्ति तीन साल तक अध्यक्ष रह सकता है और उसका कार्यकाल एक बार बढ़ाया जा सकता है। ऐसे में वसुंधरा राजे कैम्प की कोशिश होगी कि सतीश पूनियां को दूसरा कार्यकाल नहीं मिले, तो सतीश पूनिया कैम्प चाहेगा कि लगातार दूबारा पार्टी अध्यक्ष बना जाए, ताकि उसके एक साल में होने वाले विधानसभा चुनाव के दौरान टिकट बंटवारे से लेकर संगठन के पॉवर का केंद्र उनके पास रहे। यही चमत्कार है, जिसकी उम्मीद वसुंधरा समर्थक कर रहे हैं। यदि इस मौके पर वसुंधरा ने बाजी मार ली, तो तय है कि टिकट बंटवारा उनके करीबी लोगों के लिए होगा और अगर इस मौके को वसुंधरा ने गंवा दिया, तो तय है कि सतीश पूनियां के संगठन वाला गुट पार्टी पर हावी हो जाएगा। और फिर टिकट बंटवारे में वसुंधरा राजे को रॉल लगभग खत्म हो जाएगा, अधिक से अधिक वह पूर्व मुख्यमंत्री के नाते अपने निकट तीन या चार लोगों को टिकट दिला सकेंगी। पार्टियों में यही लड़ाई बेहद दिलचस्प होती है। जो भी पार्टी का मुखिया होता है, उसकी टिकट बंटवारे में चलती है, बाकी सारे दावेदार और नेता 50 फीसदी टिकटों तक सिमट जाते हैं। यदि 27 दिसंबर 2022 को सतीश पूनियां दु​बारा अध्यक्ष बनते हैं तो फिर तय है कि संगठन पर उनकी पकड़ इतनी मजबूत हो जाएगी, कि चुनाव परिणाम के बाद भाजपा का संसदीय बोर्ड उनकी सुने बिना मुख्यमंत्री का निर्णय नहीं ले पाएगा। अब सवाल यह उठता है कि सतीश पूनियां के दुबारा पार्टी अध्यक्ष बनने की कितनी संभावना है और नहीं बनने की कितनी है? उम्र और कद—पद के हिसाब से बात करें तो सबसे पहले राज्यसभा सांसद ओम माथुर की संभावना लगभग नहीं के बराबर है, क्यों​कि उनकी छवि भाजपा के शीर्ष नेताओं की नजर में साफ सुथरी नहीं रह गई है। दूसरा नंबर आता है गुलाबचंद कटारिया का, जो खुद ही अब राजनीतिक संयास की तरफ जा रहे हैं। राजेंद्र राठौड़ की महात्वाकांक्षाएं तो बहुत हैं, लेकिन उनके उपर आज भी दूसरे दल से आए नेता का ठप्पा लगा हुआ है। पार्टी के लोगों का मानना है कि एक समय वसुंधरा राजे के सबसे खास रहने वाले राठौड़ पर आरएसएस को विश्वास नहीं है। इसके आगे राज्यवर्धन राठौड़ हैं, जो दूसरी बार सांसद हैं, लेकिन पार्टी में उनकी पैदाइशी छवि नहीं है, जिसके कारण उनको संगठन की जानकारी का अभाव बताया जाता है। इसी क्रम में केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत, अर्जुनराम मेघवाल, कैलाश चौधरी और लोकसभा अध्यक्ष ओम बिडला हैं, जिनको पदों से हटाकर अचानक राजस्थान भेजकर भाजपा बैकफुट पर नहीं जाना चाहेगी। सबसे आखिर मजबूत नामों में एक नाम है वसुंधरा राजे का खुद या उनकी किसी करीबी का। वसुंधरा राजे स्वयं दो बार पार्टी अध्यक्ष रह चुकी हैं, ​जबकि ​उनके पिछले कार्यकाल के दौरान उनके करीबी अशोक परनामी रबर स्टाम्प बनरक 6 साल मौज काट चुके हैं। हालांकि, पूर्व अध्यक्ष अरूण चतुर्वेदी की उम्र अभी बाकी है, लेकिन उनके साथ दिक्कत यह है कि अब उनको काफी कमजोर अध्यक्ष के तौर पर जाना जाने लगा है, जो रवैया अब मोदी—शाह—नड्डा के दौर में नहीं चलता है। ऐसे में वसुंधरा राजे को अध्यक्ष बनाया जाता है ​तो उनका कद कम करना होगा, क्योंकि वह वर्तमान में राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं, जो प्रोटोकॉल के अनुसार प्रदेश अध्यक्ष से बड़ा पद होता है। ऐसे में अध्यक्ष के लिए सतीश पूनियां के तौर पर एक ही चर्चित नाम बचता है। सतीश पूनियां ने पिछले पौने तीन साल में वह किया है, जो वसुंधरा राजे के बाद कोई नहीं कर पाया। जब वसुंधरा राजे को 2003 में अध्यक्ष बनाकर राजस्थान में उतारा गया था, तब उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती पूर्व मुख्यमंत्री भैंरोसिंह शेखावत की टीम को रिप्लेस कर अपनी नई टीम बनाना था, जिसको उन्होंने बखूबी किया। उनकी टीम लगातार डेढ दशक तक राजस्थान भाजपा की पर्याय बनकर रही। दिसंबर 2019 में जब सतीश पूनियां को अध्यक्ष बनाया गया, तब उनके सामने भी यही चुनौती रही, कि वसुंधरा राजे की जमी जमाई टीम को कैसे संगठन से बेदखल कर नई टीम बनाया जाए। हालांकि, सतीश पूनियां का व्यक्तित्व वसुंधरा राजे की तरह कडक मिजाज और डरावना नहीं है, किंतु फिर भी उन्होंने पार्टी में भाईसाहब बनकर जो किया, वह काबिले तारीफ है। ऐसा नहीं है कि सतीश पूनियां ने चमत्कार करते हुए वसुंधरा राजे के लोगों को पार्टी से बिलकुल ही बाहर कर दिया हो, लेकिन इतना तो कर दिया, जितना ओम माथुर, अरूण चतुर्वेदी या डमी अध्यक्ष अशोक परनामी नहीं कर पाए थे। इन तीनों ही अध्यक्षों पर वसुंधरा राजे की छाया रही, लेकिन सतीश पूनियां इस मामले में अपवाद बनकर उभरे हैं। लोग तो यहां तक चर्चा करते हैं कि जिस तरह से वसुंधरा राजे के करीबी लोगों को सभ्य चालाकी से सतीश पूनियां ने बाहर का रास्ता दिखाया है, वैसा शायद ही कोई दूसरा नेता कर पाता। ऐसा नहीं है कि सतीश पूनियां कोई पॉवरफुल नेता हैं, वह तो विधायक भी पहली बार बने थे। किंतु शायद भाजपा का शीर्ष नेतृत्व भी यही चाहता था कि लंबे समय से वसुंधरा राजे के पास रहा संगठन अब उनकी छत्रछाया से बाहर निकले। राजनीति के जानकारों का मानना है कि नरेंद्र मोदी से लेकर अमित शाह और जेपी नड्डा का सतीश पूनियां पर हाथ है, जिसके चलते वह वसुंधरा राजे कैम्प की बिलकुल भी परवाह नहीं करते हैं। वैसे भी कोई दल चुनाव के अंतिम साल में अपना पार्टी अध्यक्ष बदलकर संगठन को तितर—भीतर नहीं करना चाहता है। ऐसा करने पर ना केवल कम समय में संगठन का ​पुनर्निमाण करना पड़ता है, बल्कि पुरानी टीम के साथ नये पार्टी अध्यक्ष को संतुलन बिठाने में काफी समय जाया हो जाता है। यही वे कारण हैं, जो सतीश पूनियां को लगातार दूसरा कार्यकाल दिलाने के पक्ष में दिखाई दे रहे हैं। पूरे विश्लेषण के बाद निष्कर्ष के तौर पर यह कहा जा सकता है कि 27 दिसंबर 2022 को राजस्थान भाजपा के वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष डॉ. सतीश पूनियां पुन: अध्यक्ष बनकर पार्टी को 2023 का चुनाव लड़ाएंगे। 14 जून 2019 को तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष मदनलाल सैनी के निधन के दूसरे ही दिन हमने सबसे पहले बताया था कि सतीश पूनियां पार्टी के अध्यक्ष होंगे, और उसके 84 दिन बाद भाजपा ने सतीश पूनियां को अध्यक्ष बनाकर हमारी बात पर मोहर लगाई थी।

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