सतीश पूनियां को कमान और हनुमान बेनीवाल से गठबंधन है भाजपा की रणनीति

Ram Gopal Jat
भाजपा ने एक दिन पहले चार राज्यों के प्रदेशाध्यक्ष बदल डाले। इनमें राजस्थान का अध्यक्ष बदलना सबसे अहम है, क्योंकि 6 महीने बाद भाजपा यहां पर चुनाव में जा रही है। राज्य में नवंबर—दिसंबर में चुनाव होंगे और उससे भाजपा ने अपना प्रदेशाध्यक्ष बदलकर एक बड़ा दावं खेला है। सामान्य तौर पर माना तो यह जा रहा है कि भाजपा ने वसुंधरा राजे से गुटबाजी रोकने के लिये सतीश पूनियां की जगह सीपी जोशी को अध्यक्ष बनाया गया है। हालांकि, जो लोग इस बात से सहमत हैं, वो इस बात का शायद ही जवाब दें कि यही गुटबाजी बीते साढ़े तीन साल से जारी थी, तब अध्यक्ष क्यों नहीं बदला गया? राजनीति को लेकर कुछ निहायत ही नासमझ लोग यह भी दावा कर रहे हैं कि पिछले दिनों हुई ब्राह्मण महापंचायत के दबाव में आकर भाजपा ने ब्राह्मण चेहरे को अध्यक्ष बनाया है। ये ही लोग इस बात का जवाब नहीं देंगे कि पिछले दिनों ही जाट महाकुंभ में मांग करने से क्या जाट सीएम बनाया गया? ये वो लोग हैं, जो सोशल मीडिया पर राजनीति को केवल सुनते हैं, पढ़ते हैं और बिना दिमाग का इस्तेमाल किये लिख देते हैं या बोल देते हैं। इस तरह के लोगों का राजनीति की समझ से कोई वास्ता नहीं होता है।
यह बात सही है कि वसुंधरा राजे कभी भी सतीश पूनियां को फूटी आंख नहीं सुहाती हैं, लेकिन वसुंधरा की मर्जी के खिलाफ पार्टी आलाकमान ने सतीश पूनियां को अध्यक्ष बनाया, तब क्या वसुंधरा ने विरोध नहीं किया होगा? क्या उसके बाद साढ़े तीन साल में 300 बार भी विरोध नहीं किया? आखिर अब ही ऐसी क्या मजबूरी आई कि वसुंधरा राजे से गुटबाजी के कारण राजस्थान में अध्यक्ष बदल दिया गया? यह सवाल जरुर अनुत्तरित है कि जब सतीश पूनियां को अध्यक्ष पद पर पार्टी ने एक्सटेंशन दे दिया था, तो इस तरह से बीच अचानक से सीपी जोशी को क्यों लाया गया है? इसका जवाब पार्टी की टॉप टीम के अलावा किसी को पता नहीं है। यहां तक कि भाजपा राजस्थान के विधायकों और अध्यक्ष रहे सतीश पूनियां को छोड़कर संगठन में बैठे लोगों के पास भी इसका जवाब नहीं है।
पिछले दिनों भाजपा ने राज्यसभा सांसदों के लिये दो कार्यकाल भी निर्धारित किये हैं। इसका मतलब यह है कि जो नेता बरसों से राज्यसभा में बिना मेहनत किये नाम के सहारे जाते रहे हैं और जनता से दूर रहते हैं, उनको भी अब लोकसभा चुनाव या फिर संबंधित राज्य में विधानसभा चुनाव लड़ना होगा। कहा तो यह भी जा रहा कि इसी तरह की तैयारी लोकसभा सदस्यों के लिये भी की जा रही है। हालांकि, अभी इसपर फैसला नहीं लिया गया है, क्योंकि इसको लोकसभा सदस्य की क्षेत्र में लोकप्रियता से जोड़कर देखा जा रहा है। फिर भी इस बात की संभावना है कि लोकसभा वालों पर भी लगातार चुनाव लड़ने से रोकने के लिये किसी तरह का निर्णय लिया जा सकता है। भाजपा ने इसको नई पीढ़ी को आगे बढ़ाने के तौर पर प्रचारित किया है। इसका यह भी मतलब होता है कि 58 वर्ष के सतीश पूनियां के बजाये 11 साल छोटे 47 वर्षीय के सीपी जोशी को अध्यक्ष बनाकर वसुंधरा राजे गुट को साफ संकेत भी दिये गये हैं कि पार्टी युवाओं को आगे लाने का प्रयास कर रही है।
उम्र के हिसाब से सतीश पूनियां को केंद्र में जिम्मेदारी सौंपी जा सकती है या फिर उनके लिये पार्टी ने कुछ ऐसा सोचा हो कि आने वाले समय में कहीं पर उनके अनुभव के हिसाब से यूज किया जा सके। अब इस हिसाब से वर्तमान में राज्य में सतीश पूनियां के लिये दो ही जगह बची हुई हैं, जहां उनका प्रमोशन माना जा सकता है। पहला पद है नेता प्रतिपक्ष का, जहां से कुछ समय पहले ही गुलाबचंद कटारिया असम के राज्यपाल बने हैं। इस जगह पर सबसे पहला दावा तो उपनेता के नाते राजेंद्र राठौड़ का बनता है, लेकिन अब सतीश पूनियां का नाम भी तेजी से लिया जा रहा है। किंतु यह भी सुनने में आया है कि राजेंद्र राठौड़ ने पार्टी के अंदरखाने एलओपी पर अपना दावा ठोक दिया है। जब भाजपा की लीडरशिप को लगेगा कि राजेंद्र राठौड़ को ही इस पद पर प्रमोट किया जाना है ​तो फिर सतीश पूनियां के नाम की यहां पर चर्चा करना केवल चर्चा ही रह जायेगी।
दूसरा महत्वपूर्ण पद है चुनाव अभियान समिति का संयोजक। इस पद को लेकर अध्यक्ष के पद की भांति ही वसुंधरा राजे पूरी ताकत लगा रही हैं। हालांकि, लाख चाहने पर भी उनको या उनके किसी करीबी को अध्यक्ष का पद तो नहीं मिला। चुनाव नजदीक आने के साथ ही चुनाव समिति संयोजक का पद भी राज्य में तीन टॉप पदों में से एक हो जायेगा। पिछले लोकसभा चुनाव से ठीक पहले सतीश पूनियां को सदस्यता अभियान समिति का संयोजक बनाया गया था। उस सफलता को देखते हुये कुछ समय बाद ही उनका प्रमोशन कर अध्यक्ष बना दिया गया था। इसलिये इस बात की सबसे अधिक संभावना है कि सतीश पूनियां को चुनाव समिति का संयोजक बनाकर आलाकमान वसुंधरा राजे को संकेत दे सकता है कि उनको पार्टी के अनुसार चलना होगा, अब पार्टी उनके अनुसार नहीं चलेगी। यदि इस पद पर सतीश पूनियां को बिठाया जाता है तो फिर राज्य में अध्यक्ष, प्रभारी, संगठन महासचिव और चुनाव समिति का संयोजक चुनाव के दौरान सबसे पॉवरफुल होंगे, जो राज्य के अधिकांश टिकटों का निर्धारण करेंगे।
अभी भी बहुत सारे टीवी—अखबार भी सतीश पूनियां को हटाया जाना लिख रहे हैं, लेकिन असल में यह कहना गलत है कि उनको हटाया गया है। कई बार देखा गया है कि शब्दों को लिखने वाले पत्रकार ही शब्दों के मामले में मात खा जाते हैं। इस बात का सबको पता है कि सतीश पूनियां का कार्यकाल दिसंबर में पूरा हो चुका था। इस हिसाब से वह तो पहले ही एक्सटेंशन पर चल रहे थे। ऐसे में उनको हटाया जाना शब्द लिखना तकनीति रुप से ठीक नहीं होगा। यह कह सकते हैं कि भाजपा ने प्रदेश का अध्यक्ष बदला है। हटाया जाना शब्द तब भी बोला जा सकता है कि जब किसी को हटाया गया हो और उसके स्थान पर दूसरा व्यक्ति नहीं बिठाया गया हो या कार्यकाल के बीच में ही दूसरा अध्यक्ष बना दिया गया हो।
अब सतीश पूनियां की चुनाव अभियान समिति संयोजक की संभावना सर्वाधिक है, लेकिन इस पद पर उनको नहीं लगाया जाता है तो फिर केंद्र में जनरल सेक्रेटरी जैसी कोई जिम्मेदारी दी जा सकती है। संगठन में सतीश पूनियां को बहुत लंबा अनुभव हो चुका है, जिसके कारण पार्टी उनके अनुभव का फायदा लेना चाहेगी। दूसरी बात यह है कि राज्य की सबसे बड़ी आबादी की नाराजगी से बचने के लिये भी पार्टी सतीश पूनियां को किसी पद पर रखना चाहेगी। सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि राज्य में अभी चुनाव भी करीब 6 से 8 महीने बाद हैं, लेकिन सब गुटों द्वारा अपने अपने नेता को सीएम का चेहरा बनाया जा रहा है। पूर्व सीएम वसुंधरा राजे के समर्थक अब जरुर कमजोर पड़ते नजर आ रहे हैं, क्योंकि दो—दो बार उनकी पंसद के खिलाफ जाकर अध्यक्ष बनाये गये हैं। 2003 में उनको राजस्थान भेजा गया था, तब से लेकर 2018 के चुनाव तक वसुंधरा ही भाजपा और भाजपा ही वसुंधरा हुआ करती थीं, लेकिन माना जाता है कि सबसे पहले 2019 में सतीश पूनियां को अध्यक्ष बनाकर वसुंधरा राजे को कमजोर किया गया। इसके बाद वसुंधरा की तमाम नाराजगी को दरकिनार कर पूरे साढ़े तीन साल सतीश पूनियां ने संगठन को अपने हिसाब से रिडिजाइन किया, जिसमें वसुंधरा के लोगों को जगह नहीं दी गई।
अब चुनाव नजदीक आते ही राजस्थान में एक समीकरण और बन रहा है, जो भाजपा के खिलाफ जा सकता है। वह है पश्चिमी राजस्थान में रालोपा की बढ़ती लोकप्रियता। वैसे तो रालोपा को विशेष फायदा नहीं मिलने वाला था, लेकिन सतीश पूनियां की जगह अध्यक्ष सीपी जोशी को बनाये जाने के बाद एक वर्ग द्वारा अपनी नाराजगी प्रकट की जा रही है। सोशल मीडिया पर यह दिखाने का प्रयास किया जा रहा है कि जाट समाज भाजपा से नाराज है, इसलिये अब रालोपा की तरफ जा सकता है। कांग्रेस से जाट समाज पहले ही सख्त नाराज है, इसलिये उसको फायदा मिलने की कोई उम्मीद नहीं है। लंबे समय से जाट समाज मुख्यमंत्री की मांग कर रहा है। सतीश पूनियां को हटाये जाने के बाद लोगों का यह लग रहा है कि अब सतीश पूनियां भी सीएम की रेस से बाहर हो गये हैं, हालांकि, जल्दबाजी में ऐसा दावा करने वाले अति उत्साही लोग ही हो सकते हैं।
जब जाट समाज सतीश पूनियां के कारण भाजपा से नाराज हो सकता है, तो फिर जायेगा कहां पर? ऐसे नाराज लोगों का ठिकाना रालोपा बताई जा रही है। ऐसा भी नहीं है कि सतीश पूनियां की जगह सीपी जोशी के अध्यक्ष बनने से समाज बिलकुल भी नाराज नहीं होगा। जो लोग नाराज होंगे, वो रालोपा को वोट देंगे। भाजपा को यह बात अच्छे से पता है कि भाजपा से नाराज वोट को अपने पक्ष में करने के लिये रालोपा को साथ लेना होगा। क्योंकि माना यह जा रहा है कि रालोपा इस बार सत्ता की चाबी अपने हाथ में रखने की कोशिश में है। 2019 के लोकसभा चुनाव में भी भाजपा—रालोपा गठबंधन कर चुके हैं। वैसे भी हनुमान बेनीवाल की राजनीति भाजपा से शुरू होती है, तो उनका वोट भी भाजपा के प्लस वाला ही माना जाता है। यदि रालोपा इस चुनाव में अलग से उतरती है, तो निश्वित रुप से कांग्रेस को फायदा होगा। ओपीएस और फ्री घोषणाओं के दम पर कांग्रेस पहले सत्ता रिपीट करने दावा कर चुकी है। इसलिये भाजपा इसको हल्के में नहीं ले सकती है। जोखिम से बचने के लिये भाजपा भी रालोपा को फिर से साथ लेकर चुनाव में जा सकती है।
यदि रालोपा ने भाजपा से गठबंधन किया तो फिर जाट समाज भी रालोपा के जरिये भाजपा की सत्ता की चाबी बन जायेगा। यह सब वैसे तो भविष्य के गर्भ में हैं, लेकिन फिर भी इस समीकरण की सबसे अधिक संभावना बन रही है। रालोपा पहले ही कह चुकी है कि वह मजबूत सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेगी। इसका मतलब यह है कि भाजपा—रालोपा 80:20 के अनुपात में गठबंधन कर चुनाव मैदान में उतर सकती है। यदि भाजपा ने रालोपा को कमजोर समझा और गठबंधन नहीं किया तो फिर अशोक गहलोत इसी फिराक में बैठे हैं कि हनुमान बेनीवाल के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ा जाये और सत्ता रिपीट की जाये। इस बात को भाजपा भी बहुत अच्छे से जानती है कि अशोक गहलोत सत्ता रिपीट कराने के लिये इस बार किसी के भी साथ गठबंधन कर सकते हैं।

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