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वसुंधरा राजे की अभेद आर्मी कैसे बिखरी गई?



राजस्थान की पूर्व सीएम वसुंधरा राजे को लेकर आज उतनी ही चर्चा है, जितनी सचिन पायलट को लेकर है। दोनों ही नेता पिछले चुनाव की मुख्य धुरी में थे, लेकिन आज दोनों ही के भविष्य को लेकर किसी तरह की सूचना नहीं मिल रही है। भाजपा ने साफ कर दिया है कि इस बार चुनाव में कमल का फूल ही सीएम का चेहरा होगा, तो कांग्रेस के बड़े नेता स्पष्ट कर चुके हैं कि यदि सत्ता रिपीट हुई तो अशोक गहलोत ही सीएम बनेंगे। इसका मतलब यह है कि आज की परिस्थितियों में तो ये दोनों ही नेता अपने अपने दलों में हाशिए पर धकेल दिए गए हैं। चुनाव परिणाम के बाद क्या होगा, यह अभी कोई कह नहीं सकता, लेकिन इतना जरूर है कि दोनों ही का महत्व कम करने का प्रयास किया जा रहा है। पीएम मोदी ने चुनाव की कमान संभाल रखी है और साफ संदेश दे दिया है कि कमल का फूल ही पार्टी के प्रत्येक नेता और कार्यकर्ता की पहचान है।

पिछले दिनों सुनने को मिला था कि संघ ने मोदी को हिदायत दी है कि व्यक्तिवादी ब्रांडिंग से पार्टी को नुकसान हो रहा है, जिसके बाद मोदी ने अपने भाषण में केवल मोदी की ब्रांडिंग के बजाए कमल का फूल ही पहचान वाली लाइन को प्रमुखता देनी शुरू कर दी है। हालांकि, इससे वसुंधरा राजे के भविष्य को लेकर किसी तरह की पहचान नहीं होती है, किंतु इसके सहारे वसुंधरा को साइड लाइन करने वाले अपने इरादों को जरूर मजबूत कर दिया गया है। पीएम मोदी इन दिनों राजस्थान में चुनावी दौरों पर चल रहे हैं और इस दौरान जिस तरह से वसुंधरा को लगातार कमजोर दिखाने का प्रयास किया जा रहा है, उससे साफ हो गया है कि भाजपा की योजना इस बार कुछ अलग ही नजर आ रही है। भाजपा सूत्रों का तो यहां तक दावा है कि इस बार वसुंधरा को टिकट नहीं देकर उनके बेटे को विधानसभा चुनाव में उतारा जा सकता है। इसके बाद अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में उनकी सीट पर किसी नये नेता को अवसर दिया जाएगा, फिर वसुंधरा को राज्यसभा भेजा जाएगा।

इसको लेकर भाजपा ने कुछ समय पहले गाइड लाइन भी तय की है। जिसके अनुसार विधानसभा में 45 से 55 साल और लोकसभा में 55 से 70 साल के नेताओं को अधिक महत्व दिया जाएगा। इसके ऊपर उम्र वालों को राज्यसभा भेजने का निर्णय किया जाएगा। यही वजह है कि वसुंधरा राजे की उम्र 70 साल से अधिक होने के कारण उनको राज्यसभा भेजा जा सकता है। दूसरी तरफ महिला आकर्षण के तहत सांसद दीया कुमारी को विधानसभा चुनाव के जरिए राजस्थान में वसुंधरा की जगह लाने का प्रयास शुरू हो चुका है। जयपुर की रैली में जहां दीया कुमारी को मंच संचालन का जिम्मा दिया गया, वहीं चित्तौड़गढ़ में भी उनको पीएम मोदी के बराबर वाली पंक्ति में बैठाया गया, जबकि वसुंधरा राजे को यहां पर भी काफी कम महत्व दिया गया है। वैसे तो वसुंधरा राजे का मुरझाया हुआ चेहरा ही बता रहा है कि उनको जिस तरह से नजरअंदाज किया जा रहा है, वह अपने आप में एक निर्णय से कम नहीं है, लेकिन फिर भी दबाव की राजनीति चल रही है।

अब समझने वाली बात यह है कि आखिर वसुंधरा राजे इतनी कमजोर कैसे हुईं कि आज उनकी बात कोई मानने को तैयार भी नहीं। कभी पूरा मंत्रिमंडल उनके इशारे पर इस्तीफा देने को तैयार हो जाता था, कभी भाजपा के विधायक उनके इशारे पर दिल्ली जाकर इस्तीफे की पेशकश कर देते थे, जब वसुंधरा राजे ही राजस्थान के टिकट तय करती थीं, वो ही राजे आज इतनी कमजोर हैं कि उनके खुद के टिकट का भी अता पता नहीं है। वास्तव में इसकी नींव तो 2013 में ही लग चुकी थी। उसके बाद 2018 में उसपर इमारत बननी शुरू हुई और आज वसुंधरा की विदाई का जो शानदार भवन दिखाई दे रहा है, वो मोदी—शाह की मंशा के अनुसार ही तैयार हुआ है।

आज वसुंधरा के पास न तो केंद्र में बड़े नेता हैं और ना ही राज्य में इतने ताकतवर विधायक हैं कि मोदी शाह जैसी मजबूती जोड़ी को दबाव में लेकर झुका सकें। कभी वसुंधरा के मंत्रिमंडल में रहे राजपाल सिंह शेखावत, प्रभुलाल सैनी, डॉ. रामप्रताप सरीखे अधिकांश नेता हारने के के बाद घर बैठे हैं, तो जो विधायक जीतकर आए थे, वो भी पाला बदल चुके हैं। माना जाता है कि आज कैलाश मेघवाल, कालीचरण सराफ, प्रताप सिंह सिंघवी, नरपत सिंह राजवी जैसे नेता ही बचे हैं, जिनके टिकट कटने का नंबर आने के कारण वसुंधरा के सहारे उनके साथ खड़े हैं। बीते पांच साल में पार्टी में नई खेप आ चुकी है, नए नेता तैयार हो चुके हैं, और नई पीढ़ी आने के कारण पुराने नेताओं की अहमियत कम होती जा रही है।

वसुंधरा राजे के लिए केंद्र में लॉबिंग करने वाले नेता कमजोर स्थिति में हैं। माना जाता है​ कि राजनाथ सिंह और नितिन गडकरी वसुंधरा राजे के लिए दबाव तो बना सकते हैं, लेकिन इन दोनों ही नेताओं की मोदी शाह के आगे बिलकुल नहीं चलती है। राजस्थान में कार्यकर्ता अब संगठन के साथ खड़े हो गए हैं, डॉ. सतीश पूनियां ने सवा तीन साल अध्यक्ष रहकर यही काम किया है। उनको जिम्मेदारी सौंपी गई थी कि संगठन को वसुंधरा की छत्रछाया से बाहर निकालना है, उस जिम्मेदारी को सतीश पूनियां ने पूरा किया है। अब मैदान तैयार हो चुका है, पिच बनकर कम्पलीट रेडी है और केवल बेटिंग करनी है, जिसके लिए पीएम मोदी मैदान में उतर चुके हैं। कुल मिलाकर बात यही है कि अब वसुंधरा राजे का समय बीत चुका है, यह बात उनको और उनके समर्थकों को मान लेनी चाहिए, ताकि पार्टी के साथ तालमेल बिठाकर चले और आगे पार्टी की वफादारी से मिलने वाले राजनीतिक लाभ का इंतजार करें। 

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