राजस्थान का चाण्क्य तो एक ही था, बाकी तो फोटो कॉपी हैं



राजस्थान विधानसभा के चुनाव दिसंबर में होने हैं। यहां विधानसभा चुनाव में आमतौर पर भाजपा और कांग्रेस के बीच ही मुकाबला रहता है। इस बार हनुमान बेनीवाल की रालोपा के चलते मुकाबला त्रिकोणीय होने की संभावना जताई जा रही है। इससे पहले 2013 में डॉ. किरोडीलाल मीणा की पार्टी जब चुनाव लड़ रही थी, तब भी यही बात कही जा रही थी। हकिकत यह है कि वर्ष 1993 से अब तक हुए हुए 6 विधानसभा चुनावों में इन दोनों पार्टियों के बीच सत्ता की अदला-बदली होती रही है। 


साल 1952 से अब तक राजस्थान विधानसभा के 15 चुनाव हो चुके हैं। 10 बार कांग्रेस की सरकारें बनी तो 4 बार भाजपा सत्ता में रही, एक बार जनता पार्टी की सरकार बनी थी। वर्ष 1972 तक प्रदेश की राजनीति में कांग्रेस का एकतरफा दबदबा रहा। इसके बाद साल 1977 में पहला मौका आया, जब कांग्रेस सत्ता से बेदखल हुई। तब जनता पार्टी ने 200 में से 151 सीटें जीत कर सरकार बनाई और भैरोंसिंह शेखावत पहले गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री बने थे, लेकिन दुर्भाग्य से इंदिरा गांधी ने शेखावत सरकार को ही बर्खास्त कर दिया था।


अगले दो चुनावों में फिर कांग्रेस सत्ता में रही। साल 1980 से पहली बार चुनाव मैदान में उतरी भाजपा को कामयाबी 1990 में मिली। तब पार्टी को 85 सीटें मिली थीं और भैरोंसिंह शेखावत फिर सीएम बने। साल 1993 में प्रदेश की 10वीं विधानसभा के लिए चुनाव हुए और 95 सीटों के साथ भाजपा सत्ता में रिपीट हुई। राजस्थान के इतिहास में यह पहला और अब तक एक मात्र मौका रहा है, जब भाजपा लगातार दो बार सत्ता में रही।


इसके बाद से भाजपा और कांग्रेस के बीच सत्ता की अदला-बदली चल रही है। परसराम मदेरणा और किसान सीएम के नाम पर चुनाव लड़कर वर्ष 1998 में कांग्रेस ने धमाकेदार प्रदर्शन किया। उस चुनाव में कांग्रेस को 200 में से 153 सीटों जीत मिली। यह पहला मौका था, जब कांग्रेस ने 100 से अधिक सीटें हासिल की थी। लेकिन कांग्रेस में जादूगरी हुई और किसान नेता परसराम मदेरणा की जगह जोधपुर के तत्कालीन सांसद अशोक गहलोत सीएम बने। माना जाता है कि अशोक गहलोत ने कांग्रेस की टॉप लीडरशिप में बैठीं सोनिया गांधी को अपने नजदीकी संपर्कों के जरिए सीएम बनाने के लिए राजी किया था, लेकिन साल 2003 विधानसभा चुनाव में गहलोत दूसरी पारी नहीं खेल पाए और उनके नेतृत्व में लड़े गए चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह हार गई। इस चुनाव में 120 सीटें जीतकर भाजपा सत्ता में लौटी, और वसुंधरा राजे सीएम बनीं।


साल 2008 में वसुंधरा भी लगातार दूसरी पारी नहीं खेल पाईं। 96 सीटें पाकर कांग्रेस सत्ता में लौटी, गहलोत फिर सीएम बने। 2013 में अदला-बदली का क्रम जारी रहा और भाजपा ने राजस्थान विधानसभा के इतिहास में अपनी सबसे बड़ी जीत दर्ज की। 163 सीटों के साथ वसुंधरा राजे फिर सीएम बनीं। इसके बाद साल 2018 में सचिन पायलट के सहारे कांग्रेस पार्टी 99 सीटों के साथ सरकार बना पाई, बाद में बसपा के 6 विधायक कांग्रेस में शामिल हो गए तो 13 निर्दलियों ने साथ दिया। सरकार को पांच साल पूरे होने वाले हैं। पार्टी में पायलट गहलोत की कलह सबके सामने है।


मौजूदा मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के सामने 25 साल से चली आ रही इस परंपरा को तोड़ने की चुनौती है कि राजस्थान में लगातार दो बार किसी पार्टी की सरकार नहीं बनती। चुनौती इसलिए और भी बड़ी है क्योंकि अभी कांग्रेस के सबसे बड़े जननेता सचिन पायलट अशोक गहलोत सरकार के साथ बिलकुल भी दिखाई नहीं दे रहे हैं। आने वाले दो माह में साफ हो जाएगा कि सरकार बदलेगी या परंपरा, लेकिन सही मायने में आकलन किया जाए तो अशोक गहलोत ना तो जननेता हैं और ना ही अच्छे प्रशासक हैं। गहलोत के समर्थक उनके जादूगर कहते हैं, लेकिन हकिकत में जादूगरी के बजाए दूसरे कई शब्द हैं, जो उनके लिए इस्तेमाल हो सकते हैं। यदि ईमानदारी से देखा जाए तो राजस्थान की राजनीति में बीते 30 साल में भैरोंसिंह शेखावत के रूप में केवल एक ही व्यक्ति चाण्क्य हुआ है, बाकी तो उनकी फोटो कॉपी बनने का प्रयास करते हैं।


जनता दल के नेता के रूप में भैरोंसिंह शेखावत प्रचंड बहुमत के साथ 151 सीटों पर जीतकर पहली बार 1977 में सीएम बन गए थे, जब बीजेपी थी भी नहीं है। हालांकि, आपातकाल की आदी इंदिरा गांधी ने उनकी इतने बहुमत की सरकार को भी बर्खास्त कर दिया था। यह मामूली बात नहीं थी कि जब देश में कांग्रेस को सम्पूर्ण राज हुआ करता था, भाजपा थी नहीं और कई पार्टियों में बिखरे विपक्ष के पास कोई मजबूत नेता नहीं था, तब राजस्थान में भैरोसिंह शेखावत ने वो करिश्मा कर दिया था। असल में  देखा जाए तो वो करिश्मा भैरोंसिंह का भी नहीं था, क्योंकि तब भैरोंसिंह शेखावत तो मध्य प्रदेश से राज्यसभा सांसद थे, वो उससे पहले विधानसभा चुनाव हार चुके थे। किंतु जब जनता दल, यानी संयुक्त विपक्ष ने मिलकर राज्य में 151 सीटों पर हासिल की तो दल का नेता चुनने की बारी में दो नेताओं का नाम सबसे आगे था।


ठीक उसी तरह से, जैसे 2018 में गहलोत पायलट के बीच और 1998 के दौरान परसराम मदेरणा और दूसरा कोई नेता का विवाद था। साल 1953—54 के दौरान कांग्रेस के अध्यक्ष थे भरतपुर के मास्टर आदित्यंद्र, जो कि कांग्रेस टूटने के बाद कांग्रेस ओ के नेता हो गए थे। इस चुनाव में जनता पार्टी के नेता बने थे। आदित्येंद्र सबसे अनुभवी नेता थे, विधायक का चुनाव जीते थे और जनता पार्टी के खेमे में अधिक विधायक थे। इस वजह से सीएम की रेस में सबसे मजबूत दावेदार थे। दूसरी तरफ भैरोंसिंह शेखावत ने विधायक का चुनाव नहीं लड़ा था और जनसंघ के पास विधायकों की संख्या भी कम थी। किंतु फिर भी चौधरी देवीलाल ने दौलतराम सारण के माध्यम से कहा कि मास्टर आदित्येंद्र अपना दावा छोड़ दे, लेकिन वो नहीं माने और वोटिंग हुई, जिसमें भैरोसिंह को 109 और आदित्येंद्र को 42 वोट मिले। इसके बाद भैरोंसिंह ने आदित्येंद्र को अपना वित्त मंत्री बनाया। 


माना जाता है कि भैरोंसिंह शेखावत की यह पहली जीत थी, जिसमें उनकी रणनीति का पता चला था। बाद में हालांकि, इंदिरा गांधी ने सरकार को बर्खास्त कर दिया, लेकिन तब तक भैरोंसिंह स्थापित नेता बन चुके थे। साल 1980 में भाजपा का गठन हुआ और 1990 में पहली बार भाजपा 85 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनी। इस चुनाव के बाद भैरोंसिंह के सामने बहुमत जुटाने की चुनौती थी, जिसको उन्होंने पूरा किया, लेकिन 1992 के दौरान राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। उसके बाद 1993 में मध्यावधि चुनाव कराने पड़े। इस चुनाव में भाजपा और मजबूत हुई, उसको 96 सीटों पर जीत मिली। भैरोंसिंह शेखावत तीसरी बार सीएम बने और पूरे पांच साल तक शासन किया। इस दौरान भी उनकी सरकार गिराने की खूब कोशिशें हुईं, लेकिन विपक्ष विफल ही रहा। 


साल 1998 के चुनाव में कांग्रेस ने परसराम मदेरणा को आगे करके चुनाव लड़ा। इस बार किसान वर्ग ने कांग्रेस को जमकर वोट किया, जिसके कारण पार्टी पहली बार 153 सीटों पर पहुंच गई। हालांकि, बाद में कौनसी जादूगरी हुई ये सबको पता है। सीएम किसको बनना था और बन कौन गया, यह इतिहास में दफन हो गया। आज का सच यह है कि अशोक गहलोत अपना तीसरा कार्यकाल पूरा करने जा रहे हैं। इस मामले में गहलोत हमेशा भाग्यशाली रहे। तीनों ही चुनाव में कांग्रेस ने किसी दूसरे नेता के चेहरे पर हुआ और तीनों ही बार सीएम गहलोत बने। लेकिन कहते हैं कि इतिहास उसको ही याद रखता है जिसके नाम पर जीत लिखी जाती है, बाकी परिश्रम किसने किया और सरकार कैसे बनाई ये अलग बात है। 


बनने को तो अशोक गहलोत भी तीन बार सीएम बन चुके हैं, लेकिन तीनों ही बार अपने दम पर नहीं बने हैं, जबकि भैरोंसिंह शेखावत को 1977 की जीत छोड़ दें तो भी 1990 और 1993 की जीत का श्रेय तो दिया ही जा सकता है। उसके बाद अनेक दलों और विधायकों को साथ जोड़कर रखना भी कम काम नहीं था। आज के दौर में परिस्थितियां अलग तरह की है, लेकिन जब पता भी नहीं चलता था कि ऋऋऋऋविधायक कहां रहता है, उसका गांव किस वाहन और रास्ते से जाया जाएगा, तब भी शेखावत ने सरकारें चलाई हैं। माना जाता है कि अशोक गहलोत ने भैरोंसिंह को ही फॉलो किया है, लेकिन दोनों में बड़ा अंतर साफ दिखाई देता है। इसलिए यह कहना कतई अनुचित नहीं होगा कि राजस्थान की राजनीति में चाण्क्य तो सिर्फ एक ही हुआ है, बाकी तो उसको कॉपी करने का प्रयास ही करते हैं। 

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