सचिन पायलट को बगावत करने के लिये मजबूर कर रहा है आलाकमान?

Ram Gopal Jat
राजस्थान कांग्रेस की सरकार में 25 सितंबर को उठे सियासी तूफान के बाद जिन दो मंत्रियों और एक चैयरमेन को नोटिस दिया गया था, उनके खिलाफ कार्यवाही होने की संभावना नजर नहीं आ रही है। तीनों ही लोग अशोक गहलोत के खास हैं, और कहा जाता है कि आलाकमान के खिलाफ बगावत करने का काम भी इन्होंने गहलोत के आर्शीवाद से ही किया था। अशोक गहलोत कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी से मुलाकात कर उस घटना पर माफी मांग चुके हैं। भले ही शांति धारीवाल, महेश जोशी और धर्मेंद्र राठौड़ को नोटिस दिया गया हो, लेकिन उनके खिलाफ कार्यवाही नहीं करना उसी दिन तय हो गया था, तब गहलोत ने सोनिया गांधी से मिलकर पूरे घटनाक्रम पर माफी मांग ली थी।
उस घटना के बाद एक बार लगा था कि गहलोत के खिलाफ भी सख्त कार्यवाही हो सकती है, लेकिन उन्होंने सोनिया गांधी से मिलकर पूरे मामले को ना केवल समझाया, बल्कि मंत्रियों की बगावत को भी अपने उपर लेते हुये मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया। पिछले दिनों सचिन पायलट ने जयपुर में मंत्री प्रताप सिंह खाचरिवास से मुलाकात की थी, तब भी यह दिखाने का प्रयास किया गया कि शायद कांग्रेस आलाकमान अब राज्य में नेतृत्व परिवर्तन करने जा रहा है, लेकिन मौजूदा हालात में ऐसा कुछ भी होता हुआ नजर नहीं आ रहा है, ​बल्कि अब यह चर्चा जोर पकड़ने लगी है कि सचिन पायलट का मुख्मयंत्री बनने का सपना शायद इस बार भी पूरा नहीं होगा, क्योंकि अशोक गहलोत जिस आत्मविश्वास से आलाकमान के आदेश के बाद भी खुलकर बयानबाजी कर रहे हैं, उससे ऐसा लगता है कि उनको कुर्सी जाने का अब कोई खतरा नहीं लग रहा है।
कांग्रेस आलाकमान द्वारा विधायकों और मंत्रियों को अपना मुंह बंद रखने की सलाह के बाद भी ओसियां से कांग्रेस विधायक दिव्या मदेरणा काफी आक्रामक हैं, वह ट्वीटर के जरिये लगातार शांति धारीवाल, महेश जोशी और धमेंद्र राठौड़ पर कार्यवाही करने की मांग कर रही हैं। इससे पहले वह मीडिया के सामने आकर भी खुलेआम इन लोगों के खिलाफ बयानबाजी चुकी हैं। विधायक मदेरणा के अलावा कोई भी विधायक या मंत्री बोलने को तैयार नहीं हैं। सचिन पायलट कैंप की चुप्पी ने यह साबित कर दिया है कि अब कांग्रेस आलाकमान के निर्णय के बाद कोई बड़ा तूफान आने की संभावना है, लेकिन कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी की ओर कोई आदेश नहीं दिया गया है, जिसके कारण इंतजार किया जा रहा है।
कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव के बाद ही कोई रास्ता निकाला जा सकता है। जबकि हकिकत यह है कि अध्यक्ष के सबसे तगड़े दावेदार मल्लिकार्जुन खड़गे किसी भी सूरत में गांधी परिवार के निर्देशों की अवहेलना नहीं कर सकते हैं। जिससे यह भी चर्चा शुरू हो गई है कि अध्यक्ष का चुनाव और गांधी परिवार से अध्यक्ष बनाना केवल कागजी कार्यवाही से अधिक कुछ भी नहीं है। यदि खड़गे अपनी मर्जी से कोई काम नहीं कर सकते, तो फिर साफ है कि वह केवल डमी अध्यक्ष हैं और पार्टी में कुछ भी बड़ा परिवर्तन नहीं होने वाला है।
वैसे भी सोनिया गांधी तो अशोक गहलोत के ही पक्ष में मानी जाती हैं, यदि खड़गे के अध्यक्ष बनने के बाद भी उनकी ही चलती रही तो तय है कि अशोक गहलोत अपना पांच साल का कार्यकाल आराम से पूरा करेंगे। हालांकि, सवाल यह उठता है​ कि क्या सचिन पायलट ऐसा होने देंगे? यदि सचिन पायलट इस कार्यकाल में मुख्यमंत्री नहीं बने तो कम से कम 6 साल इंतजार करना होगा। उसके बाद भी इस बात की कोई गांरटी नहीं है कि कांग्रेस की सत्ता लौट आयेगी और वही मुख्यमंत्री बनाये जायेंगे। सवाल यह भी है कि क्या सचिन पायलट जो इसी कार्यकाल में मुख्यमंत्री बनने की मेहनत कर रहे हैं, वह कितना धैर्य रख पायेंगे?
संख्या के समीकरण की बात की जाये तो अशोक गहलोत जहां खुद के साथ 102 विधायकों का दावा कर रहे हैं, वहीं सचिन पायलट कैंप में भी 20 से अधिक विधायक हैं, जबकि 3 आरएलपी, 2 बीटीपी, 2 सीपीएम के विधायक हैं, इसी तरह से 13 निर्दलीय विधायक हैं, जिनको अशोक गहलोत खुद अपने खेमे में ही गिनाते रहते हैं। असल बात यह है कि दिव्या मदेरणा, राजेंद्र गुढ़ा, खिलाडीलाल बैरवा, गिर्राज मल्लिंगा, गंगादेवी, इंदिरा मीणा जैसे कई विधायक खुद को आलाकमान के साथ होने का दावा कर चुके हैं, तो फिर अशोक गहलोत कैंप में 102 का दावा कैसे किया जा सकता है? खाचरिवास का कहना है​ कि 82 विधायकों ने इस्तीफा दिया था, जबकि असल संख्या अभी तक भी सामने नहीं आई है।
सवाल यह भी उठता है​ कि जब इतने विधायक इस्तीफा दे चुके हैं, तो फिर विधानसभाध्यक्ष सीपी जोशी ने इनके इस्तीफे स्वीकार क्यों नहीं किये? क्या इस्तीफा देना केवल नाटक मंडली के खेल से अधिक कुछ नहीं था? क्या विधायकों के इस्तीफे जबरन लिये गये थे? क्या संविधान के अनुसार किसी विधायक से कोई नेता, मुख्यमंत्री या विधानसभाध्यक्ष जबरन इस्तीफा ले सकते हैं? संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, फिर दबाव बनाकर इस्तीफा साइन करवाना और उनको स्वीकार नहीं करना क्या कहलाता है? बात यह है कि यह पूरा राजनीतिक दबाव बनाने का ड्रामा था, जिसके रचियता खुद अशोक गहलोत ही माने जाते हैं।
राजस्थान में अगले कुछ दिनों में नया सियासी ड्रामा होने की संभावना नहीं है, लेकिन 19 अक्टुबर को कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव के बाद फिर से कुछ घटनाक्रम होने उम्मीद लगाई जा रही है। उससे पहले सवाल यह खड़ा होता है कि क्या सचिन पायलट इस बार भी अशोक गहलोत के सामने मात खा गये हैं? क्योंकि यदि सीएम का चेहरा नहीं बदला तो सचिन पायलट का कांग्रेस में दम घुटने लगेगा, जो ना तो उनको और ना ही उनके समर्थक विधायकों को पसंद है। हालांकि, कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी के फैसले का इंतजार करते करते सचिन पायलट करीब 27 महीनों का समय निकाल चुके हैं और यदि अब भी उन्होंने अपनी ताकत नहीं दिखाई तो बचे हुये 15 महीनें भी यूं ही निकल जायेंगे, जिसके बाद राज्य में सत्ता रिपीट होना तो दूर की बात है, कांग्रेस की हालात 2013 के चुनाव से भी अधिक बुरी होती हुई दिखाई दे रही है।
इसका अर्थ यह लगाया जा रहा है कि कांग्रेस आलाकमान पहली बात तो अशोक गहलोत के खिलाफ एक्शन लेने की हालात में नहीं है, दूसरी बात इस तरह से सचिन पायलट को सत्ता से दूर रखकर उनको बगावत करने को मजबूर कर रहा है। वैसे भी कांग्रेस के पास देश में सचिन पायलट जैसा दूसरा नेता नहीं बचा है, जो अपने दम पर देश के सभी राज्यों में भीड़ जुटाने पाने का कद रखता हो। खुद राहुल गांधी और अशोक गहलोत को भी राजस्थान में भीड़ के लिये सचिन पायलट का सहारा लेना पड़ता है। सचिन पायलट की इस ताकत को कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी जितना जल्दी समझ जायेंगे, उतना ही कांग्रेस का भला होगा, अन्यथा अशोक गहलोत के दम पर सत्ता रिपीट करने का सपना हमेशा के लिये सपना ही रह जायेगा।

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