कांग्रेस ही कांग्रेस को खा रही है

Ram Gopal Jat
राजस्थान में इस साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर सभी राजनीतिक पार्टियों ने कमर कसनी शुरू कर दी है। एआईएमएआईएम के नेता असदुद्दीन ओवैशी दो दिन पहले राजस्थान में सभाएं करके कांग्रेस और सचिन पायलट को चुनौती दे गये हैं, तो राज्य की पहली क्षेत्रीय पार्टी रालोपा ने 150 सीटों पर चुनाव लड़ने का अपना लक्ष्य स्पष्ट कर दिया है। आम आदमी पार्टी सभी 200 सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा कर चुकी है, दूसरी ओर बसपा ने भी राज्य की सभी विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी तेज कर दी है। बीजेपी में मुख्यमंत्री के चेहरे की लड़ाई है तो कांग्रेस में पार्टी के भीतर की कलह बड़ी चुनौती बनकर सामने आ रही है। बीजेपी में मुख्यमंत्री के चेहरे वाला मुद्दा भले ही खुलकर न सामने नहीं आ रहा हो, किंतु कांग्रेस में यह आग चार साल से रह—रहकर धधक रही है।
सियासी जानकारों द्वारा कयास लगाए जा रहे थे कि पिछले साल 25 सितंबर की घटना के मद्देनजर भारत जोड़ो यात्रा से पहले राजस्थान कांग्रेस को लेकर आलाकमान बड़ा फैसला लेगा। फिर चर्चाएं शुरू हुईं कि इस यात्रा के बाद फैसला होगा। इस संबंध में पार्टी महासचिव जयराम रमेश, राजस्थान प्रभारी सुखजिंदर सिंह रंधावा के बयान ने भी ये स्पष्ट किया कि जल्द ही कुछ निर्णायक होने वाला है, लेकिन आज तक कोई निर्णय नहीं होना कांग्रेस की सत्ता रिपीट कराने के दावे की पोल खोल रहा है। दूसरी ओर राज्य में चुनाव का समय करीब ही सचिन पायलट गुट ने अपनी सक्रियता को और गति दे दी है। पायलट को मुख्यमंत्री बनाने के लिये चुनाव से पहले कांग्रेस के भीतर आवाज तेज होने लगी है। इसी बीच सचिन पायलट ने खुद न्यूज ऐजेंसी पीटीआई को दिए इंटरव्यू में राजस्थान पर जल्द निर्णय करने के साथ 81 विधायकों के इस्तीफे की जांच का मुद्दा उठा दियाया है, जिसको लेकर कांग्रेस में जयपुर से दिल्ली तक हड़कंप मचा हुआ है। दो दिन पहले आई एआईसीसी के मैंबर्स की सूची में भी पायलट गुट को कमजोर किया गया है।
सचिन पायलट ने एक दिन पहले गंगानगर में एक बार फिर से राज्य के चुनाव की हूंकार भर दी है। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दौसा यात्रा से लेकर ओवैशी की टोंक रैली पर भी इनकी चुनावी सक्रियता को लेकर गंभीर सवाल उठाये हैं। जिससे साफ संकेत है कि पायलट अपने हक की लड़ाई कांग्रेस में भी लड़ते रहेंगे तो अपने क्षेत्र में किसी नेता की रैली के बाद पलटवार करने को तैयार बैठे हैं। राजस्थान में जो सियासी पारा चढ़ रहा है, वह मौमस के पारे को भी पीछे छोड़ता दिखाई दे रहा है। मौसम विभाग ने आंकड़े जारी किये हैं कि जो गर्मी मार्च में होनी चाहिये थी, वह फरवरी में पड़ रही है। इसी तरह से सियासत में जो पारा पांच माह बाद उंचाई पर आना था, वह बजट सत्र में ही चढ़ गया है। भाजपा—कांग्रेस जहां अपनों में फंसी नजर आ रही है, तो थर्ड फ्रंट के रुप में हनुमान बेनीवाल की रालोपा समेत सभी दल बड़े पैमाने पर तैयारी कर रहे हैं।
अशोक गहलोत बजट के सहारे सत्ता रिपीट कराने का दावा कर रहे हैं, तो सचिन पायलट ने कहा है कि यदि सही समय पर निर्णय नहीं लिया गया तो सत्ता रिपीट नहीं हो पायेगी। अपनी मांगों को पायलट आलाकमान के समक्ष पेश कर चुके हैं, जिनमें से कुछ पर काम हुआ है, किंतु अधिकांश मांगें अभी अधूरी ही हैं। पीसीसी के पूर्व मुखिया सचिन पायलट के भविष्य को लेकर सबकी निगाहें छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में 24 से 26 फरवरी तक होने वाले कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन पर टिकी हैं। कांग्रेस के भीतर चल रहा ये तूफान इस अधिवेशन के बाद थम जाएगा या चुनाव आते-आते फूट और बगावत के नए किस्से रचे जाएंगे, यह अभी तय नहीं है।
केवल राजस्थान ही नहीं छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस के भीतर की कलह अब सरेआम होने लगी है। दोनों राज्यों में दिसंबर 2018 में पार्टी के सत्ता में आने के बाद से ही मुख्यमंत्री के चेहरे की लड़ाई के लिये जमीन तैयार हो गई थी। माना जाता है कि राजस्थान में सचिन पायलट के नेतृत्व में पार्टी ने चुनाव लड़ा और सत्ता वापसी की थी, ठीक ऐसे ही छत्तीसगढ़ में लंबे अंतराल के बाद कांग्रेस की वापसी के पीछे भूपेश बघेल और टीएस सिंहदेव का नाम सामने आया था।
मध्य प्रदेश में भी ऐसा ही किया गया, जिसका मजा ज्योतिरादित्य सिंधिया की बगावत और कमलनाथ की सरकार गिरने के रुप में सामने आया था। इसी तरह से बहुमत के बाद राजस्थान में ताजपोशी हुई गहलोत की और छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल ने बाजी मारी। छत्तीसगढ़ में तो यह भी चर्चा है कि ढाई-ढाई साल के फॉर्मूले पर सीएम पद की बात हुई थी। इन फॉर्मूलों की चर्चाएं खूब हुईं, बयानबाजियां हुईं, कई मौके आए तब रार-और तकरार का सीन नजर आया, पर सीएम फेस नहीं बदला। अब चुनाव से ठीक पहले, पिछले 4 साल के भीतर कई उठापटक के बीच टकराव की आग सुलगने लगी है।
अब सवाल ये उठता है कि यदि राष्ट्रीय अधिवेशन में भी फैसला नहीं हुआ तो आगे क्या होगा? राजस्थान में कांग्रेस की वापसी कठिन होगी? पिछले कुछ दिनों की घटनाओं पर नजर डाला जाए तो प्रदेश में गहलोत सरकार विधायकों के इस्तीफे में हुए खुलासे और बजट भाषण में पुराना बजट पढ़ने के दौरान विरोधियों के टारगेट पर रहे हैं। जिस बजट में वे बचत, राहत और बढ़त की बात करने वाले थे, उसकी शुरुआत ही उनकी गलती से हुई और आगे 7 मिनट तक होती रही। 25 सितंबर की बगावत के बाद से गहलोत सरकार इस डैमेज की भरपाई में लगी हुई है। इधर, पायलट गुट का सवाल यह है कि सीएम से बगावत की उन्हें तुरंत सजा मिल गई थी, तो आलाकमान से बगावत के बाद गहलोत गुट को सजा क्यों नहीं मिलनी चाहिये? गहलोत गुट के लोगों पर कार्यवाही में देरी के चलते अब उनका भी धैर्य जवाब देता दिख रहा है।
बजट सत्र के दौरान जलदाय मंत्री और गहलोत गुट के खास कहे जाने वाले महेश जोशी से मुख्य सचेतक के पद से इस्तीफ ले लिया गया है। इसे लेकर चर्चा आम है कि गहलोत ने ये संदेश देने की कोशिश की है कि उन्होंने अपने स्तर पर कार्रवाई की है। विधायकों के बगावत को लेकर जो तीन नाम सबसे ऊपर थे, जिनपर आलाकमान का फैसला आना अभी बाकी है, उनमें महेश जोशी भी हैं। प्रभारी रंधावा ने इसको बगावत से जोड़कर सजा के तौर पर भी स्वीकार किया है।
महेश जोशी के इस्तीफे पर उनकी ही सरकार के कैबिनेट मंत्री प्रताप सिंह खाचरियावास ने चुटकी ली है। खाचरियावास ने कहा कि उनकी पार्टी में एक व्यक्ति एक पद का सिद्धांत है, इसके बावजूद कोई व्यक्ति दो पदों पर रहे वो तो भाग्यवान है। उन्होंने कहा कि ये इस्तीफा इतना लेट क्यों हुआ ये तो सीएम और प्रदेश अध्यक्ष ही बता सकते हैं, मुख्मयंत्री का आर्शीवाद हो तो क्या कुछ नहीं हो सकता है। महेश जोशी के इस्तीफे के बाद सीएम गहलोत पायलट गुट को मैसेज देने की बजाय अपनों से ही घिरते नजर आ रहे हैं। प्रश्न यह उठ रहा है कि जोशी पर इसे कार्यवाही मान लिया जाये तो अभी दो जनों पर कार्यवाही क्यों नहीं हुई है? पायलट गुट अब उन्हें सीएम बनाने के लिए पूरी तरह से मुखर है। यहां तक कह रहे हैं कि यदि वे सीएम नहीं बने तो राजस्थान में वापसी असंभव है। दूसरी ओर सीएम गहलोत किसी भी सूरत में पद से समझौता नहीं करने के मूड में हैं। पूरी तैयारी के बाद बजट पेश कर वे ये संदेश देना चाहते थे कि प्रदेश में कांग्रेस पार्टी को हिला सके ये विपक्ष के बूते की बात नहीं है, लेकिन पुराना बजट पढ़ देने के कारण पूरा मामला धरा का धरा ही रह गया।
सियासी जानकारों की मानें तो रह-रहकर सचिन पायलट का चुप्पी तोड़ना साफ इशारा कर रही है कि वे अभी तक भी उम्मीदों के साथ आलाकमान का मुंह ताक रहे हैं। अब उन्हें रायपुर में होने वाला राष्ट्रीय अधिवेशन ही उनकी आखिरी उम्मीद है। यदि अधिवेशन में फैसला नहीं हुआ तो पायलट गुट खुलकर सामने आएगा और ये बड़ी बात नहीं की पार्टी में टूट हो जाए। यदि पार्टी टूटी तो फिर कांग्रेस 2013 की तरह अशोक गहलोत की लीडरशिप में कम सीटें जीतने का एक और इतिहास बना सकती है।

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