विदेश मंत्री एस जयशंकर की खूबियों का दीवाना हुआ ब्रिटेन

Ram Gopal Jat
हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन के आक्रामक रवैये को देखते हुए अमेरिका ने उसपर लगाम लगाने की योजना बनाई है। चीन को तीन-तरफा घेरने के लिए अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन ने परमाणु-संचालित पनडुब्बी को लेकर एक बड़े सौदा किया है। यह सौदा तीनों देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने सैन डिएगो में एक शिखर बैठक में किया है। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने सैन डिएगो में ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री एंथनी अल्बनीस और ब्रिटिश प्रधानमंत्री ऋषि सुनक के साथ इस डील पर हस्ताक्षर करते हुए कहा कि हम ऑस्ट्रेलिया को मजबूत बनाएंगे और डील के तहत ऑस्ट्रेलियाई कर्मचारियों को बुलाकर ट्रेनिंग देंगे। तीनों नेताओं ने डील के बाद कहा कि ये फैसला केवल हिंद-प्रशांत क्षेत्र को "मुक्त और खुला" रखने के लिए है।
हिंद-प्रशांत क्षेत्र में ड्रैगन का दबदबा कम करने के लिए ऑस्ट्रेलिया कई परमाणु-संचालित पनडुब्बी अमेरिका से खरीदेगा। इसी के साथ AUKUS डील के तहत ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन के साथ पनडुब्बियां बनाएगा, जो नई तकनीक के साथ विकसित होंगी। डील के तहत 2030 के दशक के शुरुआत में, अमेरिका 50 अरब डॉलर की कीमत पर तीन वर्जीनिया-श्रेणी की पनडुब्बियों को ऑस्ट्रेलिया को बेच देगा। यदि आवश्यक हुई तो ऑस्ट्रेलिया 58 अरब डॉलर देकर दो और पनडुब्बियां खरीद सकता है। चीन को टक्कर देने योग्य बनाने के लिए ऑस्ट्रेलिया को अमेरिका और ब्रिटेन AUKUS डील के तहत सुरक्षा कवच देगा। इसके तहत तीनों देश आपस में खुफिया जानकारी भी साझा करेंगे। परमाणु-संचालित पनडुब्बियां मिलने के बाद ऑस्ट्रेलिया हिंद-महासागर और दक्षिण चीन सागर पर ताकतवर हो जाएगा। इस सौदे के तहत ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन एक अलग प्रकार की पनडुब्बियां भी बनाएंगे। SSN-AUKUS के नाम वाली पनडुब्बियां दोनों देशों की नौसेना में शामिल होंगी। ये पनडुब्बियां अमेरिका की तकनीक और ब्रिटेन के डिजाइन पर आधारित होंगी, जिसमें परमाणु रिएक्टर और हथियार प्रणाली की क्षमता होगी।
भारत, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया की तरह ब्रिटेन को भी चीन से खतरा दिखाई दे रहा है। यही कारण है कि ब्रिटेन अपनी सुरक्षा के लिए चीन विरोधी देशों के गठबंधन में शामिल होना चाहता है। भारत, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान क्वाड के सदस्य हैं। क्वाड को चीन के खिलाफ एक मजबूत गठबंधन के तौर पर देखा जाता है। ऐसे में ब्रिटेन की सोच भारत और जापान को ऑकस में शामिल करवा कर खुद के लिए क्वाड की दावेदारी पेश करना है। ऑकस सिर्फ तीन देशों का संगठन है, जिसका मकसद काफी सीमित है। इसके जरिए भविष्य में दूरगामी लाभ होने की गुंजाइश बेहद कम है। जबकि क्वाड चार देशों का संगठन है, जिसका उद्देश्य व्यापार, रक्षा और सुरक्षा को मडबूत करना और मुक्त, स्पष्ट और समृद्ध इंडो-पैसिफिक क्षेत्र सुनिश्चित करना है।
दरअसल, क्वाड लगभग नाटो की तरह ही काम करता है। इसमें केवल फर्क यही है कि ये देश एक दूसरे को खुले तौर पर युद्ध में सहयोग नहीं करते हैं। भारत इस संगठन का मजबूत और बेहद जरुरी देश है। इसी तरह से अमेरिका, ओस्ट्रेलिया और ब्रिटेन ने ओकस बनाया है, लेकिन इसका उद्देश्य जब तक भारत और जापान को शामिल नहीं किया जायेगा, तब तक पूरा नहीं होगा। जिस क्षेत्र में चीन को कंट्रोल करने के लिये यह संगठन बनाया गया है, वहां पर भोगोलिक रुप से भारत और जापान का होना जरुरी है। जब तक इन दोनों देशों को शामिल नहीं किया जायेगा, तब तक अमेरिका की इच्छापूर्ति नहीं हो सकती है। भारत ने इसमें शामिल होने का प्रयास अपनी ओर से नहीं किया है, लेकिन ब्रिटेन इसके पक्ष में है। उसने अमेरिका और ओस्ट्रेलिया को भारत—जापान को शामिल करने के लिये प्रस्ताव दे रखा है। हालांकि, भारत की रुस के प्रति दोस्ती के कारण अमेरिका चिंतित है, किंतु हिंद प्रशांत क्षेत्र में भारत का होना अमेरिका की मजबूरी है, जिसे पूरा करने के लिये उसको आने वाले समय में भारत को ओकस का सदस्य बनाना होगा।
इधर, भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने दुनिया के बड़े देशों के लिये ऐसी रणनीति बनाई है कि उनके बड़े उद्देश्यों को पूरा करने के लिये भारत को रखना होगा। जब अमेरिका ने एक तरफा प्रतिबंध रुस पर लगाये तो भारत ने इसका स्वागत नहीं किया और रुस से कारोबार को बढ़ा दिया। अमेरिका ने शुरू में भारत को दबाव में लेने का प्रयास किया, लेकिन बाद में उसको यह बात समझ आ गई कि यदि आने वाले समय के सबसे बड़े खतरे चीन से निपटना है, तो उसको भारत की मदद चाहिये होगी, इसी को ध्यान में रखते हुये अमेरिका ने पैंतरा बदला और भारत पर दबाव बनाना बंद कर दिया। बीते 6 महीने में अमेरिका ने एक बार भी भारत को दबाव में लेकर रुस के खिलाफ करने का प्रयास नहीं किया, उससे पहले 6 माह के दौरान अमेरिका ने भारत के खिलाफ खूब पैंतरेबाजी की थी।
जयशंकर के विदेश मंत्री बनने के बाद भारत की मोदी सरकार को विदेश मामलों में अधिक सोचने की जरुरत नहीं पड़ती है। मोदी सरकार को पता है कि एस जयशंकर इस मामले में सक्षम मंत्री हैं, जो अपने स्तर पर दुनिया के सभी बड़े देशों से डील कर सकते हैं। हाल ही में ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने भारत की विदेश नीति की जमकर तारीफ की थी। उन्होंने कहा था कि विदेश मंत्री एस जयशंकर ने भारत की विदेश नीति को जो धार दी है, उससे पहले कभी भी भारत ने अपने दम पर बड़े देशों के एक तरफा आदेशों को मानने की हिम्मत नहीं की थी। विदेश मंत्री के तौर पर जयशंकर भारत के सबसे अच्छे मंत्री साबि​त हुये हैं। इससे पहले ईरान के खिलाफ जब अमेरिका ने प्रतिबंध लगाये थे, तब भारत ने अमेरिका के दबाव में आकर ईरान से तेल आयात बंद कर दिया था। ईरान और भारत के ​बीच तेल कारोबार बड़े पैमाने पर होता था, और ईरान भी भारत के पक्ष में रहता था। बीते साल के अंत में ईरान ने एक बार फिर से भारत को रुस की तरह तेल आयात करने की अपील की थी, हालांकि, भारत ने ईरान से तेल आयात शुरू नहीं किया है, लेकिन उसको भी लगता है कि भारत अब अमेरिका के दबाव की चिंता किये बिना ईरान से कारोबार शुरू करेगा।
ऐसा नहीं है कि भारत ने अमेरिका को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया है। भारत ने केवल अमेरिका के साथ बराबरी के रिश्तों की बात कही है, जो कि मोदी सरकार की पहले ही दिन से नीति रही है। भारत इस बात को अच्छे से जानता है कि जब चीन और भारत का विवाद होगा तो रुस किसी भी सूरत में भारत की मदद नहीं करेगा, क्योंकि रुस अब चीन के अहसानों तले दब चुका है, वह चीन के छोटे भाई से बढ़कर कुछ भी नहीं रहा है। अमेरिका की चालों का ही नतीजा है कि जो रुस कभी दूसरे नंबर का देश हुआ करता था, वह दूसरे नंबर के ताकतवर देश का पिछलग्गू बनकर रह गया है। टोनी ब्लेयर ने कहा है कि दुनिया पहले दो ही शक्तियों को देखती थी, लेकिन इस एक साल में तीसरी शक्ति ने अपनी ताकत का अहसास करवाकर दो शक्तियों को सोचने पर मजबूर कर दिया है। उन्होंने जयशंरक की तारीफ में यह भी कहा है कि अमेरिका और चीन के बाद भारत तीसरा ऐसा देश है, जिसके पक्ष में दुनिया के कई देश खड़े हो गये हैं। यह भारत की मजबूत विदेश नीति को दर्शाता है।
दरअसल, बीते करीब एक दशक से अमेरिका पहले और चीन दूसरे नंबर के ताकतवर देश हैं। दुनिया में कहीं पर भी विवाद होता है, तो इन देशों में से किसी एक को चुनना होता है। दुनिया का कोई भी देश इस खेमेबाजी से बच नहीं पाता है, लेकिन भारत ने तीसरा और मजबूत खेमा बना दिया है, जिसके कारण कई छोटे देश अब इनके बजाये भारत को चुनना पसंद कर रहे हैं। आज की तारीख में श्रीलंका से लेकर बंग्लादेश और नेपाल भी भारत को चीन से अधिक तव्ज्जो दे रहे हैं। इसी तरह से गरीब अफ्रीकी देश भारत की मदद के कायल हैं। उन्होंने अब अमेरिका और चीन की तरफ मुंह ताकना बंद कर दिया है। एशिया के कई छोटे देश अब चीन के बजाये भारत से कर्जा लेकर संतुष्ट हैं। बीते साल श्रीलंका के कंगाल होने पर चीन ने हाथ खड़े कर दिये थे, तब भारत ने ही उसको करीब 4 बिलियन डॉलर की सहायता देकर बचाया था। इस समय पाकिस्तान उसी कंगाली के द्वार पर खड़ा है, लेकिन उसको चीन या सउदी अरब से सहायता नहीं मिल रही है। वह सात दशक से भारत को दुश्मन मानकर बैठा है, इसलिये वहां की सत्ता और सेना भी खुलकर भारत से सहायता नहीं मांग पा रही है।
एशिया में अपनी ताकत को बढ़ाकर चीन आने वाले बरसों में भारत, ताइवान, जापान, दक्षिण कोरिया और ओस्ट्रेलिया जैसे देशों को दबाव में लेना चाहता है। इसी वजह से अमेरिका को इस क्षेत्र में भारत, जापान, ओस्ट्रेलिया के साथ क्वाड और ओकस जैसे संगठन बनाने पड़ रहे हैं। आज भारत और अमेरिका के बीच कारोबार इतिहास की नई उंचाइयों पर है। भारत का अमेरिका के साथ कारोबार लाभ में है, जबकि चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा है। इसका मतलब यह है कि अमेरिका को भारत जितना निर्यात करता है, उससे कम आयात करता है, जिससे साल के अंत में फायदे में ही रहता है, जबकि चीन को भारत से जितना निर्यात होता है, उससे कई गुणा अधिक आयात होता है। इसके चलते भारत को चीन के साथ कारोबार में नुकसान उठाना पड़ता है। भारत ने इससे निपटने के लिये मेक इन इंडिया और आत्म निर्भर भारत जैसे बड़े अभियान चला रखे हैं।
क्वाड की तरह यदि अमेरिका और ब्रिटेन ने भारत को ओकस में भी शामिल किया, तो चीन के लिये इंडो—पेसेफिक रीजन में पैर पसारना कठिन हो जायेगा। अमेरिका के सामने आज की तारीख में सबसे बड़ी चुनौती रुस के बजाये चीन है, जो आने वाले दो दशक में अमेरिका को पछाडना चाहता है। हालांकि, उसकी बूढ़ी होती जनसंख्या सबसे बड़ी चुनौती बन चुकी है। इसके कारण आने वाले दस साल में उसके उत्पादन में नकारात्मक बढ़ोतरी होगी। इससे निपटने के लिये जिनपिंग की तानाशाही सरकार ने कई कड़े कदम उठाने शुरू कर दिये हैं।

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