ब्यूरोक्रेसी ने डॉक्टर्स को हड़ताल में धकेल दिया

Ram Gopal Jat
आपको याद होगा जब केंद्र सरकार ने किसानों के हित में बताते हुये तीन कृषि कानून बनाये थे, तब भाजपा दावा करती थी कि ये कानून किसी भी सूरत में वापस नहीं होंगे, लेकिन 394 दिन, यानी 13 महीनों की किसान हड़ताल के बाद केंद्र सरकार को पीछे हटना पड़ा और कानून रद्द करने पड़े। ठीक ऐसा ही दावा आज राजस्थान में कांग्रेस की अशोक गहलोत सरकार और चिकित्सा मंत्री परसादी लाल मीणा कर रहे हैं कि राइट टू हेल्थ कानून भी वापस नहीं होगा, चाहे डॉक्टर कितनी भी बड़ी हड़ताल कर लें। सरकार अखबारी विज्ञापनों के द्वारा जनता को इस कानून के फायदे समझाने में लगी है, तो राज्य का पूरा चिकित्सा तंत्र 11 दिन से बिलकुल मृत पड़ा हुआ है। प्राइवेट अस्पताल 16 मार्च से हड़ताल करके बैठे हैं, जबकि सरकारी अस्पतालों के चिकित्सकों ने भी अब उनका साथ देना शुरू कर दिया है। डॉक्टर्स का कहना है कि जब तक सरकार इस कानून को वापस नहीं लेगी, तब तक हडताल जारी रहेगी। वैसे अशोक गहलोत के कार्यकाल के अंतिम दिनों में हड़ताल होना और उसके बाद सत्ता से बाहर हो जाना कोई नई बात नहीं है। इससे पूर्व उनके पहले कार्यकाल के अंतिम दिनों में सरकारी कर्मचारियों की एक लंबी हड़लात हुई थी, जिसके बाद सरकार चली गई थी। हालांकि, अशोक गहलोत ने करीब 20 साल बाद उस हड़ताल को लेकर पिछले दिनों अफसोस जताया था। इसी तरह से दूसरे कार्यकाल के अंतिम दिनों में भी सरकारी चिकित्सकों की हड़ताल ने राज्य की चिकित्सा व्यवस्था को ठप कर दिया था। अब सरकार के अंतिम दिन चल रहे हैं, और उसी तरह की तीसरी हड़ताल चल रही है, जो सत्ता रिपीट कराने का दावा करने वाली कांग्रेस सरकार के लिये शुभ संकेत नहीं है।
राइट टू हेल्थ बिल पारित होने के बाद राजस्थान में विरोध भी तेज हो रहा है, डॉक्टर कई दिनों से सड़कों पर हैं। दो दिन पहले जयपुर में डॉक्टर्स की अब तक की सबसे बड़ी रैली निकली है,​​ जिसमें 50 हजार से अधिक चिकित्सक और चिकित्सा जगत से जुड़े हुये कर्मी शामिल हुये हैं। राजस्थान के सरकारी अस्पतालों के डॉक्टर्स ने भी दो दिन से ओपीडी बंद कर दी है। सरकार ने सख्ती दिखानी शुरू कर दी है। इस बीच एक हजार नये जूनियर रेजिडेंट्स की भर्ती का ऐलान कर भर्ती के लिये आज से इन्टरव्यू भी शुरू कर दिये हैं, जबकि सरकार का मानना है कि विरोध से कहीं अधिक राज्य की जनता का समर्थन है और खासकर आम लोग इस कानून से खुश हैं। डॉक्टरों के विरोध पर राजस्थान सरकार से जुड़े सूत्रों का दावा है कि राजस्थान में राइट टू हेल्थ कानून में स्पष्ट कहा गया है कि एक्सीडेंटल इमरजेंसी में प्राइवेट अस्पताल इलाज के लिए मना नहीं कर सकेंगे। मरीज के पैसा ना दे पाने पर सरकार भुगतान करेगी। इसके बावजूद डॉक्टर क्यों हड़ताल कर रहे हैं, जबकि इस मुद्दे पर जनता डॉक्टरों के पूरी तरह खिलाफ है।
माना जा रहा है कि अपनी सरकार बचाने और सत्ता रिपीट कराने के लिये अशोक गहलोत ने जनता के हित में बताकर यह कानून बनाया है। इस कानून के जरिये आम आदमी को यह बताने का प्रयास किया जा रहा है कि जनता का हित सरकार के लिये सर्वोपरी है। जनता को स्वास्थ्य का अधिकार देकर सरकार फिर से चुनाव के लिये माहोल बनाने की कोशिश में जुटी है। दूसरी ओर अशोक गहलोत दावा कर रहे हैं कि केंद्र सरकार को भी इस तरह का कानून बनाना चाहिये। चर्चा है कि गहलोत ने कांग्रेस आलाकमान को इस कानून की खूबियां बताकर गांधी परिवार को अपने पक्ष में कर लिया है।
राहुल गांधी को दो साल की सजा होने और संसद सदस्यता जाने के बीच कांग्रेस अब पूरे देश में राइट टू हेल्थ कानून की मांग कर सकती है। कांग्रेस के लोगों का कहना है कि इसके लिए पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर गंभीरता से विचार कर रही है। राजस्थान में अशोक गहलोत की कांग्रेस सरकार ने पिछले दिनों ही विधानसभा में सत्र के अंतिम दिन राइट टू हेल्थ कानून पास किया है। कांग्रेस राजस्थान में राइट टू हेल्थ को राजस्थान में एक पायलट प्रोजेक्ट के रूप में देख रही है। अगर इसे सफलता मिली तो 2024 आम चुनाव में कांग्रेस पूरे देश में लागू करने के लिये अपने घोषणा पत्र के माध्यम से ऐलान कर सकती है। इस कानून को लेकर राज्य में बड़े पैमाने पर डॉक्टर्स का विरोध भी हो रहा है। प्रदेशभर में भारी विरोध के बीच इस कानून को लेकर कड़ाई से आगे बढ़ने के पीछे कांग्रेस का तर्क है कि पार्टी ने राइट टू एजुकेशन, राइट टू फूड, राइट टू इन्फोर्मेशन जैसे कानून को देश दिए हैं, इसलिये कांग्रेस का कहना है कि कोविड के बाद अब देश में आम लोगों को राइट टू हेल्थ की भी जरूरत है।
अस्पताल संचालकों का मानना है कि सरकार ने इस ​कानून में ना तो भुगतान का कोई सिस्टम बनाया है और ना ही इसके प्रावधान स्पष्ट किये हैं। इसके अलावा चिरंजीवी योजना लागू होने से पहले भामाशाह का भुगतान नहीं किया गया था, जिसके कारण कई प्राइेवट अस्पतालों को लाखों रुपयों का फटका लग चुका है। डॉक्टर्स इसी वजह से अधिक सकते में हैं कि कल को मरीज इलाज करवाकर चला जायेगा, तब उसका भुगतान सरकार ने नहीं किया तो पैसा कहां से आयेगा। सरकारी सिस्टम में कई तरह की कमियां निकालकर भुगतान रोकने या उसको डिस्मिस करने का सिस्टम भी डॉक्टर्स के लिये खौफ का एक बड़ा कारण है। यह भी माना जा रहा है कि इससे डॉक्टर और मरीज के रिश्तों में कडवाहट आयेगी और चिकित्सा तंत्र फैल हो जायेगा, राज्य की चिकित्सा व्यवस्था में अराजकता बढ़ेगी।
दरअसल, राजस्थान विधानसभा ने 21 मार्च को राइट टू हेल्थ कानून को उस समय पास किया गया है, जब जयपुर में डॉक्टर सड़कों पर पुलिस की लाठियां खा रहे थे। इस बिल के कानून बनने के बाद सरकार का दावा है कि सरकारी और प्राइवेट हॉस्पिटल इलाज से अब मना नहीं कर सकेंगे। यहां के हर व्यक्ति को इलाज की गारंटी मिलेगी। उधर डॉक्टर और मेडिकलकर्मी इस कानून को स्वीकार करने के कतई पक्ष में नहीं है। दो दिन से पूरे राज्य में बंद किया हुआ है, जिसके कारण सभी अस्पतालों में हालात बद से बदत्तर हो गये हैं। मरीजों के मरने की संख्या पहले के मुकाबले कई गुणा अधिक बढ़ गई है। कई अस्पतालों में गंभीर मरीज असामयिक मौत के शिकार हो रहे हैं। सरकार कह रही है कि आपातकलीन सेवाओं में ही यह कानून अधिक लाभकारी है, लेकिन डॉक्टर्स का कहना है कि इस कानून में इमरजेंसी इलाज की परिभाषा ही तय नहीं है। कानून पास हो गया, लेकिन सरकार के पास संसाधन इस स्तर का नहीं है, जिससे उन्हें इलाज में भारी दिक्कत का सामना करना पड़ेगा। सरकार का दावा है कि उनकी सारी मांगों को बिल में जगह दी गई है और इसे विधानसभा में सर्वसम्मत तरीके से पास किया गया। जबकि अभी भी विपक्ष की ओर से सरकार से इस बिल को लेकर डॉक्टर्स से बात करने की सलाह दी जा रही है। इससे पहले पिछले विधानसभा सत्र में सरकार ने इसको विधानसभा में रखा था, लेकिन विपक्षी विरोध के बाद इसको सलेक्ट कमेटी को भेज दिया गया था। विपक्ष इसको अब जनमत जानने के लिये भेजने को कह रहा है।
प्राइेवट अस्तालों के डॉक्टर्स के पक्ष में मेडिकल ऑफिसर और पीएचसी-सीएचसी के डॉक्टर्स की यूनियन अखिल राजस्थान सेवारत चिकित्सक संघ ने पहले से ही 29 मार्च को कार्य बहिष्कार का ऐलान कर दिया था। अब इनके समर्थन में सरकारी मेडिकल कॉलेज के टीचर्स भी आ गए हैं। इसमें सीनियर प्रोफेसर, प्रोफेसर, असिस्टेंट प्रोफेसर और एसोसिएट प्रोफेसर रैंक की फैकल्टी शामिल है। सरकार ने कहा है कि यदि सरकारी डॉक्टर इस हड़ताल का हिस्सा बनेंगे तो उनके खिलाफ कार्यवाही की जायेगी। सरकार की तरफ से जनता का समर्थन हासिल करने के लिये अखबारों और टीवी को विज्ञापन देकर प्रचार किया जा रहा है, जबकि डॉक्टर्स ने भी इसके जवाब में अखबारों में विज्ञापन देकर इस कानून की खामियां उजागर की हैं। दोनों तरफ से तलवारें खिंची हुई हैं। जिस तरह कुछ डॉक्टर्स इस कानून का समर्थन किया है, ठीक इसी तरह से सरकार के कुछ विधायकों ने भी डॉक्टर्स का साथ दिया है। हालांकि, विधायक खुलकर सामने आने से बच रहे हैं। इधर, सामाजिक संगठनों ने भी सरकार को पत्र लिखकर सरकार कानून वापस लेने की मांग की है।
इस कानून की खामियों और कमियों के इतर बात की जाये तो प्रदेशभर के 15 हजार से अधिक डॉक्टस कई दिनों से हड़ताल पर हैं, राज्य के 6 हजार चिकित्सालयों पर ताला लटका हुआ है, जबकि प्रतिदिन करीब एक लाख मरीज ओपीडी में इलाज कराने आते थे, वो इस द्वंद के बंद होने का इंतजार कर रहे हैं। चिकित्सा मंत्री परसादी लाल मीणा ने दावा किया है कि यदि डॉक्टर चाहें तो चिरंजीवी योजना के तहत उपचार करना बंद कर दें, लेकिन यह कानून वापस नहीं होगा। आपको याद होगा, जब तीन कृषि कानून बने थे, तब केंद्र के मंत्री और भाजपा के नेता भी यही दावा करते थे कि चाहे किसान कितना भी बड़ा आंदोलन करें, लेकिन कानून वापस नहीं होंगे और उसके बाद 13 महीनों के उपरांत को पीछे हटकर कानून रद्द करने पड़े थे। तब कांग्रेस समेत पूरे विपक्षी दल दावा कर रहे थे कि किसानों को विश्वास में लिये बिना ही तीन कृषि कानून बना दिये गये, अब इसी तरह का दावा राजस्थान में विपक्ष कर रहा है कि डॉक्टर्स को विश्वास में लिये बिना ही ब्यूरोक्रेसी ने कानून डॉक्टर्स के उपर थोपा दिया है।
डॉक्टर्स दावा कर रहे हैं कि कानून का ड्राफ्ट करने वाले आईएएस अधिकारी चिकित्सा के बारे में कुछ नहीं जानते हैं, जबकि वो अपनी कलम चलाकर डॉक्टर्स के उपर अधिकारी बनना चाहते हैं। एक तरह से देखा जाये तो इस बिल के अंदर ब्यूरोक्रेसी और डॉक्टर्स के अधिकारों की लड़ाई भी छुपी हुई है। इससे पहले भी कई बार डॉक्टर्स की हड़तालों में यह बात सामने आई हैं कि आईएएस लॉबी डॉक्टर्स के उपर अपनी मर्जी थोपने का काम करती रही है। नतीजा यह होता है कि ब्यूरोक्रेसी जहां सरकार के पीछे छुपकर डॉक्टर्स के अधिकारों का हनन करती है, तो इसका खामियाजा हड़ताल के रुप में आमजन को भुगतना पड़ता है।
ब्यूरोक्रेसी को लेकर एक बात और बहुत ही गंभीरता से समझने की है। सरकार बीते चार साल से जवाबदेही कानून लाने का प्रयास कर रही है, लेकिन ब्यूरोक्रेसी के दबाव में नहीं ला पा रही है। दरअसल, सरकार चलाने का असली काम ब्यूरोक्रेसी ही करती है। कानून बनाने से लेकर उसको लागू करने का काम अधिकारियों के ही हाथ में होता है। इस वजह से ब्यूरोक्रेसी ऐसा कोई कानून नहीं लाना चाहती है, जिससे उनके उपर जवाबदेही लागू हो जाये और उनकी वर्तमान स्वतंत्रता छिन जाये। यदि जवाबदेही कानून होगा तो ब्यूरोक्रेसी को अपनी ड्यूटी के प्रति जवाबदेह देनी पड़ेगा, जो उनको बर्दास्त नहीं है। इसी वजह से सरकार के लाख चाहने और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के तमाम दावों के बाद भी राज्य में जवाबदेही कानून नहीं बन पा रहा है। सीधे तौर पर देखा जाये तो पर्दे के पीछे से ब्यूरोक्रेसी ऐसे बड़े खेल करती है, लेकिन इसका सीधा नुकसान जनता को भुगतना पड़ता है। सरकारें पांच साल में बदल जाती है, लेकिन ब्यूरोक्रेसी 60 साल तक राज करती है। इसके कारण चाहे किसी भी पार्टी की सरकार हो, ब्यूरोक्रेसी के उपर कोई कार्यवाही नहीं होती है। जितने अधिकार लोकतंत्र में ब्यूरोक्रेसी को मिले हुये हैं, उतने किसी को नहीं हैं। डॉक्टर्स का कहना है कि ब्यूरोक्रेसी ने कागज पर कानून बना दिया, लेकिन उसके दुषपरिणाम डॉक्टर्स और जनता को भुगतने होंगे। ब्यूरोक्रेसी को दूसरों पर कानून थोपने से पहले खुद के उपर जवाबदेही कानून बनाकर लागू करना चाहिये, जो वो होने नहीं देगी।
सवाल यह उठता है कि डॉक्टर्स के लिये राइट टू हेल्थ कानून बनाने वाले अधिकारी खुद की जवाबदेही तय करने के कानून क्यों नहीं बनने देते हैं? आखिर क्या वजह है कि डीसी, कलेक्टर, एसडीएम जैसे जनता के लिये बेहद जरुरी अधिकारी बिना किसी सूचना के छुट्टी पर क्यों और कहां चले जाते हैं, जबकि जनता उनका कई दिनों तक इंतजार करती है। प्रदेश में कई जगह तो सैकड़ों किलोमीटर चलकर आने के बाद लोगों को पता चलता है कि कलेक्टर साहब तो छुट्टी पर हैं। उनके एवज में कोई जिम्मेदार नहीं मिलता है। छोटे छोटे कार्यों के लिये जनता को कलेक्टर, एसडीएम के यहां पर दर्जनों चक्कर काटने पड़ते हैं। क्या लोकतंत्र में ब्यूरोक्रेसी को जनता के प्रति जवाबदेह नहीं होना चाहिये। आम आदमी कलेक्टर, एसडीएम कार्यालय के चक्कर काटकर काटकर बूढ़ा हो जाता है, लेकिन उसके छोटे छोटे काम नहीं होते हैं, तब यह जरुरी नहीं हो जाता है कि इन अधिकारियों को पाबंद करने का काम किया जाये, इनके लिये जवाबदेही तय हो? क्या जरुरी नहीं है कि जिस तरह से अन्य कानून बनाये जाते हैं, वैसे ही तुरंत प्रभाव से जवाबदेह कानून बनाकर ब्यूरोक्रेसी को सख्ती से पाबंध किये जाने की जरुरत है। चिकित्सा के अभाव में तो मरीज एक बार मर जाता है, लेकिन इस ब्यूरोक्रेसी के नाकरापन के कारण जनता तिल—तिलकर कई बरसों तक मरती है। इसलिये जैसे आपातकालानी सेवा के तहत कानून बनाकर उपचार के लिये डॉक्टर्स को बाध्य किया गया है, वैसे ही ब्यूरोक्रेसी को पाबंध करने के लिये एक सख्त जवाबदेही कानून बनाना चाहिये, तभी सही मायने में जनता का राज होगा, अन्यथा ये लोग खुद को लोकतंत्र का राजा मान कर बैठे हैं। लोकमंत्र के पीछे छुपे हुये ये लोग इतने तानाशाही हैं कि जनता को कीड़े—मकौड़ों से अधिक कुछ नहीं समझते हैं।

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