मोदी ने 2024 की जीत का पुख्ता सबूत पेश कर दिया है

Ram Gopal Jat
राजस्थान के लाल जगदीप धनकड़ ने धमाकेदार जीत दर्ज कर कई रिकॉड कायम कर दिये। धनकड़ की तीत इस बात का धोतक है कि विपक्ष की हालात बिलकुल खराब है, जो बार—बार मोदी को लेकर बयान देता रहता है। चाहे राष्ट्रपति का चुनाव हो या उपराष्ट्रपति का, हर बार विपक्ष पूरी तरह से बिखरा हुआ नजर आया है। इन दोनों चुनाव की तस्वीर ने साफ कर दिया है कि दो साल बाद होने लोकसभा चुनाव में ये दल एक नहीं हो पायेंगे और मोदी—भाजपा का इसका बड़ा लाभ मिलने वाला है। जगदीप धनकड़ की जीत के मायने समझेंगे और लोकसभा चुनाव की उभरती तस्वीर भी जानेंगे, लेकिन पहले उस बात का समझिये कि पश्चित बंगाल के राज्यपाल रहते ट्वीटर पर जगदीप धनकड़ को ब्लॉक करने वाली मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की पार्टी टीएमसी द्वारा मतदान में हिस्सा नहीं लेना क्या संकेत दे रहा है?
पश्चिम बंगाल का राज्यपाल रहते जिन जगदीप धनखड़ के साथ टीएमसी सुप्रीमो और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के टकराव की खबरें सुर्खियां बटोरती रहती थीं, चुनाव में मतदान नहीं कर ममता बनर्जी ने एक तरह से उनकी ही मदद की। विपक्ष का यह भी कहना है कि ममता बनर्जी ने अपने राज्यपाल को उपराष्ट्रपति बनाने के लिये विपक्ष को धोखा दिया है। हालांकि, जो वोट धनकड़ को मिले हैं, उससे ऐसा लग रहा है कि टीएमसी के विपक्ष में मतदान करने से भी उनकी हार नहीं होती, लेकिन फिर भी विपक्ष की एकता का सूत्र जरुर बंध जाता। पहले राष्ट्रपति चुनाव में ममता बनर्जी के नामित उम्मीदवार यशवंत सिन्हा की करारी हार और अब शरद पवार द्वारा प्रस्तावित उपराष्ट्रपति उम्मीदवार माग्रेट अल्वा की हार बात का पुख्ता सबूत है कि विपक्ष के पास ना तो कोई सर्वमान्य नेता है और ना विपक्ष में किसी को किसी पर भरोसा है।
राजनीति में नंबर गेम का खेल है। जिसके पास नंबर हैं, सिक्का उसी का चलता है। इस लिहाज से उपराष्ट्रपति चुनाव तो महज औपचारिकता था। एनडीए की जीत और विपक्ष की हार पहले से ही तय थी, लेकिन नतीजों से जो तस्वीर उभरी, वह बहुत कुछ कहती है। जगदीप धनखड़ की प्रचंड जीत भारतीय राजनीति में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुआई में बीजेपी के दबदबे के जारी रहने की मुनादी है। दूसरी तरफ यह 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले विपक्षी एकता के छिन्न-भिन्न होने का प्रमाण है। पीएम मोदी और उपराष्ट्रपति बने जगदीप धनखड़ के खिले चेहरे बिखरे हुए विपक्ष की हताशा की तस्वीर है।
राष्ट्रपति चुनाव और उपराष्ट्रपति चुनाव में थोड़ा फर्क है। राष्ट्रपति के चुनाव में विधानसभाओं और विधानपरिषदों के सदस्य भी वोटिंग करते हैं, लेकिन उपराष्ट्रपति चुनाव में केवल संसद के दोनों सदनों के सदस्य ही वोटिंग करते हैं। जगदीप धनखड़ को 528 वोट मिले, जबकि विपक्ष की संयुक्त उम्मीदवार मार्ग्रेट अल्वा को महज 182 वोट से संतोष करना पड़ा। चुनाव में 780 वोट पड़ सकते थे लेकिन 725 सांसदों ने यानी 92.9 प्रतिशत ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया। इनमें से 15 वोट अमान्य साबित हुए। धनखड़ को 528 वोट, यानी कुल वैध मतों का 72.8 प्रतिशत वोट मिले। अल्वा को महज 25.1 प्रतिशत वोट ही मिल सके।
उपराष्ट्रपति चुनाव का नतीजा भारतीय राजनीति में मोदी युग के जारी रहने का संकेत है। सभी शीर्ष संवैधानिक पदों राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, उपराष्ट्रपति, जो राज्यसभा के पदेन सभापति भी हैं और लोकसभा स्पीकर के पद पर बीजेपी का एक तरफा कब्जा है। दूसरी तरफ विपक्ष है, जो लाख कोशिशों के बाद भी बिखरा हुआ है, टूटा हुआ है। विपक्षी एकता का दम भरने वाली और राष्ट्रीय स्तर पर एंटी-बीजेपी कैंप की अगुआई का सपना देखने वालीं ममता बनर्जी ने टीएमसी सांसदों को वोटिंग में हिस्सा नहीं लेने का फरमान दिया था।
टीएमसी के इस कदम से 2024 चुनाव से पहले विपक्षी एकता के गुब्बारे की हवा निकल गई है। नरेंद्र मोदी को एकजुट होकर घेरने की कोशिश में लगे विपक्ष के लिए यह झटका मनोबल तोड़ने वाला है। तभी तो हार के बाद मार्ग्रेट अल्वा टीएमसी चीफ पर भड़ास निकालने से खुद को नहीं रोक पाईं। उन्होंने कहा कि कुछ पार्टियों ने 'प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर' बीजेपी की मदद की। उनके निशाने पर खासकर टीएमसी थी। अल्वा ने कहा, 'यह चुनाव विपक्ष के लिए एकजुट होकर काम करने का एक मौका था...और एक दूसरे पर भरोसा पैदा करने का मौका था। दुर्भाग्य से कुछ विपक्षी दलों ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर बीजेपी का समर्थन करना चुना, ये एकजुट विपक्ष के विचार को बेपटरी करने की कोशिश है।' अल्वा ने इस चुनाव को 'संविधान के रक्षकों और संविधान की जड़ें खोदने वालों' के बीच वैचारिक लड़ाई के तौर पर पेश करने की कोशिश की थी।
जगदीप धनखड़ उपराष्ट्रपति चुनाव में जीत हासिल करने वाले बीजेपी के पहले ऐसे उम्मीदवार हैं, जिन्होंने अपने सियासी सफर की शुरुआत संघ परिवार से नहीं की। भैंरो सिंह शेखावत और वैंकैया नायडू तो संघ में ही राजनीति का ककहरा सीखते हुए बीजेपी के शीर्ष नेताओं में शुमार हुए थे। इनके उलट जगदीप धनखड़ ने बीजेपी तक का सफर लोकदल और कांग्रेस होते हुए पूरा किया है। उन्होंने 2008 में कांग्रेस छोड़कर बीजेपी का दामन थामा था। जगदीप धनखड़ को करीब 73 प्रतिशत वोट मिले जो साल 2017 में वैंकैया नायडू को मिले वोटों से 2 प्रतिशत ज्यादा हैं। धनखड़ ने अपने प्रतिद्वंद्वी को 346 वोटों के अंतर से हराया। साल 1997 के बाद पिछले 6 उपराष्ट्रपति चुनावों में जीत का ये सबसे बड़ा अंतर है।
हालांकि, उपराष्ट्रपति चुनाव में सबसे बड़ी जीत का रेकॉर्ड केआर नारायणन के नाम है। उन्हें 1992 में कुल पड़े 701 वोटों में से 700 वोट मिले थे। हालांकि, तब उनका मुकाबला किसी पार्टी के उम्मीदवार से नहीं, बल्कि निर्दलीय काका जोगिंदर सिंह उर्फ 'धरती पकड़' से था। भारत के संसदीय इतिहास में 4 उपराष्ट्रपति ऐसे भी हुए जिन्हें निर्विरोध चुना गया था। जगदीप धनखड़ को न सिर्फ बीजेपी की अगुआई वाले एनडीए के घटक दलों का समर्थन मिला, बल्कि कई गैर-एनडीए दलों का भी साथ मिला। उन्हें एनडीए के 441 सांसदों और 5 मनोनीत सांसदों के अलावा गैर-एनडीए दलों बीजेडी, वाईएसआर कांग्रेस, बीएसपी, टीडीपी, अकाली दल और शिवसेना के एकनाथ शिंदे गुट का वोट मिला, जिनके पास कुल 81 सांसद हैं।
कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दल मार्ग्रेट अल्वा के पक्ष में 200 से ज्यादा वोटों की उम्मीद कर रहे थे, लेकिन वह ये आंकड़ा नहीं छू पाईं। उन्हें सिर्फ 182 वोट ही मिल पाए। अल्वा को कांग्रेस, DMK, TRS, AAP, NCP, CPM, CPI, IUML, SP, JMM, AIMIM, AIUDF, RSP,VCK, MDMK, RJD, RLD, केरल कांग्रेस और नैशनल कॉन्फ्रेंस जैसे 20 दलों का समर्थन हासिल था। जिन सांसदों ने उपराष्ट्रपति चुनाव में वोट नहीं दिया, उनमें टीएमसी के तमाम सांसदों के अलावा बीजेपी के सन्नी देओल, संजय धोत्रे, कांग्रेस के रणदीप सुरजेवाला और धीरज साहू भी प्रमुख हैं। धनकड़ की जीत राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा का होंसला बुलंद करने की बूस्टर डोज मानी जा रही है, लेकिन साथ ही राजस्थान भाजपा को भी एक संदेश है कि करीब सवा साल बाद होने वाले विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा उस शेखावाटी पर भी फोकस कर रही है, जहां पर पिछले चुनाव में 21 में से केवल तीन सीटों पर भाजपा जीत पाई है। यहां की झुंझुनू, सीकर, श्रीगंगानगर, हनुमानगढ़, नागौर की सीटों पर ​जगदीप धनकड़ के जरिये भाजपा को फायदा मिलने की उम्मीद है। साथ ही किसान परिवार से होने के कारण लोकसभा चुनाव में राजस्थान, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पंजाब में भी भाजपा को लाभ की अपेक्षा है।
इस जीत ने यह भी साफ कर दिया है कि विपक्ष के पास ना तो कोई चेहरा है, ना जीत की उम्मीद है और ना ही किसी को किसी दूसरे पर भरोसा है, जो दो साल बाद होने वाले लोकसभा चुनाव के दौरान महागठबंधन किया जा सके। वैसे तो विपक्ष मोदी युग के प्रारम्भ से ही बिलकुल बिखरा हुआ और हताश नजर आ रहा है, लेकिन इन दोनों संवैधानिक चुनावों ने इस बात पर मुहर लगा दी है कि आठ साल बाद भी विपक्ष यह नहीं समझ पाया है कि पक्की एकजुट हुये बिना मोदी से मुकाबला करना असंभव है। इन चुनाव के दौरान कांग्रेस का जहां एक ही मंत्र रहा है कि ईडी की कार्यवाही से अपने पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी और वर्तमान अध्यक्ष सोनिया गांधी को कैसे भी बचाया जाये, तो विपक्ष में दूसरे दलों के पास राष्ट्रीय स्तर का अनुभव ही नहीं दिखाई दे रहा है।
सत्ता में रहते किये गये अपने काले कारनामों के कारण ईडी के जाल में फंसे अधिकांश दल तो अपने आपको बचाने में ही लगे हुये हैं, बाकी को अपने राज्य से बाहर निकलने की फुर्सत नहीं है। जिसका फायदा ​बीजेपी को मिल रहा है, बल्कि भाजपा और मोदी की दनादन जीतने का सबसे बड़ा कारण बन रहा है। भले ही विपक्षी नेताओं द्वारा मोदी सरकार पर महंगाई से लेकर ईडी के दुरुपयोग के आरोप लगाये जाते हों, लेकिन पहले 2019 के लोकसभा चुनाव में मिली प्रचंड़ जीत और अब विपक्षी सांसदों—विधायकों का बिखराव यही कहता है​ कि विपक्षी नेताओं के बयानों में बहुत अधिक विरोधाभास है।
राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनाव में भाजपा ने उम्मीदवारों के नाम के साथ ही बढ़त बना ली थी। राष्ट्रपति के लिये आदिवासी समुदाय से आने वालीं द्रोपदी मुर्मू का नाम ही विपक्ष की नींद उड़ाने के लिये काफी था, तो उपर से उपराष्ट्रपति पद पर किसान समाज से आने वाले जगदीप धनकड़ का चुनाव कर रही सही कसर भी पूरी दी गई। भाजपा ने इन दोनों चुनाव के साथ ही देश में आदिवासी और किसान समुदाय के बहुत बड़े वर्ग को सकारात्मक संदेश दिया है, जिसको सामान्यत: सियासत में कहीं पीछे धकेल दिया जाता रहा है। इसलिये यह कहा जा सकता है​ कि भाजपा और मोदी ने 2024 के चुनाव से पहले सेमीफाइनल मुकाबले एक तरफा तरीके से जीतकर फाइनल में 400 पार की अपनी पुख्ता तैयारी का सबूत पेश कर दिया है।

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