वसुंधरा का टाइम ओवर, नए नेता की तलाश शुरू!



प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सोमवार को हुई सभा में मंच पर जो कुछ घटित हुआ, उसने दिखा दिया है कि पूर्व सीएम वसुंधरा राजे का टाइम ओवर हो गया है। राजस्थान में यह लगातार 10वीं बड़ी रैली थी, जिसमें वसुंधरा राजे मौजूद थीं, लेकिन उनको बोलने का अवसर नहीं दिया गया। इसके साथ मंच पर पहुंचने से लेकर वापस लौटने तक खुद पीएम मोदी ने जिस तरह का बर्ताव किया वह बहुत कुछ कहता है। मोदी द्वारा अपने भाषण में वसुंधरा का नाम भी नहीं लिया गया, उनकी सरकार द्वारा शुरू की गईं योजनाओं के बारे में एक शब्द नहीं बोला, ना मोदी ने वसुंधरा से एक शब्द बातचीत की, और तो और उनकी तरफ देखा तक नहीं। ये सब साबित करता है कि अब राज्य की राजनीति से वसुंधरा राजे का टाइम ओवर हो चुका है। यहां तक कि राजेंद्र राठौड़ और मोदी के बीच में बैठीं वसुंधरा को इग्नोर कर मोदी ने राठौड़ से बात की। इस पूरे एपिसोड को मीडिया के कैमरों द्वारा कैद किया गया।


हाल ही में मोदी सरकार ने संसद और विधानसभाओं में 33 फीसदी महिला आरक्षण का बिल पास किया है। जिसको प्रचारित करने के लिए पूरी भाजपा जी जान से जुटी हुई है। सोमवार की रैली में मंच संचालन का काम राजसमंद सांसद दीया कुमारी के हाथ में था। ऐसा पहली बार हुआ है, जब राज्य में मोदी की रैली हुई और मंच संभालने का काम दीया कुमारी ने किया है। इसको भी वसुंधरा के लिए खतरे के तौर पर देखा जा रहा है। कहा जा रहा है कि वसुंधरा की जगह अब दीया कुमारी पार्टी में पूर्व राज परिवार से सदस्य हो सकती हैं। दरअसल, वसुंधरा राजे को राजपूत माना जाता है, यदि उनको दरकिनार किया जाता है तो फिर राजपूत समाज के नाराज होने की संभावना होती है, जिसकी भरपाई करने के लिए दीया कुमारी को महत्व दिया जा रहा है। वसुंधरा राजे 70 क्रॉस कर चुकी हैं, जबकि दीया अभी राजनीति के हिसाब से जवान हैं। उनके पास करीब 15—20 साल राजनीति करने का समय शेष है। 


आपको याद होगा दीया कुमारी को राजनीति में लाने का श्रेय भी वसुंधरा राजे को ही दिया जाता है। दीया को 2013 में सवाई माधोपुर से चुनाव लड़ाया गया था। हालांकि, उस कार्यकाल के दौरान ही दीया की होटल को लेकर बड़ा विवाद हुआ था। कहा जाता है कि होटल मामले में दीया जब झुकी नहीं तो सरकार ने एक्वायर करने का फरमान तक जारी कर दिया था। बाद में राजपूत समाज की एकता के कारण सरकार को पीछे हटना पड़ा था। तभी से यह माना जाता है कि दीया और वसुंधरा के बीच रिश्ते सामान्य नहीं हैं। इस वजह से भी वसुंधरा को कमजोर करने के लिए भाजपा ने दीया कुमारी को आगे किया है। दीया अभी सांसद हैं, लेकिन इस बार उनको विधानसभा चुनाव लड़ाने की तैयारी चल रही है। राजस्थान की राजनीति में दीया कुमारी को वसुंधरा की जगह लाने का यह मतलब नहीं है कि सीएम बना दिया जाएगा, लेकिन उनको कैबिनेट मंत्री बनाकर राजपूत समाज को बैलेंस करने और महिला की जगह उतनी ही आकर्षक महिला को आगे लाकर वसुंधरा को जवाब दिया जा रहा है। 


ऐसा नहीं है कि ये सब कुछ दीया को पता नहीं है और वो बलि का बकरा बन रही हैं। सब कुछ पता होने के बाद भी दीया कुमारी जानबूझकर भाजपा की इस चाल का शिकार हो रही हैं। उनको पता है कि जब तक वसुंधरा भाजपा की धुरी में रहेंगे, तब तक उनको आगे नहीं आने दिया जाएगा, इसलिए संगठन के कहे अनुसार काम कर रही हैं। यह भी कहा जा रहा है कि दीया कुमारी को आगे करने का काम भाजपा के बजाए आरएसएस ने किया है। आपको याद होगा 2013 के बाद प्रचंड बहुमत की सरकार पर सवार वसुंधरा ने जयपुर में कई मंदिर तुड़वा दिए थे। कहा जाता है कि तब से ही वसुंधरा से संघ खासा नाराज है। इसलिए संघ ने वसुंधरा को रिप्लेस करने लिए दीया कुमारी को आगे किया है। यह बस भविष्य के गर्भ में है कि क्या दीया कुमारी वसुंधरा राजे का विकल्प बन पाएंगी, लेकिन इतना पक्का है कि वसुंधरा राजे का समय बीत चुका है।


मैं 2019 से कह रहा हूं कि कोई माने या नहीं, लेकिन राजस्थान भाजपा की राजनीति में जो समीकरण दिखाई दे रहे हैं, वो वसुंधरा राजे युग की पूर्ण विदाई के हैं, इस बात को जितना जल्दी वसुंधरा कैंप समझ जाएगा, इसको सहर्ष स्वीकार कर लेगा, उतना ही आगे की राजनीति करना आसान होगा, अन्यथा भाजपा में नाराज होकर आंख दिखाने वाले नेताओं का अंत बहुत बुरा होता हुआ देखा है। मैं यह बात तक से कह रहा हूं, जब वसुंधरा राजे सत्ता से बाहर हुईं थीं। उसके बाद जब डॉ. सतीश पूनियां को पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया, तभी साफ हो गया था कि अगले चुनाव से पहले वसुंधरा राजे को राजनीति से बाहर कर दिया जाएगा। यह बात और है कि वसुंधरा कैंप इस बात को कभी स्वीकार करने को तैयार नहीं रहा। आज भी वसुंधरा खेमे के नेता स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं कि पूर्व सीएम का युग पूरा हो चुका है, उनको आलाकमान के साथ तालमेल बिठाकर आगे के बारे में सोचना चाहिए। किंतु राजनीति में खुद के ढलते सूर्य को स्वीकार करना आसान नहीं होता है, यही बात आज वसुंधरा और उनके कैंप के विधायकों के साथ हो रहा है। 


अब समझने वाली बात यह है कि ऐसा क्या हुआ जो वसुंधरा राजे जैसी कद्दावर नेता को दरकिनार किया जा रहा है? आखिर किस कारण से मोदी ने लगभग खुद के उम्र की वसुंधरा को बीते जमाने की नेता बना दिया है? आपको ध्यान होगा जब नरेंद्र मोदी पहली बार सीएम बने थे, तब तक ना तो वो विधायक थे और ही कभी सांसद बने थे। मोदी 2001 में पहली बार गुजरात के सीएम बने थे, जबकि वसुंधरा राजे 1985 में, यानी 16 साल पहले विधायक का चुनाव जीत चुकी थीं। इतना नहीं, जब मोदी पहली बार सीएम बने थे, तब तक वसुंधरा राजे पांच बार सांसद और केंद्र में मंत्री तक बन चुकी थीं। हालांकि, वसुंधरा पहली बार 2003 में सीएम बनी थीं, लेकिन चुनावी राजनीति में वो मोदी से काफी पहले ही एंट्री कर चुकी थीं। यह बात सही है कि वसुंधरा की राजनीति में एंट्री उनकी मां विजयाराजे सिंधिया की वजह से हुई थी, तो दूसरी तरफ मोदी ने अपने दम पर सब कुछ हासिल किया है। 


आज नरेंद्र मोदी जहां अपनी मेहनत के दम पर वैश्विक नेता बन चुके हैं, तो वसुंधरा दो बार सीएम रहने के बाद भी केवल सीएम पद के लिए ही लड़ रही हैं। आखिर क्या कारण है कि उम्र के हिसाब से लगभग समकक्ष दो नेताओं में इतना फक्र हुआ है, जबकि एक जमाने में वसुंधरा को काफी ताकतवर नेता माना जाता था। जब 2002 में गुजरात दंगे हुए थे, तब मोदी पर काफी उंगलियां उठी थीं, और उनको करीब 9 साल तक उच्च स्तरीय जांच का सामना करना पड़ा था, लेकिन वसुंधरा के सामने कभी इस तरह की चीजें नहीं हुई हैं। 


आपको याद होगा जब 2009 में वसुंधरा को नेता प्रतिपक्ष के पद से हटाया गया था, तब उन्होंने तत्कालीन अध्यक्ष राजनाथ सिंह के सामने अपने विधायक खड़े करके अपनी ताकत दिखाई थी। इसके कारण उनको वापस नेता प्रतिपक्ष बनाया गया था। इसके बाद 2013 में जब नरेंद्र मोदी पीएम पद के उम्मीदवार बना दिये गए थे, तब वसुंधरा राजे दूसरी बार सीएम बनी थींं, उस समय मोदी की प्रचंड लहर पर सवार भाजपा ने राजस्थान में 163 सीटों के साथ प्रचंड बहुमत पाया था, लेकिन कहा जाता है कि वही जीत मोदी और वसुंधरा के बीच पहली बार टकराव का कारण बनी थी। भाजपा नेताओं के अनुसार तब मोदी चाहते थे कि जीत का श्रेय उनको दिया जाए, लेकिन वसुंधरा ने उस जीत को खुद की बताई। तभी से यह माना जाता है कि मोदी और वसुंधरा के बीच में खींचतान शुरू हो गई थी। 


बाद में जब अशोक परनामी की जगह मोदी शाह अपने हिसाब से गजेंद्र सिंह शेखावत को पार्टी अध्यक्ष बनाना चाहते थे, लेकिन वसुंधरा ने वीटो कर दिया और ऐसे में बीच का रास्ता निकालकर मदनलाल सैनी को अध्यक्ष बनाया गया। मदनलाल सैनी के निधन के बाद जब वसुंधरा सत्ता में नहीं थीं, तब मोदी शाह ने अपनी पसंद से डॉ. सतीश पूनियां को अध्यक्ष बनाया गया। कहा जाता है कि जब सतीश पूनियां को अध्यक्ष बनाया गया, तब ही यह तय हो गया था कि आगे वसुंधरा राजे को राजस्थान की सक्रिय राजनीति से बाहर करने का रास्ता बना दिया गया है। 


मामला चाहे 2009 का हो, 2013 का, 2018 का या फिर लेटेस्ट अशोक गहलोत सरकार बचाने और कैलाश मेघवाल एपिसोड हो, किंतु इतना तय है कि जिस तरह से नरेंद्र मोदी, अमित शाह की जोड़ी अपने किसी राजनीतिक दुश्मन को कभी माफ नहीं करती है, उसी तरह से वसुंधरा के साथ हो रहा है। आज जब वसुंधरा राजे अपने सियासी ढलान की ओर है, तब मोदी ने वसुंधरा को दरकिनार कर साफ कर दिया है कि उन्होंने पूर्व में सत्ता के मद में वसुंधरा द्वारा दिखाई सियासी ताकत का जवाब देने की ठान ली है।


इसके अलावा यह भी कहा जाता है कि जब सचिन पायलट ने अशोक गहलोत सरकार से बगावत की थी, तब गहलोत सरकार बचाने के लिए वसुंधरा ने परोक्ष रूप से काम किया था। यह बात खुद अशोक गहलोत ने स्वीकार की थी कि उनकी सरकार बचाने के लिए वसुंधरा राजे, कैलाश चंद मेघवाल ने काम किया था। उसके बाद पिछले दिनों जब कैलाश मेघवाल ने भाजपा पर आरोप लगाए थे, तब उन्होंने साफ कहा था कि वह वसुंधरा कैंप से हैं, और भाजपा में कई गुट हैं। तब कैलाश मेघवाल को भाजपा से बाहर कर दिया गया था। कहा जा रहा है कि मेघवाल एपिसोड के पीछे वसुंधरा राजे का ही हाथ रहा है। 


इस बीच वसुंधरा राजे की चुप्पी और आलाकमान का उन पर परोक्ष हमला यही बता रहा है कि इस समय भाजपा भी उसी दौर से गुजर रही है, जिससे कांग्रेस को गुजरना पड़ रहा है। फर्क सिर्फ इतना है कि कांग्रेस में जहां युवा नेता सचिन पायलट को नजरअंदाज कर सत्ता रिपीट करने का प्रयास किया जा रहा है तो भाजपा में वसुंधरा राजे को साइड लाइन कर केवल मोदी के नाम पर ही सत्ता प्राप्त करने की कोशिश की जा रही है। यह बात और है कि बहुमत मिलने के बाद सीएम की कुर्सी किसे नसीब होगी, यह समय बताएगा, लेकिन इतना पक्का है कि कम से कम वसुंधरा राजे को तो नहीं मिलने वाली है।

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