निर्मल चौधरी की जीत का कारण सचिन पायलट ही हैं

Ram Gopal Jat
राजस्थान के सरकारी विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में छात्रसंघ चुनाव सम्पन्न हो गये। प्रदेश के सबसे पुराने और सबसे बड़े सरकारी विवि, यानी राजस्थान यूनिवर्सिटी में लगातार पांचवी बार निर्दलीय छात्र ने जीत हासिल की है। मीराबाई की धरती नागौर से आने वाले निर्मल चौधरी ने 4043 वोट हासिल कर निहारिका जोरवाल को 1467 वोटों से हराकर साबित कर दिया है​ कि जीत के लिये छात्रों का विश्वास जीतना जरुरी है, किसी संगठन का टिकट मिलने से कोई फर्क नहीं पड़ता है। इस जीत को पूर्व उपमुख्यमंत्री और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के धुर विरोधी माने जाने वाले सचिन पायलट की युवा जीत के तौर पर देखा जा रहा है। इस चुनाव में जहां एनएसयूआई के टिकट पर रितु बराला ने भाग्य आजमाया था, तो एनएसयूआई के नरेंद्र यादव ने फाइट करने का प्रयास किया, लेकिन दोनों ही संगठन टिक नहीं पाये। निर्दलीय निर्मल चौधरी ने बड़ी जीत दर्ज की तो अशोक गहलोत के मंत्री मुरारीलाल मीणा की बेटी निहारिका जोरवाल दूसरे स्थान पर रहीं।
वैसे तो इस चुनाव को मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की हार नहीं कहा जा सकता, लेकिन जब गुटबाजी हो और उनके सामने वाला गुट जीत जाये, तो यह तय है कि हार में उनकी भी भागीदारी रही है। निर्मल चौधरी की जीत में विधायक मुकेश भाकर और रामनिवास गावड़िया, पूर्व महासचिव और पूर्व एनएसयूआई अध्यक्ष अभिमन्यू पूनिया, विवि के पूर्व अध्यक्ष अनिल चौपड़ा समेत सचिन पायलट की युवा विंग का हाथ रहा है। इन लोगों के अनुभव और मेहनत से बिना टिकट के भी निर्मल चौधरी को जीत दिलाई है। कहते हैं कि एनएसयूआई अध्यक्ष के पद पर अशोक गहलोत के अभिषेक चौधरी होने के कारण पायलट कैंप से आने वाले निर्मल चौधरी ने टिकट मांगा ही नहीं, बल्कि शुरू से ही अपने दम पर चुनाव जीतने के लिये मेहतन की थी। दूसरी ओर भले ही मंत्री की बेटी हों, लेकिन एससी एसटी समुदाय का वोट एक करने के बाद भी निहारिका जोरवाल नहीं जीत पाई। विवि में चर्चा यह भी रही कि मंत्री मुरारीलाल मीणा की बेटी होने के कारण चुनाव से एक दिन पहले मंत्री ने विवि के कई प्रोफेसर्स और स्टाफ को अपने बंगले पर बुलाया था और बेटी का सहयोग करने का वचन लिया था, लेकिन इस हार ने साफ कर दिया है कि जब वोटर्स का साथ हो, तो विवि प्रशासन भी अधिक कुछ नहीं कर सकता है। जबकि खुद मुरारीलाल मीणा भी सचिन पायलट कैंप के ही हैं, लेकिन बेटी की जिद के आगे मंत्री ने हार मान ली और बागी होने पर भी चुनाव लड़वाया।
सामान्य तौर पर लोगों को यह लगता है कि इस जीत और हार के पीछे विवि के मतदाता ही हैं, लेकिन हकिकत यह है कि इस बार चुनाव में मुख्यमंत्री आवास से लेकर मंत्रियों, विधायकों और पार्टी अध्यक्षों का भी सीधा दखल रहा है। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि एनएसयूआई के प्रत्याशी को जिताने के लिये खुद मुख्यमंत्री आवास में ही रणनीति बनती थी, लेकिन उसपर सचिन पायलट कैंप के अनुभवी युवाओं की रणनीति भारी पड़ गई। असल में जिन लोगों ने रणनीति बनाई थी, उनमें निर्मल चौधरी के लिये जहां विधायक मुकेश भाकर और रामनिवास गावड़िया थे, तो साथ ही विवि के पूर्व अध्यक्ष अनिल चौपड़, विवि के पूर्व महासचिव और एनएसयूआई के पूर्व अध्यक्ष अभिमन्यू पूनिया के साथ ही नागौर से होने के कारण सांसद हनुमान बेनीवाल का भी आर्शीवाद रहा है।
दूसरी ओर एनएसयूआई की प्रत्याशी रितु बराला के लिये विवि का चुनाव हारे हुये एनएसयूआई अध्यक्ष अभिषेक चौधरी के अलावा, पूर्व अध्यक्ष सतवीर चौधरी जैसे रणनीति बनाने में जुटे थे, जो बुरी तरह से मात खा गये। जबकि दूसरे नंबर पर रही निहारिका जोरवाल के चुनाव का मैनेजमेंट करने वालों में पूर्व अध्यक्ष पूजा वर्मा, पूर्व महासचिव नरेश मीणा और नरसी किराड के अलावा मंत्री मुरारीलाल मीणा की पूरी टीम जुटी हुई थी। ज्ञान शील और एकता का दम भरने वाले संगठन एबीवीपी को लगातार सातवीं बार हार का सामना करना पड़ा है। जिसमें दो बार एनएसयूआई के प्रत्याशी, दो बार उसके खुद के बागी, दो बार एनएसयूआई के बागी और इस बार निर्दलीय ने सपने तोड़ दिये हैं। एबीवीपी के आखिरी जिताउ प्रत्याशी 2014—2015 में कानाराम जाट थे। उनके बाद इस संगठन का कोई प्रत्याशी नहीं जीत पाया है।
चुनाव दुबारा शुरू होने पर साल 2010 में मुकेश भाकर ने चुनाव लडा था, लेकिन काफी कम अंतराल से हार गये थे। उसके अगले ही साल मुकेश भाकर ने प्रभा चौधरी को निर्दलीय चुनाव जिताकर एनएसयूआई को अपनी ताकत का अहसास करवाया था। फिर दो बार एबीवीपी के प्रत्यशी जीते थे। इसी तरह से साल 2015 में अनिल चौपड़ा ने चुनाव जीता, तो जो इस वक्त सचिन पायलट कैंप में हैं और निर्मल चौधरी के लिये रणनीति बनाने वालों में प्रमुख रहे हैं। विधायक रामनिवास गावड़िया को टिकट नहीं मिला था, जिसके कारण वह चुनाव नहीं लड़े थे, लेकिन तब भी वह जिताउ उम्मीदवार थे और 2018 के चुनाव में विधायक का चुनाव जीतकर अपनी काबिलियत साबित भी की थी।
अब इन चुनाव से वैसे तो सीधे तौर पर भाजपा या कांग्रेस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, लेकिन कांग्रेस में जो गुटबाजी है, उसके कारण युवा गुट सचिन पालयट का जोश सातवें आसमान पर चला गया है। इस खेमे ने साबित कर दिया है कि युवक कांग्रेस के अध्यक्ष मुकेश भाकर और एनएसयूआई अध्यक्ष पद पर अभिमन्यू पूनिया कार्यकर्ताओं के दम पर जीते थे, ना कि अशोक गहलोत के आर्शीवाद से गणेश घोघरा और अभिषेक चौधरी की तरह अपॉइंट किये गये थे। इसलिये यह भी साबित होता है कि युवाओं का साथ और मूड, दोनों ही सचिन पायलट कैंप के साथ है। इस जीत से स्वत: ही अशोक गहलोत खेमे पर दबाव बनेगा, जो आने वाले विधानसभा चुनाव से पहले काफी अहम होगा।
इधर, भाजपा के छात्र संगठन एबीवीपी के कर्ताधर्ताओं के लिये सोचने का समय है कि आखिर राष्ट्रवादी संगठन कहे जाने के बाद भी उनके प्रयाशी क्यों हार रहे हैं। आखिर क्या वजह है कि अपने दम पर जीते कानाराम जाट के बाद लगातार उनकी सात हार क्यों हुई है? क्या संगठन मंत्री और विवि ईकाई अध्यक्ष की कोई जिम्मेदारी नहीं है? क्या इस संगठन को चलाने वालों पर लगा जातिवाद का ठप्पा ही इस संगठन को जमींदोज कर रहा है? क्यों नहीं इस संगठन को अपना आत्म मंथन करना चाहिये और विवि में उन छात्र—छात्राओं को अपने साथ जोड़ना चाहिये, जो विद्यार्थियों से जुड़े हुये हैं। इन संगठनों के उपर लाखों रुपये लेकर टिकट बेचने के आरोप भी लगते हैं, क्या इन संगठनों को पैसे लेकर टिकट देना बंद नहीं करना चाहिये?
पिछले दो बार से एससी के उम्मीदवारों जीत दर्ज की थी, जिसके बाद विवि में सक्रिय कुछ दलालों ने इस चुनाव को अपनी दुकान बना लिया था। इन दलालों ने लाखों रुपये लेकर चुनाव लड़ाने और जिताने का धंधा बना लिया था, जो इस बार धराशाही हो गया है। अब शायद आगे से जो छात्र चुनाव लड़ेंगे, वो इन दलालों के चक्कर में नहीं आयेंगे।

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